Monday, December 2, 2019

आमुख, आवास का प्रश्न: द्वितीय संस्करण - फ्रेडरिक एंगेल्स


निम्नलिखित रचना उन तीन आलेखों का पुनर्मुद्रण है जो मैंने सन 1872 में लाइपजिग के वोक्स्स्टाट के लिये लिखा था। ठीक उसी समय फ्रांसिसी अरबों की राशि जर्मनी में झर रही थी1; सार्वजनिक ॠणों की अदायगी कर दी गई, कोटले और सेनावास बनाये गये, हथियार एवं युद्ध सामग्रियों का नवीकरण किया गया; उपलब्ध पूंजी जो चलनशील मुद्रा के परिमाण से कम नहीं थी, अचानक बहुत ज्यादा बढ़ गई, और यह सब कुछ तब हुआ जब जर्मनी विश्व के मंच पर न सिर्फ “एकीकृत साम्राज्य” के रूप में बल्कि एक विराट औद्योगिक देश के रूप में प्रवेश कर रहा था। इस फ्रांसिसी अरबों की राशि ने नवोदित बड़े उद्योगों को एक ताकतवर चढ़ाव दिया। उन्ही बड़े उद्योगों के कारण युद्ध के बाद, भ्रामक कल्पनाओं से भरपूर, समृद्धि का एक छोटा सा वक्त आया और तुरन्त उसके बाद, सन 1873-74 में भयानक मंदी आई जिसके दौरान विश्व-बाजार में जर्मनी ने, अपने बूते खड़ा रहने वाले औद्योगिक देश के तौर पर खुद को साबित किया।
वह कालखण्ड जिसमें एक पुराना सभ्य देश, यंत्र-उत्पादन एवं छोटे उत्पादन से बड़े उद्योग में संक्रमण करता है, वह भी ऐसा संक्रमण जो इतनी अनुकूल परिस्थितियों के द्वारा त्वरित कर दिया गया हो, साथ ही साथ एवं मुख्य रूप से “आवास की कमी” का भी कालखण्ड होता है। एक तरफ, ग्रामीण श्रमिक अचानक बहुतायत में उन बड़े शहरों में खींचे चले आते हैं जो औद्योगिक केन्द्र के रूप में विकसित हो रहे होते हैं, दूसरी तरफ, इन पुराने शहरों के निर्माण में प्रयोग की गई अवधारणायें अब बड़े उद्योगों एवं अनुरूप यातायात के लिये आवश्यक स्थितियों से मेल नहीं खातीं। सड़कें चौड़ी की जाती हैं, नये रास्ते काट कर निकाले जाते हैं और रेलमार्ग उन सड़कों के बीच होकर गुजरता है। ठीक उसी समय जब श्रमिक शहरों में हुजूम में आते रहते हैं, श्रमिकों के आवास थोक भाव से गिराये जाते हैं। फलस्वरूप अचानक श्रमिकों, छोटे व्यापारियों एवं छोटे उत्पादक व्यवसायों - जो श्रमिकों पर उनके हाथ के कामों के लिये निर्भर करते हैं – के लिये आवास की कमी हो जाती है। उन शहरों में जो शुरू से औद्योगिक केन्द्र के रूप में विकसित हुये हैं, आवास की यह कमी लगभग अंजाना है, मसलन, मैंचेस्टर, लीड्स, ब्रैडफोर्ड, बार्मेन-एल्बरफेल्ड। दूसरी ओर, लन्दन्, पैरिस, बर्लिन, वियेना में उस समय इस कमी ने तीव्र रूप धारण कर लिया और अधिकांश समय में, पुराने मर्ज की तरह मौजूद रही है।
