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102- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्रायजे, पृ॰ 8 – स॰र॰सं।
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इतना स्याही और कागज
खर्च करना, मुलबर्गर के विविध घुमावों और मोड़ों को भेदते हुये रास्ता बनाकर उस वास्तविक
मुद्दे पर पहुँचने के लिये जरूरी था जिसे अपने जबाब में मुलबर्गर सावधानीपूर्वक टाल
जाते हैं।
मुलबर्गर के आलेख में
सकारात्मक वक्तव्य क्या क्या हैं?
पहला: कि “किसी घर, निर्माणक्षेत्र आदि के मूल लागत
एवं वर्तमान मूल्य के बीच का फर्क” अधिकारपूर्वक समाज का होता है।102 अर्थनीति
की भाषा में इस फर्क को भूमि-किराया कहते हैं। प्रुधों भी इसे समाज के लिये रखना चाहते
हैं, उनके द्वारा रचित आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के सन 1868 के संस्करण
में पृष्ठ 219 पर कोई चाहे तो इस बात को पढ़ सकता है।
दूसरा: कि आवास की समस्या का समाधान सभी के, अपने घरों
में किरायेदार होने के बजाय उस घर का मालिक बन जाने में है।
तीसरा: कि यह समाधान एक कानून पारित कर प्रभाव में लाया
जायगा, जिसके तहत किराये के भुगतान को घर की खरीद की कीमत के किश्तों के भुगतान में
बदल दिया जायेगा। --दूसरा एवं तीसरा बिन्दु दोनों प्रुधों से उधार लिया गया है; कोई
भी उनके आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के पृ॰ 199 पर, सम्बन्धित अंश में देख
सखता है। पृष्ठ 203 में सम्बन्धित कानून की परिकल्पना का एक मसौदा भी तैयार किया हुआ
है।
चौथा: कि व्याज की दर को तत्कालिक तौर पर एक प्रतिशत
पर लाने वाले एवं आगे और भी कम किये जाने के प्रावधान के साथ एक संक्रमणकालीन कानून
के द्वारापूंजी की उत्पादकता से निर्णायक टक्कर लिया गया। यह बिन्दु भी प्रुधों से
लिया गया है, जो विशद में आइडिये जेनराले के पृष्ठ 182 से लेकर 186 तक में पढ़ा
जा सकता है।
उपरोक्त हर बिन्दु पर
मैंने प्रुधों की उन रचनाओं में से अंश उद्धृत किये है, जिनमें मुलबर्गर कृत नकल का
मूल मिलेगा। और अब मैं पूछता हूँ कि जिस आलेख में पूरी तरह और सिर्फ प्रुधोंवादी नजरिया
है, उसके लेखक को प्रुधोंवादी कहना मेरे लिये उचित था कि नहीं था? इसके अलावा, मुलबर्गर
को मुझसे सबसे कड़ुवी शिकायत इस बात के चलते हैं कि उनके आलेख में “प्रुधों की कुछेक
खास अभिव्यक्तियाँ पा जाने” के कारण मैं उन्हे प्रुधोंवादी कहता हूँ। नहीं।
बल्कि “अभिव्यक्तियाँ” सभी मुलबर्गर की है, उनकी सामग्री प्रुधों की
है। और जब मैं इस प्रुधोंवादी अन्वेषण का अनुपूरण प्रुधों से करता हूँ, मुलबर्गर शिकायत
करते हैं कि मैं प्रुधों के “विकट नजरिये” का श्रेय उन्हे दे रहा हूँ!
मैंने इस प्रुधोंवादी
योजना का क्या जबाब दिया था?
