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Thursday, August 6, 2020
रवीन्द्रनाट्यम: भुलाई जा रही एक क्लासिकीय नृत्य-शैली - पूर्णेन्दु मुखोपाध्याय
नान्दनिक सृजन की जिस किसी भी विधा में रवीन्द्रनाथ ने अपने कदम रखे, सोने के फसल उगाये। कविता, गीत, चित्रकला, उपन्यास, कहानी/लघुकथा, नाटक, संस्मरण, पत्रसाहित्य – हर क्षेत्र में उनकी अनन्य कला-प्रतिभा के हस्ताक्षर, काल की भ्रुकुटि की उपेक्षा कर आज भी उसी तरह दीप्त हैं। कवि का जीवन जैसे बहती नदी की तरह था। और उस जीवन के उद्गम से प्रवाहित उनके कालजयी सृष्टिसमूह भी जैसे गतिशीलता के अद्भुत उदाहरण हैं। कहीं भी अपने सृजन को उन्होने दोहराये जाने की एकरसता से म्लान नहीं किया। अपनी सृष्टि से आगे जाकर निरन्तर नये क्षितिज की तलाश उन्हे क्लान्त नहीं किया। विषयवस्तु के वारे में सोच तथा कला की शैली-निर्माण के क्षेत्र में वे शैशवकाल से लेकर जीवन के अन्तिम दिन तक नये नये विस्मयकारी प्रवर्त्तन करते रहे। कहीं उन्होने स्थिरता का क्लेद जमा नहीं होने दिया। फलस्वरूप, रवीन्द्र-कृतियों की सजीव दुनिया असीम विविधताओं का एक विशाल भंडार है। सिर्फ खुद की विकास से कवि सन्तुष्ट नहीं हुए। आन्तरिकता के साथ उन्होने, सृजनशील प्रतिभा का जो बीज सभी मनुष्य में मौजूद है उसे विकसित करना चाहा। अपनी कला-चिन्तन को शिक्षादर्श का सहयोगी बनाने के लिये उन्होने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
रवीन्द्र-चिन्तन में सम्पूर्ण शिक्षा का आदर्श है – विषयों के ज्ञान के साथ संगीत, चित्रकला एवं नृत्यकला का ज्ञान। उनके मुख से ही हमें पहली बार सुनने को मिला, “हमारे देश के विद्यालयों में पाठ्यपुस्तकों की परिधि के अन्दर ज्ञानचर्चा की जो संकीर्ण सीमा निर्धारित है उस के अलावे, सभी तरह के चारुकर्म, शिल्पकला, नृत्य-गीत-वाद्य, नाट्याQभिनय एवं ग्रामीण-हित के लिये जो शिक्षा एवं अभ्यास की आवश्यकता है, उन सभी को हम इस संस्कृति का अंग मानेंगे। मैं जानता हूँ कि चित्त के सम्पूर्ण विकास के लिये इन सभी चीज़ों की ज़रूरत है।” शिक्षा के इस आदर्श के साथ उन्होने आनन्द को जोड़ने पर ज़ोर डाला। ‘कलाविद्या’(1326) शीर्षक एक निबन्ध में उन्होने अपना मनोभाव व्यक्त किया। उन्होने लिखा, “सिर्फ हमारे देश मे ही विद्वत-जन आनन्द से डरते हैं, सौन्दर्य के उपभोग को वे चपलता मानते हैं एवं कलाविद्या को अपविद्या व कार्य के लिये विघ्नकारी मानते हैं।” और आगे लिखा, “वस्तुत: आनन्द की अभिव्यक्ति जीवनीशक्ति की प्रवलता की अभिव्यक्ति है। आनन्द की अभिव्यक्ति के इन मार्गों को बन्द कर देने का अर्थ है राष्ट्र की जीवनीशक्ति को क्षीण कर देना।” यह भी कवि ने स्पष्ट भाषा में कह दिया कि ‘आनन्द’ कार्यनाशक तो है ही नहीं वल्कि कार्य में प्रेरणादायक व उत्साह का संचार करने वाली चीज है। जड़ समाज की निश्चलता को इसी तरह कविगुरु ने तोड़ा।
यहाँ एक बात कहने की जरुरत है। नृत्यकला सीखने की समस्यायें संगीत व चित्रकला से कुछ अलग किस्म की हैं। कम से कम उस युग में तो थी हीं। सम्भ्रान्त घरों के लड़के लड़कियाँ खुले तौर पर नाचेंगे, इस बात की स्वीकृति उस युग में सुलभ नहीं थी। खास कर लड़कियों के लिये निषेध के दीवार और भी सख्त थे। रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती में छात्र-छात्राओं के बीच नृत्य का प्रचलन कर संकीर्णतामुक्त एक सकारात्मक परम्परा की शुरुआत की। भारतीय क्लासिकीय नृत्य के विशेषज्ञों को यथायोग्य