इसलिये, आवास की ठीक यही तीव्र कमी, जर्मनी में हो रही औद्योगिक क्रांति का यह लक्षण, “आवास के प्रश्न” पर निबंधो के माध्यम से समकालीन संवाद-माध्यमों में छा गया, और विभिन्न किस्म के सामाजिक नीमहकीमी को पैदा किया। वैसे आलेखों की एक शृंखला को वोकस्टाट में भी जगह मिल गया। गुमनाम लेखक, जिन्होने बाद में खुद का परिचय दिया ए॰ मुलबर्गर, वर्टेमबर्ग के एम॰डी, ने इसे एक अवसर समझा कि आलेखों के द्वारा जर्मन श्रमिकों को, आवास के प्रश्न के माध्यम से, प्रुधों के सामाजिक रामवाण के चमत्कारी प्रभावों के बारे में जागरुक किया जाय।2 जब मैंने इन अजीब आलेखों के स्वीकार किये जाने पर सम्पादकों को अपना अचरज जताया, मुझे उनका जबाब देने की चुनौती दी गई। मैंने वह किया (देखें भाग I: प्रुधों किस तरह आवास के प्रश्न का समाधान करते हैं)। जल्द ही इस शृंखला के बाद दूसरी शृंखला आई, जिसमें मैंने, डा॰ एमिल सैक्स3 की एक रचना के आधार पर, इस प्रश्न से सम्बन्धित परोपकारी पूंजीवादी विचार का परीक्षण किया (भाग II: पूंजीवादी वर्ग किस तरह आवास की समस्या का समाधान करता है)। काफी लम्बे अन्तराल के बाद डा॰ मुलबर्गर ने मेरे आलेखों4 का उत्तर देकर मेरा आदर किया और इसके कारण मुझे एक प्रत्युत्तर तैयार करना पड़ा (भाग III: प्रुधों एवं आवास के प्रश्न पर अनुपूरक), जिसके साथ वाद-विवाद भी एवं इस प्रश्न पर मेरी विशेष व्यस्तता का भी अंत हुआ। यही, आलेखों के इन तीन शृंखलाओं की सृष्टिकथा है, जो एक पुस्तिका के तौर पर अलग से भी पुनर्मुद्रित हो चुका है। एक नये पुनर्मुद्रण की आवश्यकता के लिये मैं जर्मन साम्राज्यवादी सरकार की कृपादृष्टि का आभारी हूँ, जिन्होने इस रचना पर रोक लगाकर इसकी बिक्री को तेज कर दी – यही वह रोज करती हैं – और मैं इस अवसर को ग्रहण कर उन्हे आदरभाव सहित धन्यवाद दे रहा हूँ।5
नये संस्करण के लिये मैंने पाठ का पुनरीक्षण किया है, कुछेक नये संयोजन किये हैं और नई टिप्पणियाँ जोड़ी हैं तथा पहले भाग6 में एक छोटी आर्थिक गलती की सुधार की है, जो दुर्भाग्य से मेरे विरोधी डा॰ मुलबर्गर खोजने में असफल रहे।
इस पुनरीक्षण के दौरान मेरे सामने यह तथ्य उभर कर आई कि पिछले चौदह वर्षों में अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक वर्ग का आन्दोलन कितनी विराट प्रगति कर चुका है। उस समय तक यह एक तथ्य था कि “बीस वर्षों से लातीनी भाषायें बोलने वाले श्रमिकों के पास प्रुधों की रचनाओं के अलावा कोई दूसरा मानसिक खुराक नहीं है”7, और जरूरत पड़ने पर उस समय “अराजकतावाद” के जनक बाकुनिन द्वारा प्रस्तुत प्रुधोंवाद का और भी ज्यादा एक-तरफा संस्करण मौजूद था; बाकुनिन प्रुधों को “हम सभी का स्कूलशिक्षक” हम सभी के लिये हमारे गुरू [फ्रांसिसी में] मानते थे। हालाँकि फ्रांस में प्रुधोंवादी श्रमिकों के बीच एक छोटे से ही