पहला: कि भूमि-किराया का राज्यसत्ता को अन्तरण भूमि पर
व्यक्तिगर सम्पत्ति का अन्त है।
दूसरा: कि किराये के घर की पापमुक्ति एवं अभी तक जो किराएदार
था उसके नाम घर की सम्पत्ति का अन्तरण से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर कोई असर नहीं
पड़ता है।
तीसरा: कि बड़े उद्योगों एवं शहरों के मौजूदा विकास के
परिप्रेक्ष्य में यह प्रस्ताव उतना ही निरर्थक है जितना प्रतिक्रियावादी है, और हर
एक व्यक्ति को उसके घर के व्यक्तिगत मालिकाने की व्यवस्था की पुन: शुरुआत, पीछे की
ओर जाता हुआ एक कदम होगा।
चौथा: कि पूंजी पर व्याज की दर में बाध्यकर कमी किसी
भी तरह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर हमला नहीं करता है103; और जैसा कि
सूदखोरी के कानून साबित करते हैं, यह उपाय जितना पुराना है उतना ही असम्भव है।
पाँचवाँ: कि पूंजी पर व्याज का अन्त किसी भी तरह घरों के
लिये किराये के भुगतान का अन्त नहीं करता है।
मुलबर्गर अब दूसरा एवं
चौथा बिन्दु मान चुके हैं। बाकी बिन्दुओं पर वह कोई भी जबाब नहीं देते। जबकि ये ही
वे बिन्दु हैं जिन पर पूरा वाद-विवाद केन्द्रित है। मुलबर्गर का जबाब, खण्डन नहीं है।
सावधानी से यह जबाब सभी आर्थिक बिन्दुओं को टाल जाता है, जबकि वे बिन्दु ही निर्णायक
हैं। यह बस एक व्यक्तिगत शिकायत है। उदाहरण के तौर पर, जब मैं पहले से, अन्य प्रश्नों,
जैसे राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण एवं साख पर उनके घोषित समाधानों को जान जाता हूँ और
बोलता हूँ कि मुलबर्गर का समाधान आवास के प्रश्न की तरह ही सभी जगहों पर एक जैसा होगा
– व्याज का अन्त, व्याज के भुगतान को पूंजीगत रकम पर किश्त के भुगतान में रुपांतरण
और नि:शुल्क साख – वह शिकायत करते हैं। तब भी, मैं बाजी रखने को तैयार हूँ कि अगर उपरोक्त
विषयों पर मुलबर्गर के आलेख प्रकाशित हों तो उनकी मूलभूत सामग्री प्रुधों के आइडिये
जेनराले से मेल खायेंगे – साख, पृष्ठ 182 के साथ, राज्यसत्ता के ॠण, पृष्ठ 186
के साथ, निजी ॠण, पृष्ठ 196 के साथ – ठीक उतना ही मेल खायेंगे जितना आवास के प्रश्न
पर उनके आलेख, प्रुधों की उसी किताब के मेरे द्वारा उद्धृत अंशों से मेल खाये।
मुलबर्गर इस अवसर का
इस्तेमाल करते हुये मुझे सूचित करते हैं कि कर-निर्धारण, राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण
एवं साख जैसे सवाल, जिनके साथ अब सामुदायिक स्वशासन भी जुड़ गया है, किसानों के लिये
एवं गाँवोँ में प्रचार की दृष्टि से सर्वाधिक महर्वपूर्ण सवाल हैं। काफी हद तक मैं
सहमत हूँ लेकिन, 1) अभी तक किसानों के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई है और 2) इन सभी
समस्याओं का प्रुधोंकृत “समाधान” आर्थिक तौर पर उतना ही निरर्थक है और उतना ही मूलभूत
तौर पर पूंजीवादी जितना है आवास की समस्या का उनका समाधान। मुलबर्गर के इस सुझाव के
विरुद्ध, कि मैं किसानों को आन्दोलन में लाने की आवश्यकता को समझने में असफल हूँ मुझे
अपनी सफाई देने की शायद ही जरूरत है। वैसे, मैं उन्हे इस काम के लिये प्रुधोंवादी
नीमहकीमी की अनुशंसा करने को नि:सन्देह नादानी समझूंगा। जर्मनी में अभी भी काफी बड़ी
