Wednesday, September 18, 2024

जून-दोपहर का मैंडोलिन

                                     माँ बोली थीं
“दूसरे को कब लायेगा धरती पर तू सब?
ला!
दे जाना! उसे भी बड़ा कर तब
जाउंगी, जहाँ जाना हो।”
 
माँ की गोद से माँएं
जन्म लेती हैं। शहर की यह गंदी,
                            कीचड़ भरी गली
ताकत की घाटी बनती है कवि के लिये –
                       चक्का, तलवार व शोक –
गाढ़ा होते हैं अंगूर
                       प्रबल मातृत्व से, वसुंधरा की,
कहावतों में बंध जाती हैं ॠतुएं,
खिड़की पर मिट्टी के घड़े में रहता है
                      जून-दोपहर का मैंडोलिन।
 
बाहर पसीना,
                    कार्बन झराते हैं
अनेकों जनवादी संघर्षों में काम आए
लिथो की गोले,
रात की उमस में
हमारी भाषा का पतन,
गीतों के अर्थ की चोरी ...
 
एक दूध का पौधा
नीरव, जड़ रोपता है
                  अराजक, दुष्कर प्रत्युष में।
अतसी बड़ी होगी।
...........................
कितना बड़ा था मैं, कितनी छोटी थी
पन्द्रह-सोलह साल पहले पृथ्वी।
सुदूर ग्रह की तरह थी;
                             उसका गुरुत्वाकर्षण
कदमों का बोझ जैसा था।
 
गुरुत्वाकर्षण आज पंख है मेरा।
       आज से पन्द्रह-सोलह सालों के बाद
और बहुत छोटा होउंगा मैं
पृथ्वी और बहुत बड़ी होगी।
फिर भी बहुत हैं वे दिन।
शहर और अधिक मूर्ख होंगे रोज,
गांवों के छिले गर्दन अधिक हिंस्र होंगे,
गंज में निकलेंगे स्थानीय साप्ताहिक
            सामूहिक बलात्कार के जख्मों को
                                 भर कर बार बार।
मानचित्र पर विदीर्ण होंगे हाथ,
          झंडे पर साया होगी,
            शासकों द्वारा जलाई गई आग की।
अतसी उकेरेगी चेहरे ‘रात के पहरे पर’,
बर्न्ट एम्बर, पीला और क्रिमसन रंगों में,
दंगे की रात दीवार की तरह
       गली के मोड़ पर खड़े उसके साथियों की।
……………….………………
पुराने ट्रेडल मशीन के साथ
रात जग कर लौटता हूँ –
           एनिबेसन्त रोड के मोड़ पर अंधेरा है,
बीच-रास्ते मंदिर के माथे पर आकाश पसारे हुये
          पीपल के पत्तों में कान रोप कर सुनता हूँ
नीलापन लिये हवा का ज्वार
                उठने का समय हुआ या नहीं।
 
मैं क्या खुद को क्षय कर रहा हूँ?
या जीत रहा हूँ?
हर दिन?
बार बार प्रुफ पढ़ कर भी
                         रह गई अशुद्धियों को
सुधार रहा हूँ, बारिश से भीगे
                   छापाखाने के आंगन को देखते हुये?
 
 
1990-97             

पानी की मीनार

पानी की मीनार!
भीतर, पारदर्शी टंकार
तरल पृथ्वी की!
नीचे, मशीन के गुंजन में
लुप्त हो चुके टेथिस का
नियंत्रित आलोड़न।

वह स्तंभ मेरा हाथ था।
सीमेंट का बना वह पात्र, हथेली, असहाय
बंजर रेगिस्तान के झुलसते आसमान की ओर उठी थी।
कई नदियों के तट पर,
कई चांद के बरसों की
एक ही ताकत और जंजीर से
उकेरा गया था
पहला निष्क्रमण।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर
पानी का शहरी घर।
घर के भीतर
पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!
 
पानी!
एक दिन तुम्हारी ही शाम के फैलाव में
जनपद खड़ा करने को बुलाने के बाद
वज्रपात से दरकते रात में
तट लांघ कर गरजते हुए आ कर
तोड़ डाले थे चुल्हे,
मिट्टी के पात्र पर बने हमारे पत्तों के गुच्छे और तारे। …
हम डर गये थे।
माँ तो प्रेयसी भी हैं!
फिर भी नवजात हम उस रात को
नग्न, वन्य अभिसार में देख, तुम्हे
                    डर गये थे –
बांध बनाना नहीं सीखा था हमने तब तक,
नहीं सीखा था बनाना बराज, टर्बाइन।
टूटी बस्ती और मृत हड्डियों में,
गाद के कुछेक परतों में इसलिये डूब कर फिर

फैल गये थे … ।
कितनी बार बदला रंग और बनावट मिट्टी का;
नये फल, नई धातु और नये युग की ओर फिर भी
तुम्हारे ही नामों के साथ हम आगे बढ़े –
युफ्रेटिस, सिंधु, नील, दान्युब, यांगत्से, एमाजन …
और आज गंगा के तट पर एक बदराये सुबह में
इस पानी की मीनार के सामने मैं खड़ा हूँ –
पानी!
तरलता, प्रणयिनी वसुंधरा की!
हमारे कॉंक्रीट के हृत्पिंड में तुम बज रहे हो।
 