संप्रदाय के रूप में थे। लेकिन उस समय तक वे ही थे जिनका एक निर्दिष्ट सुत्रबद्ध कार्यक्रम था और जो, पैरिस कम्यून में आर्थिक क्षेत्र में नेतृत्व का बागडोर सम्हालने में सक्षम थे। बेल्जियम में, प्रुधोंवाद ने वालून श्रमिकों [बेल्जियम के अन्तर्गत वालोनिया के श्रमिकों – अनु॰] के बीच निर्विरोध राज किया, और स्पेन व इटली में, कुछेक अपवादों को छोड़कर श्रमिक वर्ग के आन्दोलन में जो कुछ भी अराजकतावादी नहीं था वह निश्चित तौर पर प्रुधोंवादी था। और आज? फ्रांस में श्रमिकों ने पूरी तरह प्रुधों को त्याग दिया है। प्रुधों के समर्थक अब सिर्फ उग्र-सुधारवादी पूंजीवादी एवं टुटपूंजियों में मौजूद हैं, जो प्रुधोंवादी के रूप में खुद को “समाजवादी” भी कहते हैं, लेकिन उनके खिलाफ सबसे अधिक ऊर्जावान संघर्ष समाजवादी श्रमिक ही चलाते हैं। बेल्जियम में, फ्लेमिंगों [फ्लेमिंग या फ्लेमिश – बेल्जियम का एक जनसमुदाय – अनु॰] ने वालूनों को आन्दोलन के नेतृत्व से हटा दिया है, प्रुधोंवाद को निकाल फेंका है एवं आन्दोलन के स्तर को वे काफी ऊँचाई तक ले गये हैं। इटली की तरह स्पेन में भी, सत्तर के दशक के अराजकतावाद का ज्वार उतर चुका है और उतरने में प्रुधोंवाद के अवशेषों को भी बहा ले गया है। इटली में एक नई पार्टी स्पष्टीकरण एवं गठन की प्रक्रिया में है, जबकि स्पेन में, नुयेवा फेदरसिओन माद्रिलेना8 के नाम से एक छोटा केन्द्र, जो अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद के प्रति एकनिष्ठ रहा है, मजबूत पार्टी बन चुका है। यह पार्टी, प्रजातंत्री संवाद-माध्यमों से ही पता चलता है, श्रमिकों के बीच से पुंजीवादी प्रजातंत्रियों के प्रभाव को जितना ज्यादा असरदार ढंग से खत्म कर रही है, उतने इनके शोर मचाने वाले पूर्ववर्ती अराजकतावादी कभी नहीं कर पाये थे। लातीनी श्रमिकों में प्रुधों की भूली गई रचनाओं की जगह पूंजी, कम्युनिस्ट घोषणापत्र एवं मार्क्सवादी धारा के अन्य कई रचनाओं ने ले ली है तथा मार्क्स की मुख्य मांगनिरंकुश राजनीतिक सत्ता तक पहुँचे हुये सर्वहारा द्वारा उत्पादन के सभी साधनों का समाज के लिये जब्तीलातीनी देशों के भी पूरे क्रांतिकारी श्रमिक वर्ग की मांग है।
अगर प्रुधोंवाद लातीनी देशों के श्रमिकों के बीच से भी अन्तिम रूप से विस्थापित हो चुका है, अगर अपने वास्तविक गन्तव्य के अनुरूप यह अब सिर्फ फ्रांसीसी, स्पेनीय, इतालवी एवं बेल्जियाई पूंजीवादी उग्र-सुधारवादियों की पूंजीवादी एवं टुट्पूंजियई आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बन कर रह गया है तो फिर इसकी तरफ लौटा ही क्यों जाय? इन आलेखों का पुनर्मुद्रण कर एक मरे हुये विरोधी से क्यूँ लड़ें?