भू-सम्पत्तियाँ मौजूद हैं। प्रुधों के सिद्धांत के अनुसार इन सारी सम्पत्तियों को छोटी
किसानी के खेतों में बाँट दिया जाना चाहिये। यह प्रस्ताव, वैज्ञानिक कृषि की वर्तमान
स्थिति में तथा फ्रांस एवं पश्चिम जर्मनी में किये गये छोटे भू-आबंटनों के अनुभव के
बाद, निश्चय ही प्रतिक्रियावादी है। बल्कि, बड़ी जमीन वाले जायदाद जो अभी भी मौजूद हैं,
बड़े पैमाने पर खेती चलाने के स्वागतयोग्य आधार होंगे। बड़े पैमाने पर खेती, खेती की
एकमात्र पद्धति है जो आधुनिक सुविधाओं, यंत्रसमूहों आदि का इस्तेमाल, सहयोगी श्रमिकों
के द्वारा कर सकता है – और इस तरह छोटे किसानों को, सहयोगिता के माध्यम से बड़े पैमाने
पर काम के लाभों को समझा सकता है। डेन्मार्क के समाजवादी, जो इस मामले में सबसे आगे
हैं, बहुत पहले इस पहलु को जान गये थे।104
उतना ही गैरजरूरी है
मेरे लिये इस सुझाव के खिलाफ अपना बचाव करना कि मैं श्रमिकों की मौजूदा जघन्य आवासीय
स्थिति को “एक तुच्छ ब्योरा” मानता हूँ। जहाँ तक मैं जानता हूँ, मैंने ही सबसे पहले
जर्मन में इन स्थितियों के शास्त्रीय रूप – जो इंग्लैंड में मौजूद था - का बयान किया
था। इसलिये नहीं कि, जैसा कि मुलबर्गर राय देते हैं, वे “मेरे न्याय के बोध का
अनादर करते थे”। जो भी उन सारे तथ्यों पर पुस्तकें लिखने पर अड़ा है जो उसके न्याय के
बोध का अनादर कर रहे हैं, उसे बहुत कुछ करने को मिलेगा। लेकिन, जैसा कि मेरे पुस्तक105
के आमुख में पढ़ा जा सकता है, मैने, आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों के द्वारा सृजित
सामाजिक स्थितियों का वर्णन करते हुये श्रमिकों की आवासीय स्थितियों का बयान जर्मन
समाजवाद को तथ्यात्मक आधार देने के लिये किया, क्योंकि जर्मन समाजवाद उस समय जागृत
हो रहा था और खाली मुहावरों में खुद को खर्च कर रहा था। खैर, मेरे दिमाग में कभी नहीं
आया कि ज्यादा महत्वपूर्ण भोजन के प्रश्न के ब्योरों में खुद को नियोजित करने
से अधिक आवास के प्रश्न के समाधान की कोशिश की जाय। अगर मैं साबित कर सकूँ कि
हमारे आधुनिक समाज का उत्पादन उस समाज के सभी सदस्यों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने
के लिये यथेष्ट है, और पर्याप्त घर मौजूद हैं जहाँ तत्काल श्रमजीवी जनता को खुला और
स्वस्थ जीने लायक आवास मुहैया कराया जा सकता है, तो मैं संतुष्ट हो जाउंगा। भविष्य
का समाज भोजन एवं आवास के वितरण को किस तरह संगठित करेगा इस बारे में अटकलें सीधे आदर्शलोक
की ओर ले जायेगा। अधिक से अधिक, आज तक की सभी उत्पादन प्रणालियों की बुनियादी शर्तों
की हमारी समझ से हम इतना बता सकते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पतन के बाद
कुछ रूपों में स्वायत्तीकरण, जो आज तक समाज में मौजूद था, असम्भव हो जायेगा। यहाँ तक
कि संक्रमणकालीन कदम भी हर जगह, उस पल मौजूद सम्बन्धों के अनुसार ही होंगे। छोटे भू-सम्पत्ति
वाले देशों में वे कदम, बड़े भू-सम्पत्ति वाले देशों से काफी हद तक अलग होंगे, आदि।
मुलबर्गर खुद हमें किसी दूसरे से बेहतर दिखाते हैं कि अगर कोई आवास के प्रश्न जैसे
तथाकथित व्यवहारिक समस्याओं के अलग अलग समाधान खोजने का प्रयास करता है, तो वह कहाँ