मर्यादा के साथ बुलाकर उन्होने विश्वभारती में नृत्य के शिक्षण का पक्का इन्तजाम कर डाला। किसी भी शिक्षा को आत्मसात करने के लिये कवि का निरन्तर सजीव मन हमेशा उन्मुख रहता था। नृत्य-गुरुओं से उन्होने क्लासिकीय नृत्य के रीति-पद्धति का व्याकरण सीख लिया। हम अच्छी तरह जानते हैं कि रवीन्द्रनाथ किसी भी ज्ञान को प्राप्त करते हुए पल्लव-ग्राहिता के स्तर तक रुके नहीं रहते थे। और ज्ञान के आहरण के साथ ओतप्रोत जुड़ा रहता था आनन्द-रूपममृतम```। क्लासिकीय नृत्यशैली की अन्तर्निहित प्राणशक्ति को आत्मसात् करने के बाद भी कवि का निरन्तर ग्रहणशील मन तृप्त नहीं हुआ। उन्होने अपनी दृष्टि फेरी बंगाल के लोकनृत्य की प्राणमय, जीवन्त परम्परा की ओर। हम जानते हैं कि लोकसाहित्य, लोकसंगीत व लोकसंस्कृति के प्रति कवि का आग्रह कितना निविड़ था। अभिजात सारस्वत समाज में इनकी कद्र नहीं थी। कुलीन न होने के कारण उपेक्षा की मटमैली नजर से ये देखे जाते थे। रवीन्द्रनाथ की आँखेँ पक्के जौहरी की थीँ। धूल के आवरण से ढँका रत्नों का जो भंडार इतने दिनों तक अभिजातवर्ग की नजर से ओझल पड़ा था, रवीन्द्रनाथ ने उस भंडार को खोज निकाला एवं उसे यथोचित मर्यादा दिलाने का बीड़ा उठाया। विनय घोष लिख रहे हैं, “उम्र उनकी उस वक्त इक्कीस या बाईस होगी। ‘संगीत संग्रह’ शीर्षक बाउल गीतों का एक संकलन उनके हाथों मे आया, आलोचना के लिये, एवं भारती पत्रिका में उन्होने उक्त संकलन की आलोचना की। विज्ञान के आविष्कार की तरह बाउल गीतों के इस संकलन ने उनके जीवन के सामने नई रहस्यमयी एक दुनिया का द्वार खोल दिया। अलादीन के गुफा की दुनिया से भी अधिक आश्चर्यों से भरी दुनिया। साहित्य के अथाह सागर की यात्रा के प्रारम्भ में ही, प्रतीत होता है कि उन्होने अपनी साधना के नाव का पतवार ढूँढ़ लिया था।” लोकसंस्कृति का एक अपरिहार्य अंग अगर लोकसंगीत है तो दूसरा अपरिहार्य अंग है लोकनृत्य। लोकनृत्य के सवाल पर उन्हे गुरुसदय दत्त से महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ था। दोनो के मन मे एक दूसरे के प्रति श्रद्धा थी। एक दूसरे के गुणों के प्रशंसक थे दोनो। गुरुसदय दत्त को लिखा गया, रवीन्द्रनाथ की एक चिट्ठी में कवि लिखते हैं, “विदेश से लौट कर आपका एक और अध्यवसाय उझे देखने को मिला। आपके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ गई। देश के लिये स्वास्थ्य एवं अन्न की व्यवस्था अत्यन्त जरूरी है इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन आनन्द की अभिव्यक्ति उससे कम आवश्यक नहीं है।” कवि ने अपने मनोभाव को आगे यह कहकर और स्पष्ट किया कि, “देश का प्राण जहाँ बसता है, गाँव के उस मर्मस्थल के प्रति आपका दर्द मैंने देखा है।” कवि ने दुख प्रकट किया, “ग्रामवासियों ने अपने नृत्यगीतों में, अपनी काव्यकलाओं में असंख्य तरीकों से अपने प्राणों के आनन्द को अभिव्यक्त किया है।…कुछ ही दिनों में उनका पूर्णत: लोप होगा ऐसी आशंका है। इसका प्रधान कारण है हमारे शिक्षित सम्प्रदाय की मू्ढ़ता। हमलोग किताबी कीड़े हैं, देश की गहन प्राण प्रकृति के साथ हमारा जुड़ाव नहीं है। हम अंग्रेजी स्कूलों के ‘स्कूलब्वाय’ है। किताबों के उदाहरणों का अनुसरण करते हुए विदेशी शिल्पकला को लेकर पन्डिताई करने में हमे उत्साह मिलता है। लेकिन इतना रस-बोध नहीं है घरों के पास आम लोगों में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के जो उपकरण हैं उनका यथोचित मूल्यांकन कर पायें। उनमें एक है नृत्य। देवी सरस्वती के इस महान दान की, हमारे भद्र समाज ने अवज्ञा की एवं इस कला को पेशेवरों के घरों के अन्दर ठेल दिया। जनसाधारण के बीच छुपते छुपाते कुछ कुछ बची है – आप नि:संकोच उन्हे बदनामी से मुक्त कर सर्वजन के बीच आसन दिलाने का प्रयास करेंगे।