पहला कारण तो यह कि ये आलेख, सिर्फ प्रुधों एवं उनके जर्मन नुमाइन्दों के विरुद्ध वाद-विवाद तक में सीमित नहीं हैं। मार्क्स और मेरे बीच मौजूद श्रम के विभाजन के फलस्वरूप, संवाद-सामयिकों में और उसी कारण से, खास कर विरोधी नजरियों खिलाफ लड़ाई में, हमारा नजरिया प्रस्तुत करते रहने का जिम्मा मेरे उपर पड़ा ताकि मार्क्स को अपने महान मुख्य कार्य के विशद में जाने का समय मिले। इस जिम्मेदारी ने मेरे लिये, हमारे नजरिये को अधिकांशत:, दूसरे नजरियों के विरुद्ध में वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक कर दिया। यहाँ भी। लेकिन, पहले एवं तीसरे भाग में, आवास के प्रश्न पर सिर्फ प्रुधोंवादी धारणा की आलोचना नहीं बल्कि हमारी अपनी धारणा की भी प्रस्तुति है।
दूसरी बात, योरोपीय श्रमिक वर्ग के आन्दोलन के इतिहास में प्रुधों ने कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसलिये बिना आगे कोई हलचल मचाये वह विस्मृत हो जायें यह संभव नहीं। सैद्धांतिक तौर पर खंडित किये जाने एवं व्यवहारिक तौर पर त्याग दिये जाने के बाद भी उनमें ऐतिहासिक दिलचस्पी बनी रहेगी। जिसमें भी आधुनिक समाजवाद के विशद में जाने की रुचि होगी उसे आन्दोलन के “परास्त किये गये दृष्टिकोणों” से परिचित होना होगा। मार्क्स रचित दर्शन की दरिद्रता का प्रकाशन, प्रुधों द्वारा की गई, सामाजिक सुधार के व्यवहारिक प्रस्तावों की प्रस्तुति के अनेकों वर्ष पहले हुआ था।9 इस पुस्तक में मार्क्स ने सिर्फ प्रुधों के विनिमय बैंक का भ्रुण-रूप आविष्कार किया था एवं उसकी आलोचना की थी। इस पहलु से देखा जाय तो वर्तमान पुस्तिका उनके पुस्तक का अनुपूरण कर रही है - पर खेद की बात है कि बहुत अधूरेपन के साथ। मार्क्स खुद इस काम को काफी बेहतर और काफी अधिक विश्वासप्रद ढंग से किये होते।
और अन्तिम बात, पूंजीवादी एवं टुटपूंजिया समाजवाद के प्रतिनिधि अभी भी जर्मनी में मजबूती के साथ हैं। एक तरफ उनके प्रतिनिधि हैं आराम-कुर्सी वाले समाजवादी10 और तमाम किस्म के परोपकारवादी जिनमें श्रमिकों को उनके घरों के मालिक में बदलने की ईच्छा अभी भी बड़ी भूमिका निभा रही है और इस कारण से उनके लिये मेरा काम अभी भी उपयुक्त है। दूसरी तरफ, एक खास टुटपूंजिया समाजवाद को सामाजिक-जनवादी पार्टी के अन्दर ही, यहाँ तक कि राइखस्टैग गुट के कतारों में प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। यह यूँ काम करता है – आधुनिक समाजवाद के मौलिक विचार एवं उत्पादन के सारे साधनों का सामाजिक सम्पत्ति में रूपांतरण की मांग न्यायसंगत मानी तो जाती है लेकिन दूर, और सारे व्यवहारिक उद्देश्यों के मद्देनजर, अज्ञेय भविष्य के लिये। इसलिये, बात होती है कि वर्तमान में महज सामाजिक पैबन्दबाजी पर भरोसा किया जाय और परिस्थिति के अनुसार, “मेहनतकश वर्ग