पहुँचता है। उन्होने पहले 28 पृष्ठ इसकी व्याख्या106 के लिये खर्च किये
कि “आवास के प्रश्न के समाधान का पूरा विषय वस्तु पापमुक्ति शब्द में निहित
है”, और जब दबाव में आये तो शर्मिन्दगी में हकलाने लगे कि वास्तव में यह संदिग्ध है
कि यथार्थ में घरों का दखल लेने के बाद “श्रमजीवी जनता पापमुक्ति की पूजा” स्वत्वहरण
के अन्य रूपों से पहले “करेंगे”।107
मुलबर्गर मांग करते हैं
कि हमे व्यवहारिक होने चाहिये, कि “जब हम “वास्तविक व्यवहारिक सम्बन्धों के मुखातिब
हों”, हमें “सिर्फ मृत एवं अमूर्त सुत्रों के साथ आगे आना” नहीं चाहिये, कि हमें “अमूर्त
समाजवाद से आगे जाना” चाहिये “और समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आना”
चाहिये। अगर मुलबर्गर खुद यह किये होते तो शायद आन्दोलन के लिये बड़ा काम किये होते।
समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आने की ओर पहला कदम निश्चित तौर पर यही है
कि सीखा जाय वे हैं क्या। मौजूदा आर्थिक अन्तर्सम्पर्कों के अनुसार उनकी जाँच की जाय।
लेकिन हमें मुलबर्गर के आलेखों में क्या मिलते हैं? दो पूरे वाक्य, इस तरह:
1॰ “पूंजीपति के साथ मजदूर का सम्बन्ध जिस जगह पर है, मकान-मालिक के
साथ किरायेदार का सम्बन्ध भी उसी जगह पर है।” [पृष्ठ 13]
मैंने पुनर्मुद्रण के
पृष्ठ 6 में साबित किया है कि यह बात पूरी तरह गलत है108 और मुलबर्गर के
पास प्रत्युत्तर के लिये एक शब्द नहीं है।
2॰ “खैर, जिस सांड को” (सामाजिक सुधार में) “उसके सिंग से पकड़ना चाहिये
वह है पूंजी की उत्पादकता, जैसा कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के उदारवादी विद्वतसमाज
कहते हैं, एक ऐसी चीज जो वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, लेकिन अपने प्रतीयमान
अस्तित्व में, आज के समाज पर बोझ बनी हुई तमाम असमानताओं को ढँकने के चादर का काम
करती है।”109
तो वह सांड जिसे सींग
से पकड़ना होगा “वास्तव में” अस्तित्व में “नहीं है”, तो इसके कोई “सींग” भी नहीं हैं।
सांड दुष्ट नहीं है बल्कि उसका प्रतीयमान अस्तित्व दुष्ट है। इसके बावजूद, “(पूंजी
की) तथाकथित उत्पादकता”, “जादू से घर और शहर खड़ा करने में सक्षम है” जिनका अस्तित्व
और जो कुछ भी हो, प्रतीयमान नहीं है। (पृष्ठ 12) और एक आदमी जो, जबकि मार्क्स की पूंजी
से “वह परिचित है”, इतनी बुरी तरह की भ्रांतियों में पूंजी और श्रम के सम्बन्ध पर बड़बड़ाते
रहता है, जर्मन श्रमिकों को नया और बेहतर रास्ता दिखाने का जिम्मा लेता है और खुद को
“उस्ताद निर्माता” के रूप में प्रस्तुत करता है जो
“भविष्य के समाज के स्थापत्यात्मक ढाँचे के बारे में, कम से कम उसके
मुख्य रूपरेखाओं में स्पष्ट है”! [पृष्ठ 13]
पूंजी में मार्क्स जिस करीब तक “समाज के निर्दिष्ट ठोस
सम्बन्धों तक” पहुँचे हैं, और कोई वहाँ तक पहुँच नहीं पाया है। पचीस साल वह उन सम्बन्धों
को विभिन्न कोणों से जाँच करते हुये बिताये और पूरे ग्रंथ में, उनकी आलोचना के परिणामों
में तथाकथित समाधानों के भी अंकुर मौजूद हैं – जहाँ तक उन्हे देख पाना आज सम्भव है।
लेकिन वह मुलबर्गर के लिये पर्याप्त नहीं है। वह सब अमूर्त समाजवाद है, मृत एवं अमूर्त