…मैं आपके प्रयास की व्यापकता एवं सार्थकता की कामना करता हूँ।” लोकसंगीत व नृत्य के अन्दर कविगुरु ने मिट्टी से जुड़ी जनता के जीवंत प्राण के आनन्द का आविष्कार किया था। इसीलिये उस आनन्द का यथायोग्य मूल्य वह देना चाहत्ते थे। कवि के अनुसार, “सभी किस्म के आनन्द की अभिव्यक्ति आदमी की प्राणशक्ति को जागरुक बनाये रखती है। आदमी की मृत्यु सिर्फ अन्न के अभाव में नहीं होती है – आनन्द के अभाव में उसका पौरुष सूख कर मर जाता है।” सन 1929 में गुरुसदय दत्त मैमनसिंह जिले के जिलाधीश नियुक्त हुए। बाद में बीरभूम में आकर 1931 में उन्होने ‘पल्ली सम्पद रक्षा समिति’(ग्रामीण सम्पदा रक्षा समिति) की स्थापना की एवं सन 1932 में इसी समिति के निर्देशन में लोकनृत्य शिविर की स्थापना की। इसी शिविर में गुरुसदय ने व्रतचारी आन्दोलन की परिकल्पना बनाई। सन 1934 में व्रतचारी समिति की स्थापना की गई। बंगाल का नृत्य, बंगाल का साहित्य, बंगाल की लोकसंगीत, लोकगाथायें, पद्य (मूल बंगला शब्द ‘छड़ा’), बंगाल की लोककला, बंगाल की आलपना आदि जनकलायें राष्ट्रीय जीवन में प्रभाव बढ़ा सकें, इस उद्देश्य से गुरुसदय दत्त ने पंचव्रत साधनपद्धति का प्रवर्तन किया। उधर विश्वकवि ‘पूरे विश्व का भ्रमण कर अन्त में’ अपने देश में लौटे। जैसे यह उनके लिये सागर से घर लौटने की कहानी हो। बड़े बड़े क्लासिकीय नृत्यगुरुओं की मदद से भारतीय शास्त्रीय नृत्यशैलियों के साथ अच्छी तरह परिचित होने के बाद, जाभा-सुमात्रा-बोर्णिओ घूमकर वहाँ की विचित्र नृत्यशैलियों के वारे में सम्यक ज्ञान अर्जित करने के बाद कविगुरु ने लोकनृत्य के समृद्ध भंडार में प्रवेश किया। और प्रवेश के बाद उन्हे जैसे अपने नृत्य-साधना का सच्चा आधार मिल गया। किसी भी चीज का अन्धा अनुसरण cव अनुकरण रवीन्द्रनाथ के स्वभाव के विरुद्ध था। इसीलिये देखने को मिलता है कि शास्त्रीय राग-रागिनियों के अनुशासन को मानकर भी रवीन्द्रसंगीत उन रागप्रकरणों के अचल जंजीरों में बन्द नहीं रहा है, वल्कि भिन्न, उन्नत नान्दनिक जगत् के आकाश में मुक्त विहंग की तरह खुशी से पंख फैलाकर उड़ गया है। उस संगीत का स्वाद ही अलग है। विरासत को अस्वीकार करते हुए नहीं, विरासत को यथोचित सम्मान देते हुये – उसे पार करते हुए – नित नये सृजन के मार्ग पर आगे बढ़ते रहने में ही महान कलाकार की कला-साधना की सार्थकता बसती है।
जिस तरह संगीत के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ की मौलिकता के स्मरणीय हस्ताक्षर मौजूद हैं उसी तरह नृत्य के क्षेत्र में भी उनका कोई मौलिक योगदान है या नहीं, यह प्रश्न हमारे मन में उठना उचित था। लेकिन प्रतीत होता है कि नहीं उठा है। रवीन्द्र-रचित नृत्यनाट्यों का जब मंचन होता है तब दिखता है कि मणिपुरी, ओड़िसी, भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम आदि प्रचलित क्लासिकीय शैलियों का प्रयोग किया जा रहा है। रवीन्द्रनाथ को अलग से पहचाना जा सके वैसी कोई रीति का प्रयोग होते हुए नहीं दिखता है। जब कि उन नृत्यनाट्यों में, विषयवस्तु या चिन्तन के स्तर पर रावीन्द्रिक मुल्यों का सार, जिसकी बुनियाद है मनुष्य का धर्म या ‘रिलिजियन आफ मैन’, यथेष्ट मात्रा में मौजूद है।