के उत्थान” के रूप में जाने जाने वाले सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी प्रयासों के प्रति भी हमदर्दी दिखानी पड़ सकती है। खास कर उस समय जब जर्मनी में औद्योगिक विकास, गहरे जड़ धँसाये हुये टुटपूंजियेपन को बड़े पैमाने पर उखाड़ फेंक रहा है, उपरोक्त प्रवृत्ति का अस्तित्व अनिवार्य है क्योंकि जर्मनी सर्वोत्कृष्ट टुटपूंजियेपन की जमीन है। वैसे, समाजवाद-विरोधी कानून11, पुलिस और न्यायाधीशों के विरुद्ध पिछले आठ वर्षों के संघर्ष की परीक्षा में हमारे श्रमिक जितने भव्य ढंग से सफल हुये हैं उनकी अद्भुत व्यवहारिक बुद्धि को देखते हुये उपरोक्त प्रवृत्ति नितान्त हानिरहित है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि ऐसी प्रवृत्ति मौजूद है। और अगर यह प्रवृत्ति आगे चलकर सशक्त आकार एवं अधिक परिभाषित रूप ले लेता है, जैसा की जरूरी है और वांछनीय भी, तब इसे अपने कार्यक्रम को सुत्रबद्ध करने के लिये पीछे, अपने पूर्ववर्त्तियों के पास जाना पड़ेगा, और ऐसा करते समय प्रुधों की अनदेखी करने में यह शायद ही सक्षम हो।         
“आवास के प्रश्न” पर बड़े-पूंजीवादी एवं टुटपूंजिये, दोनों के समाधान का सार है कि श्रमिकों को अपने घर का मालिक होना चाहिये। हालाँकि, पिछले बीस वर्षों के दौरान हुये जर्मनी के उद्योगिक विकास ने इस बिन्दु को बहुत अजीब रोशनी में दर्शाया है। किसी दूसरे देश में इतने अधिक ऐसे मजदूर नहीं हैं जो न सिर्फ अपने घरों के मालिक हैं बल्कि जिनके पास एक बगीचा या खेत भी है। इनके अलावे बहुत सारे ऐसे हैं जो किरायेदार के रूप में आवास एवं बगीचा या खेत रखे हुये हैं और जिन पर उनका अधिकार खासी सुरक्षित है। मोटे तौर पर जर्मनी के नये बड़े उद्योग का आधार बनता है ग्रामीण घरेलू उद्योग के साथ संयुक्त बागवानी या लघु कृषि। पश्चिम तरफ, अधिकांश श्रमिक अपनी घर-गृहस्थी के मालिक हैं, पूरब तरफ वे मुख्यत: किरायेदार हैं। घरेलू उद्योग के साथ बागवानी एवं कृषि का, और फलस्वरूप सुरक्षित घर का यह योग हमें न सिर्फ उन जगहों पर मिलता है जहाँ हाथ की बुनाई अभी भी यांत्रिक करघा के खिलाफ लड़ रही है – जैसे निचले राइनलैन्ड में और वेस्टफैलिया में, सैक्सन एर्ज्गेबिर्ग में और साइलेशिया में – बल्कि वहाँ भी जहाँ किसी न किसी किस्म का घरेलू उद्योग ग्रामीण धंधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है – जैसे, थुरिंगियाई जंगल या रोन इलाका। तम्बाकु एकाधिकार पर बातचीत के समय इसका खुलासा हुआ था कि सिगार बनाने का काम भी कितना व्यापक तौर पर ग्रामीण घरेलू उद्योग के तौर पर किया जा रहा था। जहाँ कहीं भी छोटे किसानों में विपत्ति फैलती है – जैसा कि, मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले आइफेल इलाके में हुआ था12 - पूंजीवादी संवाद-माध्यम