सुत्र। “समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों” का अध्ययन करने के बजाय, मित्र मुलबर्गर
प्रुधों के कुछेक खण्डों को पढ़कर सन्तुष्ट हो जाते हैं। प्रुधों के वे खण्ड उन्हे समाज
के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। विपरीत, उन्हे सभी सामाजिक
बुराईयों के बहुत निर्दिष्ट ठोस चमत्कारी इलाज बताते हैं। वह तब सामाजिक मुक्ति के
इस बनी-बनायी योजना को, इस प्रुधोंवादी प्रणाली को, जर्मन श्रमिकों को इस बहाने
पेश करते हैं कि वह “प्रणालियों को अलविदा कहना चाहते हैं, जबकि मैं
“विपरीत रास्ता चुनता हूँ”! इसे समझने के लिये मुझे मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूँ और
मुलबर्गर बहरा, और इसीलिये हमारे बीच किसी भी किस्म का समझौता बिल्कुल असम्भव है।
लेकिन बहुत हुआ। अगर
यह बहस और किसी काम का नहीं तो कम से कम इसने सबूत पेश किया कि इन स्वघोषित “व्यवहारिक”
समाजवादियों के व्यवहार में वास्तविक तौर पर है क्या। सारी सामाजिक बुराईयों के अन्त
के ये व्यवहारिक प्रस्ताव, ये विश्वव्यापी सामाजिक राम-वाण की खोज, हमेशा से और हर
जगह पर उन सम्प्रदायों के संस्थापकों के काम रहे हैं जो सर्वहारा आन्दोलन के शैशव में
आविर्भूत होते रहे हैं। प्रुधों उन्हीं में आते हैं। सर्वहारा का विकास जल्द ही इन
शिशु-वस्त्रों को फेंक देता है और श्रमिक वर्ग में ही इस एहसास को जन्म देता है कि
अग्रिम मनगढ़ंत और विश्वव्यापी प्रयोग के उपयुक्त इन “व्यवहारिक समाधानों” से कम व्यवहारिक
कुछ है ही नहीं। सर्वहारा को यह एहसास हो जाता है कि व्यवहारिक समाजवाद है, विभिन्न
पहलुओं से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का सही ज्ञान। एक श्रमिक वर्ग जो इस मामले में वस्तु-स्थिति को
जानता है, कभी सन्देह में नहीं रहेगा कि कौन सी सामाजिक संस्थायें इसके मुख्य
हमलों के लक्ष्य होने चाहिये, और किस तरीके से इन हमलों को निष्पादित किया जाय।
समाप्त
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102- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्रायजे, पृ॰ 8 – स॰र॰सं।
103- डेर वोकस्टाट
में “पूंजीवादी उत्पादन” है। - स॰र॰स॰
104- एफ॰ एंगेल्स, “कृषि
के सवाल पर अन्तरराष्ट्रीय के डैनिश सदस्यों की समझ” (देखें यह खण्ड, पृ॰57-58) – स॰र॰स॰
105- एफ॰ एंगेल्स, इंग्लैंड
में श्रमिक-वर्ग की स्थिति (देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 302-04) - स॰र॰स॰
106- डेर वोकस्टाट
में है “विशद में व्याख्या के लिये” - स॰र॰स॰
107- देखें यह खण्ड,
पृ॰ 385 - स॰र॰स॰
108- वही, पृ॰ 320 -
स॰र॰स॰
109- ए॰ मुलबर्गर, डाय
वोनांग्स्फ्राज, पृ॰ 7 (तुलना करें यह खण्ड, पृ॰ 331) - स॰र॰स॰
मई 1872 – जनवरी 1873 के दौरान लिखा गया
पहली बार डेर वोकस्टाट के अंक 51, 52, 53, 103 एवं 104 - जून
26 एवं 29, जुलाई 3, दिसम्बर 25 एवं 28 1872 तथा अंक 2, 3, 21, 13, 15 एवं 16 - जनवरी
4 एवं 8, फरवरी 8, 12, 19 एवं 22, 1873 में प्रकाशित हुआ और फिर 1872-73 में ही लाइपजिग
से तीन अलग मुद्रणों में प्रकाशित हुआ।
सन 1887 के संस्करण के अनुसार मुद्रित तथा अखबार के पाठ के साथ मिलान
किया गया