‘सबार उपोरे मानुष सत्य, ताहार उपोरे नाई’ यह वाणी मध्ययुग के कवि चन्डिदास की थी। पर वास्तव में यह आधुनिक युग की मर्मवाणी है। जात-पात और स्वार्थी संकीर्ण धर्मान्धता के मैल से मुक्त ‘मोनेर मानुष’ की बात है यह। रवीन्द्रनाथ की मर्मवाणी भी यही है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य-परम्परा की गरिमा को जरा सा भी कम नहीं आँकने के बावजूद इस सच्चाई को मानना पड़ेगा कि यह परम्परा देव-निर्भर है एवं रामायण, महाभारत व कृष्णकथा को केन्द्र में रख कर आवर्तित होता रहा है। इन मिथकों को ध्रुवसत्य मान कर बिना किसी प्रश्न के मान लिया गया है। इस नृत्यपरम्परा के अनुसार, सारे नृत्य देव-देवी, शिव-पार्वती, विष्णु, राधाकृष्ण या जगन्नाथदेव को उत्सर्गित हैं। इन नृत्यों की रचना प्राचीन भारतीय परम्परा को, उसके मूल्यसंसार को अक्षुण्ण रख कर की गई है। इनकी दार्शनिक प्रतिवद्धता उस युग के उपयोगी है। लेकिन रवीन्द्रनाथ के नृत्यनाट्य पूरी तरह मानव-मन व मानवीय मूल्यसंसार पर खड़े हैं। यह मूल्यसंसार देव-देवियों पर निर्भरशील मूल्यसंसार के विपरीत हैं।
श्यामा (1939) नृत्यनाट्य में व्यक्ति-स्वार्थपरक प्रेम के साथ मानवीय नीतियों का द्वन्द दिखाया गया है। बन्दी बज्रसेन को निश्चित मृत्यु से बचाने के लिये श्यामा उत्तीय का इस्तेमाल करती है। अपने जीवन को जोखिम में डालकर प्रेमी उत्तीय ने श्यामा के प्रति अपने प्रेम को सार्थक किया। उसका प्रेम स्वार्थपरक नहीं, त्यागधर्मी है। जबकि श्यामा अपने प्रेम के पात्र को बचाने के लिये बिना किसी दुविधा के उत्तीय को बलि चढ़ा दी। बज्रसेन ने जब जाना कि निर्दोष उत्तीय के जीवन के बदले श्यामा उसके प्राण की रक्षा की है तब उसकी मानवीय नैतिकता विद्रोह कर उठी। बज्रसेन श्यामा के प्रेम निवेदन को स्वीकार नहीं कर पाया। श्यामा-उत्तीय-बज्रसेन के प्रेमप्रसंगों के अन्तर्विरोधों के बीच रावीन्द्रिक नैतिकता का जो महान आदर्श अभिव्यक्त हुआ है, वह नि:सन्देह आधुनिक युग के मानवीय मूल्यसंसार पर प्रतिष्ठित है।
चित्रांगदा (1926) नृत्यनाट्य में अर्जुन-चित्रांगदा का प्रेमप्रसंग मूल अन्तर्विरोध के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। कहानी का सार महाभारत से लिये जाने के बावजूद यहाँ पुराण का पुनर्निर्माण किया गया हैं। नये युग के मूल्यसंसार के आलोक से पुरी कहानी आलोकित है। नाटक का परिवेश राजमहल से हट कर प्रकृति में प्रसारित है। अर्जुन को देख कर यौवनवती चित्रांगदा की प्रेमविह्वलता, रूपहीना चित्रांगदा का रूपवती होना, चित्रांगदा का रूप देख कर मुग्ध अर्जुन का आत्मनिवेदन, छद्मरूप दिखा कर अर्जुन का चित्त-हरण करने के कारण चित्रांगदा में नारी-अस्मिता का जागरण एवं आत्मग्लानि तथा परिणाम में अर्जुन को अपना आत्मपरिचय देना। रूप के मोहजाल से प्रेम को मुक्त किया गया है। वास्तविक प्रेम का अभिषेक अन्तरात्मा के वैभव से होता है। वाह्य रूपमुग्धता में उसे ढूँढ़ना गलत है। मानवीय प्रेम को इस नृत्यनाट्य में उन्नत नैतिकता की कसौटी पर जाँचा परखा गया है। नाट्य-तरंग यहाँ सरलरैखिक नहीं है, नाटकीय अन्तर्विरोधों के घात-प्रतिघात से गुजरकर परिणति की ओर पहुँचता है। नाटक के मर्म को व्यक्त करने में नृत्य-माध्यम की यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका है। चन्डालिका (1938) नृत्यनाट्य में जात-विभाजित समाज के द्वारा मानवीय मूल्यों के अस्वीकार किये जाने को दिखाया गया है; नाटक की परिणति में उन