तत्काल आवाज उठाते हैं कि कोई उपयुक्त घरेलू उद्योग ही एकमात्र इलाज है। और सच पूछा जाय तो जर्मन बटाईदार किसानों की बढ़ती दुर्दशा एवं जर्मन उद्योग की सामान्य परिस्थिति, ग्रामीण घरेलू उद्योग को निरंतर विस्तार की ओर प्रवृत्त करता है। यह परिघटना जर्मनी की विशेषता है। फ्रांस में इसके अनुरूप अगर कुछ मिलता है तो नितान्त अपवाद के रूप में, जैसे रेशम की खेती के इलाकों में। इंग्लैंड में, जहाँ छोटे किसान नहीं हैं, ग्रामीण घरेलू उद्योग, खेतिहर दिहाड़ी-मजदूरों के बीवीयों और बच्चों के काम पर टिके हुये हैं। सिर्फ आयरलैंड में हम जर्मनी की तरह, पाते हैं कि परिधान बनाने के ग्रामीण घरेलू उद्योग वास्तविक किसान परिवारों द्वारा चलाये जा रहे हैं। बेशक, हमारा सरोकार यहाँ रूस एवं उन अन्य देशों से नहीं है जिनका प्रतिनिधित्व औद्योगिक विश्व-बाज़ार में नहीं है।     
इस तरह, जहाँ तक उद्योग का सवाल है, जर्मनी के बड़े हिस्सों में मौजूदा स्थिति पहली नजर में वैसी ही है जैसी मशिनरियों की शुरूआत के समय थी। लेकिन यह सिर्फ पहली नजर की बात है। पहले के ग्रामीण घरेलू उद्योग और साथ में बागवानी और खेती, कम से कम उन देशों में जहाँ उद्योगों का विकास हो रहा था, श्रमिक वर्ग के लिये सहनीय एवं जहाँ तहाँ, बल्कि आरामदायक भौतिक स्थिति के आधार थे। जबकि साथ ही साथ, इस वर्ग के बौद्धिक एवं राजनीतिक महत्वहीनता के भी आधार थे। हाथ से बने उत्पाद एवं इनकी लागत, बाजार में इनकी कीमत को निर्धारित करते थे, और आज की तूलना में श्रम की नगण्य उत्पादकता के कारण, बिक्री के बाजार नियम के तौर पर आपुर्ति से अधिक तेजी से बढ़ते थे। पिछली सदी के बीच तक यह इंग्लैंड के लिये भी सच था और अंशत: फ्रांस के लिये भी – खासकर कपड़ा उद्योग में। लेकिन जर्मनी जो उस समय तीस वर्षीय युद्ध13 के विध्वंस से बस उबर रहा था और अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में आगे बढ़ने का रास्ता बना रहा था, स्थिति बिल्कुल भिन्न थी। एकमात्र घरेलू उद्योग, लिनेन की बुनाई, जो विश्व-बाजार के लिये उत्पादन कर रहा था, इतना अधिक करों के बोझ एवं सामंती बकायों से दबा हुआ था कि किसान बुनकरों को यह, बाकी किसानों के बहुत निचले स्तर से ऊपर नहीं उठाया। जबकि ग्रामीण औद्योगिक श्रमिक उसी समय एक दूरी तक आश्वस्त जीवन जी रहे थे।
मशीनरी की शुरूआत होते ही यह सबकुछ बदल गया। कीमतें अब मशीन से बने उत्पादों के द्वारा तय होने लगीं और घरेलू औद्योगिक श्रमिक की मजदूरी इस कीमत के साथ गिरने लगी। लेकिन, श्रमिकों को या तो यह स्वीकार करना था या नहीं तो दूसरा काम देखना था, जो वह बिना सर्वहारा बने, यानि, बिना अपना, मालिकाना वाला या किराये का छोटा सा आवास, बगीचा या खेत खोये, कर नहीं सकता था। बिरले ही वह ऐसा करने को तैयार होता था। और इस