तुम पहला आईना हो।
तुमने ही चेहरे की छवि दी थी।
मृत्यु स्पर्शनीय बनी
(शायद अरण्य हँस पड़ा था हमारी मूर्खता पर –
कहां गया वह चतुर खरगोश।) –
 
आज
सहजता के साथ बोल सकता हूँ, “पानी!
तुम मेरे ही शंखनाद पर,
समय के एहसास की अंधकार जटाओं से एक शुक्ला तृतीया में
उज्जीवित हो लौटे थे …’
भाषा के जलपात्र में, अपने ही तांडव के मर्म में
रुपहली मछली बन कर रहने के
कब के प्रसंग हैं ये सारे –
मछियारों की बस्ती का बारहों महीना,
तुम्हारे साथ हमारे प्यार और झगड़ों का मांगल्य।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!

मनुष्य का अपना एक गुरुत्वाकर्षण है।
पानी!
तुम्हे वह अपने कंधों के आसमान पर बिठाया।
भिश्तीवाला! भिश्तीवाला!
           पीठ पर लबालब मशक!
उसकी बाँसुरियों को वह फैला दिया शहर की जमीन के नीचे नीचे।
…………………….………………………………
सुबह होती है।
पोर पोर से उफनने लगता है नदियों का लाड़ला दोपहर –
घर लाने में सर फटता है माँ का, छोटी बहन का …।
भिश्तीवाले के फेफड़े में क्यों धूल है रेगिस्तान का?
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में दर्द के पंखों की आवाज – प्राचीन, भारी!

पानी!
कब पहली बार चेतना में उठ आईं मरी हुई मछलियाँ?
कब हम बने टापू?
कब बने इश्तहार?
………….…………………………
……….……….…………………
नीले आसमान के सीने पर पानी के मीनार …
सड़क से थोड़ी दूर, कॉलोनी में
               किसी के, भीगे, लकड़ी के गेट का पता!
हेलीकॉप्टर से नीचे, कैमरे में,
शहर के तहों में पानी के मीनार,
            बदन पर काई, इस बार के बारिश की।
गुलाबी कोरलवाइन फूल
            सीढ़ी को आगोश में ले रक्खे हैं:
बहुत करीब की तस्वीर में मेरी सदी की
                  करुणा की तरह एक षोड़शी की
                             चंचल दो आंखें ...  


1990-96 

Tuesday, September 17, 2024

উন্নয়নী

লোকে এতো স্বপ্ন খায় উন্নয়নী! পরিকল্পনায়
হয়তো হওয়ার ছিলো চওড়া নতুন রাজপথ;
সে আর হয় নি, বাতিল বন্ধ রাস্তায় ঘেঁজে ওঠা
পাড়াগুলো, চাউর হল নব্বই, সত্তর ফিট নামে।
খবরের কাগজে বেরোয় দুটো শিশু মৃতদেহ
পাওয়া গেছে সত্তর ফিটে; না, ওপাড়ার নয়
তবে কোন পাড়ার, কোথায় তাদের মা-বাবা?
 
সুব্রত থাকলে বলত! থাকতো একটু এগিয়ে;
রাস্তা নেই; মামলা চলছে, পাঁচিল টপকে পৌঁছে
শুনতাম তার আইনি তুরুপ, শর্মিষ্ঠার প্রশ্ন
চা খাবে? সে বন্ধু ক্যান্সারে মৃত্যুকেও কুযুক্তির
তুরুপে মারতে অবিরাম সিগারেট ফুঁকে গেল!
 
উন্নয়নী স্বপ্নের ধুলোয় শ্বাসকষ্টে পাড়াগুলো
মরে মরে জায়গা করে দেয় আরো উন্নয়নের।

১২.৯.২৪

 

Wednesday, September 11, 2024

গ্যালিপ্রুফ

গ্যালিপ্রুফের কাগজগুলো ব্লিচ হত না কখনো।
কালিও সস্তায় ঘরে তৈরি হয়ে যেত প্রয়োজনে।
কাঁচা ছাপা একটু না শুকিয়ে নিলে কালো ছোপে
ভরে দিত শীতের চাদর, ওমে ধরা নোনা গন্ধ
ঘর্মাক্ত ভালোবাসার।
                           ভাঙাচোরা সীসের অক্ষরে
দুনিয়ার লড়াকু সমঝদারি, রাত জেগে লেখা!
সে এক অবিস্মরণীয় দেখা নিজেকে মুখোমুখি
পৃথিবী অনেকটাই ছিল সহজ, অন্যরকম।
 
তেমনই মনে হয় চিরকাল সদ্য চোখ ফোটায়!
ভুল শুধরোচ্ছি; সময়কে গালতে দেব না চোখ!
প্রেসঘরে ঘটাং ঘটাং ট্রেডলের শব্দে ভরা ঘুমে,
বহু রাতের দুঃস্বপ্নে পেরিয়ে ছড়ানো ছেঁড়া প্রুফ,
পারবো আরো একবার নিজের সামনে দাঁড়াতে?
একদৃষ্টে ল্যাপটপে অক্ষরের দিকে চেয়ে থাকি।

১১.৯.২৪