Wednesday, September 18, 2024

पानी की मीनार

पानी की मीनार!
भीतर, पारदर्शी टंकार
तरल पृथ्वी की!
नीचे, मशीन के गुंजन में
लुप्त हो चुके टेथिस का
नियंत्रित आलोड़न।

वह स्तंभ मेरा हाथ था।
सीमेंट का बना वह पात्र, हथेली, असहाय
बंजर रेगिस्तान के झुलसते आसमान की ओर उठी थी।
कई नदियों के तट पर,
कई चांद के बरसों की
एक ही ताकत और जंजीर से
उकेरा गया था
पहला निष्क्रमण।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर
पानी का शहरी घर।
घर के भीतर
पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!
 
पानी!
एक दिन तुम्हारी ही शाम के फैलाव में
जनपद खड़ा करने को बुलाने के बाद
वज्रपात से दरकते रात में
तट लांघ कर गरजते हुए आ कर
तोड़ डाले थे चुल्हे,
मिट्टी के पात्र पर बने हमारे पत्तों के गुच्छे और तारे। …
हम डर गये थे।
माँ तो प्रेयसी भी हैं!
फिर भी नवजात हम उस रात को
नग्न, वन्य अभिसार में देख, तुम्हे
                    डर गये थे –
बांध बनाना नहीं सीखा था हमने तब तक,
नहीं सीखा था बनाना बराज, टर्बाइन।
टूटी बस्ती और मृत हड्डियों में,
गाद के कुछेक परतों में इसलिये डूब कर फिर

फैल गये थे … ।
कितनी बार बदला रंग और बनावट मिट्टी का;
नये फल, नई धातु और नये युग की ओर फिर भी
तुम्हारे ही नामों के साथ हम आगे बढ़े –
युफ्रेटिस, सिंधु, नील, दान्युब, यांगत्से, एमाजन …
और आज गंगा के तट पर एक बदराये सुबह में
इस पानी की मीनार के सामने मैं खड़ा हूँ –
पानी!
तरलता, प्रणयिनी वसुंधरा की!
हमारे कॉंक्रीट के हृत्पिंड में तुम बज रहे हो।
 
तुम पहला आईना हो।
तुमने ही चेहरे की छवि दी थी।
मृत्यु स्पर्शनीय बनी
(शायद अरण्य हँस पड़ा था हमारी मूर्खता पर –
कहां गया वह चतुर खरगोश।) –
 
आज
सहजता के साथ बोल सकता हूँ, “पानी!
तुम मेरे ही शंखनाद पर,
समय के एहसास की अंधकार जटाओं से एक शुक्ला तृतीया में
उज्जीवित हो लौटे थे …’
भाषा के जलपात्र में, अपने ही तांडव के मर्म में
रुपहली मछली बन कर रहने के
कब के प्रसंग हैं ये सारे –
मछियारों की बस्ती का बारहों महीना,
तुम्हारे साथ हमारे प्यार और झगड़ों का मांगल्य।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!

मनुष्य का अपना एक गुरुत्वाकर्षण है।
पानी!
तुम्हे वह अपने कंधों के आसमान पर बिठाया।
भिश्तीवाला! भिश्तीवाला!
           पीठ पर लबालब मशक!
उसकी बाँसुरियों को वह फैला दिया शहर की जमीन के नीचे नीचे।
…………………….………………………………
सुबह होती है।
पोर पोर से उफनने लगता है नदियों का लाड़ला दोपहर –
घर लाने में सर फटता है माँ का, छोटी बहन का …।
भिश्तीवाले के फेफड़े में क्यों धूल है रेगिस्तान का?
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में दर्द के पंखों की आवाज – प्राचीन, भारी!

पानी!
कब पहली बार चेतना में उठ आईं मरी हुई मछलियाँ?
कब हम बने टापू?
कब बने इश्तहार?
………….…………………………
……….……….…………………
नीले आसमान के सीने पर पानी के मीनार …
सड़क से थोड़ी दूर, कॉलोनी में
               किसी के, भीगे, लकड़ी के गेट का पता!
हेलीकॉप्टर से नीचे, कैमरे में,
शहर के तहों में पानी के मीनार,
            बदन पर काई, इस बार के बारिश की।
गुलाबी कोरलवाइन फूल
            सीढ़ी को आगोश में ले रक्खे हैं:
बहुत करीब की तस्वीर में मेरी सदी की
                  करुणा की तरह एक षोड़शी की
                             चंचल दो आंखें ...  


1990-96 

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