तरह, पुराने ग्रामीण, हाथ के बुनकरों की बागवानी और खेती के कारण यंत्र-करघा के खिलाफ हस्त-करघा की लड़ाई जर्मनी में हर जगह इतनी लम्बी अवधि तक चली और अभी भी वह लड़ाई अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुँची है। इस संघर्ष में यह पहली बार, खास कर इंग्लैंड में प्रदर्शित हुआ, कि वह परिस्थिति जो पहले श्रमिक के लिये तुलनात्मक समृद्धि का कारण बनी थी – यह यथार्थ कि वह अपने उत्पादन के साधनों का मालिक था – अब एक बाधा और दुर्भाग्य बन गई थी। उद्योग में यंत्र-करघा ने उसके हस्त-करघा को पराजित कर दिया और कृषि में बड़े पैमाने की खेती ने उसके छोटे पैमाने की खेती को पीछे छोड़ दिया। फिर भी, जब एक तरफ अनेकों का सामाजिक श्रम, मशीनरी एवं विज्ञान का उपयोग, उत्पादन के दोनों क्षेत्र का सामाजिक नियम बन गया, वह अपना छोटा सा आवास, बगीचा, खेत और हस्त-करघा के द्वारा व्यक्तिगत उत्पादन एवं हाथ के श्रम की पुरानी पद्धति से बँधा हुआ था। आवास एवं बगीचा पर अधिकार का मोल अब घूमने-फिरने की पूरी आजादी से बहुत कम था। कोई कारखाना श्रमिक किसी ग्रामीण हस्त-बुनकर से, जो धीरे धीरे लेकिन निश्चित तौर पर भूखे मरने की स्थिति की ओर जा रहा था, जगह की अदला-बदली नहीं चाहता।        
विश्व-बाजार में जर्मनी का आविर्भाव विलम्ब से हुआ। हमारे देश में बड़े पैमाने के उद्योग की शुरूआत चालीस के दशक में हुई। सन 1848 की क्रांति से इसे पहला चढ़ाव मिला। पूरी तरह विकसित होने में यह तब सक्षम हुआ जब सन 1866 एवं 1870 की क्रांतियों14 ने इसके मार्ग के सबसे खराब राजनीतिक बाधाओं को हटा दिया। लेकिन तब विश्व-बाजार इसे बड़े पैमाने पर पहले से अधिकृत मिला। आम उपभोग के सामानों की आपुर्ति इंग्लैंड द्वारा की जा रही थी और मनोहर विलासिता के सामानों की आपुर्ति फ्रांस द्वारा की जा रही थी। पहले वाले को कीमतों में और बाद वाले को गुणवत्ता में जर्मनी मात नहीं दे सकती थी। इसलिये, फिलहाल के लिये जर्मनी के पास अपने उत्पादन के पिटे हुये रास्ते पर ही चलने के अलावा कुछ बचा नहीं था। विश्व-बाजार में ऐसे सामान लेकर पहुँचो जो अंग्रेजों के लिये ज्यादा ही तुच्छ हो और फ्रांसीसियों के लिये ज्यादा ही घटिया हो। हालाँकि, धोखे की पसंदीदा जर्मन रीति - कि पहले अच्छे नमूने भेजो और बाद में रद्दी सामान – को तुरन्त विश्व-बाजार में पर्याप्त कठोर सजा मिला और अन्तत: इस रीति को त्यागना पड़ा। दूसरी ओर, अति-उत्पादन की प्रतिस्पर्धा ने आदरणीय अंग्रेजों को भी गुणवत्ता में खराबी लाने को मजबूर किया और इस तरह उन्होने जर्मनों को, जो गुणबत्ता में खराबी के मामले में अतुलनीय हैं, एक बढ़त दे दिया। और इस तरह हम अन्तत: बड़े पैमाने के उद्योग हासिल किये और हमें विश्व-बाजार में एक भूमिका निभाने को मिला। लेकिन हमारे बड़े पैमाने