Saturday, May 20, 2023

जो रास्ता मुझे लेनिनवाद की ओर ले गया – हो ची मिन्ह

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मैं पैरिस में कभी किसी फोटोग्राफर के यहाँ रिटच का काम करके, कभी कहीं “चीनी पुरावस्तुओं” (फ्रांस में बनी!) के रंगसाज का करके जिन्दगी गुजार रहा था। वियतनाम में फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों द्वारा किये जा रहे अपराधों की निन्दा करते हुये पर्चे बांटता रहता था।

उस वक्त तक मैं अक्तूबर क्रांति के ऐतिहासिक महत्व को पूरी तरह नहीं समझता था लेकिन बस सहज प्रेरणा से समर्थन करता था। मैं लेनिन से प्यार करता था, उनका आदर करता था क्योंकि वह एक महान देशप्रेमी थे जिन्होने अपने देशवासियों को मुक्त किया था; उस वक्त तक मैं उनकी कोई भी किताब नहीं पढ़ा था। 

फ्रांसीसी समाजवादी पार्टी में मेरे योगदान देने का कारण था कि वे “भद्रमहिलायें एवं भद्रमहोदयगण” – जैसा कि मैं अपने कॉमरेडों का उन दिनों संबोधन किया करता था – मेरे प्रति, पीड़ित जनता के संघर्ष के प्रति अपनी हमदर्दी दिखा चुके थे। लेकिन न मैं समझता था कि पार्टी क्या है, ना ही समझता था कि ट्रेड युनियन क्या है। समाजवाद या साम्यवाद क्या है वह भी मैं नहीं समझता था। 

उन दिनों समाजवादी पार्टी की शाखाओं में गर्मागर्म बातचीत इस सवाल पर चल रही थी कि समाजवादी पार्टी को द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय के साथ रहना चाहिये, ढाईवाँ अन्तरराष्ट्रीय स्थापित करना चाहिये या लेनिनवाले तृतीय अन्तरराष्ट्रीय में योगदान देना चाहिये। बैठकों में मैं नियमित उपस्थित रहता था, सप्ताह में दो या तीन दिन, और ध्यान से बातचीत को सुनता था। अव्वल तो मैं पूरी तरह समझ नहीं पाता था। बातचीत में इतनी उत्तेजना क्यों? दूसरे के साथ रहो या ढाईवें के साथ, या तीसरे के साथ, क्रांति तो की ही जा सकती थी! तब बहस की क्या जरूरत? जहाँ तक प्रथम अन्तरराष्ट्रीय का सवाल था, उसका क्या हुआ?

जो मैं सबसे अधिक जानना चाहता था – और ठीक इसी बात पर बहस नहीं होती थी बैठकों में – कि कौन सा अन्तरराष्ट्रीय औपनिवेशिक देशों की जनता के पक्ष में था?

इस सवाल को मैंने – अपने विचार से सबसे महत्वपूर्ण मानते हुये – एक बैठक में रख दिया। कुछ कॉमरेडों ने जबाब दिया: तृतीय, द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय नहीं। और एक कॉमरेड ने मुझे लेनिन का “राष्ट्रीय और औपनिवेशिक सवालों पर थिसिस”, जिसे ला’ह्युमानिते ने प्रकाशित किया था, पढ़ने के लिये दिया।

इस थिसिस में राजनीतिक शब्दावलियाँ थीं जिन्हे समझना कठिन था। लेकिन बार बार पढ़ कर, अन्तत: मैंने इसके मुख्य अंश को समझ लिया। किस तरह इस निबंध ने मुझे भावुक और उत्साहित किया! मेरी दृष्टि की स्पष्टता बढ़ाई और मेरा अन्त:स्थल विश्वास से भर दिया! खुशी से मेरे आँखों में आँसू आ गये। हालांकि मैं अपने कमरे में अकेले बैठा था, मैं यूं चीखा जैसे बड़ी भीड़ को सम्बोधित कर रहा हूँ, “मेरे प्रिय शहीद स्वदेशवासियो! यही हमें चाहिये, यही हमारी मुक्ति का रास्ता है!”

उसके बाद मुझे लेनिन पर, तृतीय अन्तरराष्ट्रीय पर पूरा विश्वास हो गया।

पहले पार्टी शाखा की बैठकों के दौरान, मैं बातचीत सिर्फ सुनता था। एक धुंधला सा भरोसा रहता था कि सभी तर्कसंगत  थे, फर्क नहीं कर पाता था कि कौन सही थे और कौन गलत। लेकिन अब, मैं भी बातचीत में कूद पड़ा और जोश के साथ बातचीत करने लगा। हांलाकि, अपनी सोच को व्यक्त करने लायक फ्रांसीसी शब्द तब भी कम ही थे मेरे पास, जोश कम नहीं होता था लेनिन और तृतीय अन्तरराष्ट्रीय पर हमला करनेवाले आरोपों को चकनाचूर करने में। मेरा एक ही तर्क था: “अगर आप उपनिवेशवाद की भर्त्सना नहीं करते, उपनिवेशों की जनता की तरफ खड़े नहीं होते तो किस तरह की क्रंति कर रहे होते हैं आप?

मैं न सिर्फ पार्टी की मेरी अपनी शाखा की बैठकों में भाग लेता था, बल्कि दूसरी शाखाओं की बैठकों में भी “अपनी स्थिति” रखने के लिये जाया करता था। मुझे अब फिर से जरूर कहना चाहिये कि कॉमरेड मार्सेल काचिन, कॉमरेड वाइलैंट कुतुरियर, कॉमरेड मोन्मुस्सु एवं कई अन्य कॉमरेडों ने मेरे ज्ञान को बढ़ाने में मदद किया। अन्तत: तूर कांग्रेस मे मैंने उन लोगों के साथ तृतीय अन्तरराष्ट्रीय में योगदान देने के पक्ष में मतदान किया। 

तृतीय अन्तरराष्ट्रीय में, पहले साम्यवाद नहीं बल्कि देशप्रेम ने मुझे लेनिन पर भरोसा करने की ओर आगे बढ़ाया। कदम दर कदम, संघर्ष की राह पर, व्यवहारिक सक्रियताओं में भागीदारी के साथ साथ मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अध्ययन करते हुये मैं इस यथार्थ तक पहुँचा कि सिर्फ समाजवाद और साम्यवाद ही पूरी दुनिया में पीड़ित राष्ट्रों एवं श्रमजीवी जनता को गुलामी से मुक्ति दिला सकती है। 

जादुई “ज्ञानी की पुस्तक” पर एक दंतकथा है, हमारे यहाँ भी और चीन में भी। कोई जब विकट कठिनाईयों का सामना करता है, उस पुस्तक को खोलता है और एक राह ढूंढ़ लेता है। लेनिनवाद सिर्फ एक जादुई “ज्ञानी की पुस्तक” ही नहीं, हम वियतनामी क्रांतिकारी और जनता के लिये एक कम्पास [दिशासूचक यंत्र] ही नहीं, अन्तिम विजय तक, समाजवाद और साम्यवाद तक हमारी राह को रौशन करते हुये एक सूरज है दीप्तिमान।  




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