मूल्यों की महिमान्वित प्रतिष्ठा होती है। समाज के लिये अछूत चन्डालिका के हाथों बुद्धशिष्य आनन्द जल पान करते हैं – यही घटना नाटक में गतिवेग का संचार करता है। घटना के चरणों के माध्यम से नाट्य-उत्कंठा विकसित की गई है। नृत्य-शैली के माध्यम से उन चरणों को शिल्पसम्मत तरीके से रस-संतृप्त कर मर्मग्राह्य बनाया गया है। यहाँ हिन्दू देवदेवियों के महिमाकीर्त्तन का लेशमात्र भी नहीं है। बौद्धधर्म की, रूढ़ियों से मुक्त उदार उन्नत मानवीयता कवि के अन्त:करण को छू गई थी। उसी की अभिव्यक्ति इस नृत्यनाट्य में भी हुई है। प्रचलित शास्त्रीय नृत्य-शैली के आधार पर इस नई सोच को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
नटीर पूजा (1927) नाटक में सर्वप्रथम नृत्य-रूप का प्रयोग किया गया है। लेकिन सिर्फ नटी श्रीमती की भूमिका में ही।
नृत्यनाटिकाओं का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि ये सिर्फ ‘कला के लिये कला’ की नीति का अनुसरण करते हुए लिखे नहीं गये हैं। सिर्फ फार्म पर जोर नहीं डाला गया है, कान्टेन्ट को भी महत्व दिया गया है। सिर्फ भंगिमा को सबकुछ मान कर आत्मसमर्पण करने के बजाय परिवेश, समाज व जिस देश के हम हैं उसके प्राणरस को, आसपास की जहरीली गन्दगी से मुक्त कर, सुन्दर सात्विक मानवीय विशिष्टताओं से आलोकित करने का प्रयास परिलक्षित होता है। अमृत को ढूँढ़ना होगा इन मानवीय सम्वेदनाओं ही – इस शाश्वत उन्नत विचार की अभिव्यक्ति के लिये शिल्प का अपना एक आधार होना चाहिये। प्राचीन युग के मूल्यों पर आधारित शिल्प-शैली के माध्यम से उस विचार का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करना संभव नहीं। प्राचीन अपरिवर्तनीय क्लासिकीय रीति के बाहर आधुनिक युग के मूल्यों के अनुरूप नई क्लासिकीय रीति का प्रवर्तन आवश्यक है। क्या रवीन्द्रनाथ ने प्रचलित शास्त्रीय रीति के दायरे के बाहर जाना चाहा था? गीतों के भीतर से विश्व को देखने की बात उन्होने कही है, नृत्य के भीतर से उस विश्व को देखने या महसूस करने की इच्छा क्या उनके मन में नहीं जगी थी?
हमारे मन के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये आगे आये हैं नृत्यगुरु वाल्मिकी बनर्जी। अस्सी के कोठे में उम्र, इस प्राज्ञ नृत्यविशारद ने अपना सारा जीवन नृत्य की साधना को निवेदित किया है। इन्होने प्रख्यात नृत्यगुरु जयदेव चट्टोपाध्याय, नृपति मुखोपाध्याय, कालाचाँद, प्रभात मिश्र, पन्डित सोहनलाल एवं बाद में मद्रास में गुरु गोपिनाथ के से नृत्यकला की शिक्षा ली है। मणिपुरी, ओड़िसी, कथक, कथाकलि, भरतनाट्यम, कुच्चिपुडि, महरि आदि नृत्यशैलियों में इन्होने कुशलता हासिल की है। इनके हाथों बनाया गया ‘दिल्ली बैले ग्रुप’ को काफी ख्याति मिली है। गुरु गोपिनाथ से उन्होने जाना कि रवीन्द्रनाथ ने नृत्यशैली का अपना एक खास घराना विकसित किया है, जिसकी प्रकृति शास्त्रीय या क्लासिकीय है। गुरु वाल्मिकी ने विषय को लेकर गहराई से सोचना शुरु किया। देहरादून जाकर इन्होने गुरुदेव के सुपुत्र रथीन्द्रनाथ से भेँट की एवं इस विषय को लेकर उनके साथ विस्तृत विचारविमर्श किया। rरथीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हे कविगुरु द्वारा प्रवर्तित पूरी तरह मौलिक एक नृत्यशैली के अस्तित्व की सूचना दी। रथीन्द्रनाथ ने यह भी कहा कि कविगुरु ने अपने घनिष्ठ कुछ लोगों को यह मौलिक शैली सिखाई थी। गुरु वाल्मिकी अपने नृत्य-अनुभवों के सहारे रवीन्द्र-शैली का विश्लेषण कर पाये कि