माँ बोली
थीं
“दूसरे को कब लायेगा धरती पर तू सब?
ला!
दे जाना! उसे भी बड़ा कर तब
जाउंगी, जहाँ जाना हो।”
माँ की गोद से माँएं
जन्म लेती हैं। शहर की यह गंदी,
कीचड़ भरी
गली
ताकत की घाटी बनती है कवि के लिये –
चक्का, तलवार
व शोक –
गाढ़ा होते हैं अंगूर
प्रबल मातृत्व
से, वसुंधरा की,
कहावतों में बंध जाती हैं ॠतुएं,
खिड़की पर मिट्टी के घड़े में रहता है
जून-दोपहर
का मैंडोलिन।
बाहर पसीना,
कार्बन झराते हैं
अनेकों जनवादी संघर्षों में काम आए
लिथो की गोले,
रात की उमस में
हमारी भाषा का पतन,
गीतों के अर्थ की चोरी ...
एक दूध का पौधा
नीरव, जड़ रोपता है
अराजक, दुष्कर
प्रत्युष में।
अतसी बड़ी होगी।
...........................
कितना बड़ा था मैं, कितनी छोटी थी
पन्द्रह-सोलह साल पहले पृथ्वी।
सुदूर ग्रह की तरह थी;
उसका
गुरुत्वाकर्षण
कदमों का बोझ जैसा था।
गुरुत्वाकर्षण आज पंख है मेरा।
आज से पन्द्रह-सोलह सालों के
बाद
और बहुत छोटा होउंगा मैं
पृथ्वी और बहुत बड़ी होगी।
फिर भी बहुत हैं वे दिन।
शहर और अधिक मूर्ख होंगे रोज,
गांवों के छिले गर्दन अधिक हिंस्र होंगे,
गंज में निकलेंगे स्थानीय साप्ताहिक
सामूहिक बलात्कार के जख्मों
को
भर
कर बार बार।
मानचित्र पर विदीर्ण होंगे हाथ,
झंडे पर साया होगी,
शासकों द्वारा जलाई गई आग
की।
अतसी उकेरेगी चेहरे ‘रात के पहरे पर’,
बर्न्ट एम्बर, पीला और क्रिमसन रंगों में,
दंगे की रात दीवार की तरह
गली के मोड़ पर खड़े उसके साथियों
की।
……………….………………
पुराने ट्रेडल मशीन के साथ
रात जग कर लौटता हूँ –
एनिबेसन्त रोड के मोड़ पर अंधेरा है,
बीच-रास्ते मंदिर के माथे पर आकाश पसारे हुये
पीपल के पत्तों में कान रोप कर सुनता हूँ
नीलापन लिये हवा का ज्वार
उठने का समय हुआ या नहीं।
मैं क्या खुद को क्षय कर रहा हूँ?
या जीत रहा हूँ?
हर दिन?
बार बार प्रुफ पढ़ कर भी
रह गई अशुद्धियों
को
सुधार रहा हूँ, बारिश से भीगे
छापाखाने के आंगन को
देखते हुये?
1990-97
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