इस शैली में क्लासिकीय चरित्र पुर्णत: विद्यमान है एवं यह नवप्रवर्तित शैली अन्यान्य क्लासिकीय शैलियों के समान मर्यादा का दावा कर सकती है। एक साक्षातकार में गुरु वाल्मिकी ने हमें बताया है कि श्रीमती ठाकुर, आश्रमकन्या अमिता सेन, सुकृति चक्रवर्ती, रमा चक्रवर्त्ती, नन्दिता कृपालनी प्रमुख कविस्नेह-धन्य नृत्यांगनाओं ने अपनी स्मृति-कथाओं में रवीन्द्र प्रवर्तित नृत्य-शैली की चर्चा की है। इन नृत्यांगनाओं ने लिखा है कि किस तरह खुद रवीन्द्रनाथ ठाकुर अथक श्रम व धीरज के साथ महीनों तक यह शैली उन्हे सीखाते रहे हैं। बीच बीच में वे अपने सीखाये गये पद-संचालन व हस्तमुद्राओं की भंगिमा में आवश्यक संशोधन या परिवर्त्तन किया करते थे। फिर जब प्रशिक्षणशिविर समाप्त होता था एवं मंच पर नृत्य प्रस्तुत किया जाता था तब कवि स्वयं मंच की एक ओर आराम-कुर्सी में बैठे रहते थे, जैसे प्रस्तुति की सफलता को स्वीकारने का मुहर लगा रहें हों।
रवीन्द्रनाथ प्रवर्त्तित नृत्यशैली जिसे ‘रवीन्द्रनाट्यम’ का नाम दिया गया है, उसका एक नमूना बिहार के छपरानिवासी बांग्ला नाट्यकार जितेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने पटना में देखा था। पटना के बैरिस्टर एन के बनर्जी के सब्जीबागस्थित मकान में रवीन्द्रनाथ की छोटी बेटी मीरा देवी की पुत्री नन्दिता (कृपालनी) आई थीं। एन के बनर्जी की पत्नी चिरप्रभा देवी थी महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की बेटी शरतकुमारी देवी की कन्या। जितेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय अपनी आत्मजीवनी ‘जीवनसंगीत’ में लिखते हैं, “मीरा देवी की कन्या बुड़ि (नन्दिता कृपालनी) को भी मैं पटना में देखा था। बनर्जीसाहब के पुराने मकान में ही। आज भी याद है पक्काबाड़ी के छत पर उसका वह नृत्य। बिल्कुल नये किस्म का नृत्य। रवीन्द्रनाथ जिसके प्रवर्त्तक हैं। हाथ पैर हिला हिलाकर, गीत गाते गाते, ताल और छन्द पर वह नृत्य।… इतना अच्छा लगता था कि क्या बतायें। मेरे अन्दर का कलाकार जैसे प्रफुल्लित होकर नाच उठता था। सुना था कि रवीन्द्रनाथ ने खुद नाच नाच कर नतनी को यह नृत्य सिखाया था। नतनी वह नृत्य हमें दिखा रही है।” (अधोरेख वर्त्तमान लेखक का है)
सन 1948 में जोड़ासाँको के ठाकुरबाड़ी (कविगुरु का पुश्तैनी घर) में श्रीमती ठाकुर के उद्यम से नृत्यशिक्षण संस्था ‘बैतालिक’ की स्थापना की गई। उद्देश्य था रवीन्द्रनाथ के सृजनसंसार की रक्षा करना एवं आम जनता के बीच उनका प्रचार करना। श्रीमती ठाकुर के निधन के बाद उस संस्था के प्रमुखतम संस्थापक एवं वर्त्तमान अध्यक्ष प्रशान्त मित्र ने लिखा है कि रवीन्द्रनाथ ने उनके सृजन को रक्षा करने का जिम्मा श्रीमती ठाकुर को दिया था। श्रीमती ठाकुर से प्रशान्त मित्र ने जाना कि रवीन्द्रनृत्य के सृजन में सन्थाली व बंगाली लोकनृत्य की प्रेरणा सक्रिय तौर पर मौजूद थी। श्रीमती ठाकुर ने रवीन्द्रनाथ से अर्जित शिक्षा के आधार पर लिखा, “जिस कलाकार के अन्दर सृजन की प्रेरणा क्रियाशील है, उसकी नई सोच को अगर पारम्परिक कलारीति में पूर्ण-विकास का अवसर नहीं मिल पाता है तो वह कलाकार सृजन की बेचैनी से ही नई मुद्रा नई भंगिमा गढ़ लेता है। क्लासिकल रीति में शिक्षित कलाकार को नियम के बन्धन से बाहर निकलने की आज़ादी नहीं मिलती है – फलस्वरूप कल्पना की निर्वाध अभिव्यक्ति वार वार वाधा प्राप्त होती है।” उन्होने यह भी कहा, “ऐसा नहीं कि सृजन करते करते सृजनकर्त्ता सिर्फ प्राचीन सुत्रों को खारिज करते हैं, अपनी गढ़ी हुई पुराने नृत्य-रूपों को भी खारिज कर देते हैं बीच बीच में – सिर्फ ध्यान रखते हैं कि अपने सृजन की धारावाहिकता में विसंगति न आ जाय।” नई रीति के प्रवर्त्तन की आवश्यकता का समर्थन करते हुए श्रीमती और स्पष्ट भाषा में लिखती हैं, “छन्दमय देहभंगिमा नृत्यशिल्पी की भाषा है; अपने सृजनशील व्यक्तित्व की स्वच्छन्द व सतेज अभिव्यक्ति के लिये नृत्यशिल्पी को यह भाषा आत्मसात् करनी होगी, और उसी के साथ साथ नये सृजन के लिये अनुसंधान करनी होगी। नृत्य-कौशल की त्रुटिहीन गति में कलाकार नई रीति का प्रवर्त्तन नहीं कर पाता है। पारम्परिक रीति के बन्धन का अतिक्रमण करते हुए कलाकार अपनी प्रवर्त्तित पद्धति में अपने व्यक्तित्व को नये नये सृजनकर्मों में विकसित होने का अवसर देता है।” प्रशान्त मित्र ने कहा है कि रवीन्द्रनाथ की नृत्यशैली को हुबहु बचा कर नहीं रख पाने के कारण श्रीमती बाद के दिनों अफसोस की थीं। लेकिन जो काम वह नहीं कर पाईं उस काम को करने के लिये गुरु वाल्मिकी बनर्जी आगे आये हैं। श्रीमती ठाकुर के जन्मशतवर्ष(2003) के अवसर पर ‘रवीन्द्र- नाट्यम’ पर एक सप्ताहव्यापी शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया ‘बैतालिक’ की ओर से। गुरु वाल्मिकी के तत्वा- वधान में शिविर का आयोजन हुआ। वाल्मिकी बनर्जी की राय है कि रवीन्द्रनाट्यम को लगभग विस्मरण के अन्तराल से उद्धार किया जाना चाहिये, उसे अपनी महिमा में पुनर्स्थापित करने का व्रत लेकर सब को आगे आना चाहिये। यह केवल एक या दो आदमी का नहीं सब का कर्त्तव्य है। उनकी राय है, “रवीन्द्रनाट्यम की अन्तरात्मा का निविड़ जुड़ाव है प्रकृति के साथ। जुड़ाव है पंचभूत यानि क्षिति, अप, तेज, मरुत, व्योम के साथ। दूसरी ओर अन्यान्य शास्त्रीय नृत्य पुराण व देवताओं पर निर्भर है।” इसीलिये प्रकृतिवन्दना के माध्यम से रवीन्द्रनाट्यम की प्रस्तुति होती है।
रवीन्द्रनाट्यम पर विचार करते हुए रवीन्द्र-नृत्य विशेषज्ञ प्राध्यापिका रात्रि राय, भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में व्याख्यायित चतुर्वर्ग अभिनय रीति का जिक्र करते हुए कहती हैं, “आंगिक, वाचिक, आहार्य व सात्विक अभिनय, पूर्ण अंग संचालन – ये सारी चीजें जिस तरह सभी शास्त्रीय नृत्यों में है उसी तरह रवीन्द्रनृत्य में भी है: अवश्य ही अपनी विशिष्टता बनाये रखते हुए।” गुरु वाल्मिकी बनर्जी ने भी अपने ‘रवीन्द्रनाट्यम’ ग्रंथ में एक ही राय व्यक्त किया है। शास्त्रीय रसशास्त्र की नजर से रवीन्द्रनाट्यम पर विचार करते हुए प्राध्यापिका रात्रि राय जिस नतीजे पर पहुँची हैं यहां उसका भी जिक्र करना उचित होगा। वह कहती हैं, “भारत में साहित्य व नाटक पर विचार करने के कई सारे सिद्धांत थे जिनमें रससिद्धांत एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसकी शुरुआत भरत मुनि से हुई है; भरत मुनि ने इस अवधारणा को अथर्ववेद से प्राप्त किया था। भरत मुनि ने आठ किस्म के रसों की बात की थी, नौवां रस (शान्तरस) को बाद में उन आठों के साथ जोड़ा गया है। रसों के नाम हैं, शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत व शान्त।… रवीन्द्रनाथ की कविताओं, गीतों (एवं अन्य साहित्यकीर्तियों में भी) नवरस की अभिव्यक्ति हुई है।… नृत्यनाट्य का अर्थ ही है मानवचरित्र का विश्लेषण। एक तो रवीन्द्रनृत्य भावप्रधान हैं, दूजा उनमें कई पात्र हैं। इसलिये नवरस का प्राधान्य है उनमें।”
शास्त्रीय पद-संचार व अंगसंचालन की भूमिका पर विचारों के सिलसिले में रात्रि राय का अभिमत उल्लेखनीय है। वह कहती हैं, “रवीन्द्रनृत्य में पद-संचालन के साथ पूरे शरीर का जो लालित्यपूर्ण संचालन परिलक्षित होता है वह किसी भी शास्त्रीय नृत्य में नहीं दिखता है। इनकी प्रधान विशिष्टता है कि ये भंगिमायें अत्यन्त स्वाभाविक एवं सहज हैं।” व्याकरणों की सख्त जंजीरों में बंधी भारतीय क्लासिकीय नृत्यशैलियों में कलाकार के भीतर के आनन्दरस के बोध की स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति कुन्ठित हो जाती है। रवीन्द्रनाट्यम में उस अभिव्यक्ति निर्वाध मुक्ति दर्शक के चित्त को भी उसी तरह प्रभावित करता है। इसीलिये, विभिन्न क्लासिकल नृत्य के कलाकारों के तरह तरह के प्रकरणों व विद्वता देखकर हम अगर चमत्कृत होते हैं तो रवीन्द्रनाट्यम के कलाकारों का प्रदर्शन देखकर हम आनन्दरस से आप्लावित होते हैं। लोकसंगीत व नृत्य की तरह यह नृत्यकला आसान व सरल है तथा अनायास समझ में आ जाती है।
हमारे इस वक्तव्य के साथ साथ गुरु वाल्मिकी बनर्जी की राय को भी देखा जा सकता है। रवीन्द्रनाट्यम की व्याकरणात्मक रीति-पद्धति पर विचार करते हुए वह कहते हैं, “यह रवीन्द्र-तकनीक इस किस्म की है कि ज्ञानी, गुणी, बुद्धिजीवी को जिस प्रकार समझ में आयेगी आम आदमी को भी उसी तरह सरलता के साथ समझ में आयेगी। नृत्य का वक्तव्य व संदेश सभी को सही ढंग से समझ में आये एवं शिक्षार्थियों को शिक्षा का निविड़ आनन्द महसूस हो सके उसी हिसाब से, सरलता के साथ अपनी विशिष्टता बनाये रखते हुए इस नृत्यशैली की शिक्षा दी जाती है एवं इसकी प्रस्तुति भी होती है। चैतन्य महाप्रभु सभी शास्त्र के विद्वान होते हुए भी कभी शास्त्रीय प्रवचन देकर किसी को उलझन में नहीं डाले या लज्जित नहीं किये।… रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी संस्कृति के माध्यम से मानवसमाज को ज्ञान व आनन्द प्रदान कर गये हैं। रवीन्द्रनाट्यम को भी उन्होने यांत्रिकता या नीरस कठोरता के बन्धन में बन्दी बनाकर नहीं रखा।”
यह सर्वविदित है कि रवीन्द्रनाथ मन की प्रकृति के साथ विश्वप्रकृति का जुड़ाव अक्षुण्ण रखना चाहते थे। ‘स्वर्ग से विदा’ लेकर मर्त्त्यलोक की मधुमय धूल को वरण करना चाहते थे। हम सब जानते हैं कि शान्तिनिकेतन की शिक्षणप्रणाली के माध्यम से उस जुड़ाव को अटूट रखने के प्रयास में उनके जीवन का एक बड़ा अध्याय व्ययित हुआ है। कृत्रिमता के मोहजाल में आदमी जितना बन्दी बनेगा, उतना ही वह प्रकृति के आनन्दलोक से निर्वासित होगा। और उतनी ही उसकी सुकुमार मानवीय वृत्ति व चिन्तन की जड़ें सूख जायेंगी। बोध बुद्धि के अभाव में संवेदनहीन यांत्रिक मनुSष्य मनुष्य नहीं रहेगा, हो उठेगा विश्वशांति की हत्या करने वाला, सभ्यता का दुशमन। आज इस वैश्वीकरण के दौर में, जब सबकुछ के उपर मुनाफा ही सत्य हो गया है, जब ‘दूसरे का चेहरा मलिन कर देने’ की जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा जारी है, जब ‘चैतन्य में महामारी’ लगी है, तब इस घना होते ‘अद्भुत अन्धकार’ से लड़ कर जीवित रहने के लिये शुभबुद्धि का जागरण आवश्यक है। उसका रसद संग्रहित करने के लिये रवीन्द्रनाथ में ही हमारा परम आश्रय हैं। रवीन्द्रसृजन-सागर की किसी भी सम्पदा को विस्मरण के अतल में डुबने से रोकना होगा। सागर छान कर मोती निकालना ही होगा। कविगुरु के जन्म के सार्धशतवर्ष की शुरुआत में यही हो हमारा पवित्र संकल्प।
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