के उद्योग लगभग पूरी तरह सिर्फ घरेलू बाजार के लिये काम करते हैं (सिर्फ अपवाद के रूप में लौह उद्योग को छोड़ कर, जो घरेलू मांग की सीमाओं से बहुत अधिक उत्पादन करता है), और हमारे निर्यात का बहुतायत, बहुत बड़ी संख्या में छोटे सामानों का होता है, जिसके लिये बड़े पैमाने का उद्योग अधिक से अधिक, आवश्यक अर्द्ध-निर्मित वस्तुयें मुहैया कराते हैं, जबकि निर्यात के लिये जो छोटे सामान होते हैं उसकी आपुर्ति मुख्यत: ग्रामीण घरेलू उद्योग द्वारा की जाती है।
और यहाँ, आधुनिक श्रमिक पर आवास और जमीन के मालिकाने का “आशीर्वाद” इसकी पूरी महिमा में देखी जा सकती है। आयरलैंड के घरेलू उद्योगों को छोड़ कर, - वह भी शायद - कहीं भी इतनी शर्मनाक कम मजदूरी नहीं मिलती हैं जितनी जर्मनी के घरेलू उद्योगों में। परिवार अपने छोटे से बगीचे या खेत से जो भी अर्जित करता है, प्रतिस्पर्धा के कारण, पूंजीपति को उतनी रकम श्रमशक्ति की कीमत से काट लेने की छूट मिल जाती है। भाग की दर पर कोई भी मजदूरी स्वीकार करने केलिये श्रमिक मजबूर किये जाते हैं, अन्यथा उन्हे कुछ भी नहीं मिलेगा और सिर्फ उनकी खेती के उत्पादों पर वे जी नहीं पायेंगे। जबकि दूसरी ओर, ठीक यही खेती और जमीन का मालिकाना उनकी मजबूरी का कारण है क्योंकि यह उन्हे जगह से बांधे रखता है और आसपास कोई दूसरा रोजगार ढूढ़ने से रोकता है। यही वह कारण है जो विश्व-बाजार में जर्मनी की प्रतिस्पर्धा की क्षमता बहुत सारे छोटे छोटे सामानों के क्षेत्र में बनी रहती है। पूरा मुनाफा सामान्य मजदूरी में कटौती कर बनाया जाता है और पूरा अतिरिक्त मूल्य खरीद्दार को तोहफे में दिया जा सकता है। जर्मनी से निर्यात होने वाले सामानों का असाधारण रूप से सस्ता होने का राज यही है।
किसी भी दूसरे कारण से अधिक यही वह परिस्थिति है जो उद्योग के दूसरे क्षेत्रों में भी जर्मन श्रमिकों की मजदूरी एवं जीने के शर्तों को पश्चिमी योरोपीय देशों के स्तरों के बनिस्बत नीचे किये रखती है। परम्परागत तौर पर श्रमशक्ति के मूल्य से काफी नीचे रखी गई श्रम की ऐसी कीमतों का पूरा भार, शहरी मजदूरों की और यहाँ तक कि महानगरों के मजदूरों की मजदूरी को भी, श्रमशक्ति के मूल्य से नीचे दबाये रखता है। यह इसलिये और भी होता है क्योंकि शहरों में भी, नितान्त कम मजदूरी के भुगतान वाले घरेलू उद्योग ने पुरानी दस्तकारी की जगह ले ली है। फलस्वरूप, यहाँ भी वह, मजदूरी के सामान्य स्तर को नीचे दबाये रखती है।
यहाँ हम स्पष्टत: देख पाते हैं कि कृषि और उद्योग का मेल, आवास, बगीचा एवं खेत का मालिकाना, रहने की जगह की गारंटी, जो पूर्व के ऐतिहासिक चरण में सापेक्ष तौर पर श्रमिकों की भलाई का आधार हुआ करता था, आज, बड़े पैमाने के उद्योग के शासनाधीन, न सिर्फ श्रमिकों के लिये भयानक जंजीर बनती जा रही है, बल्कि पूरे श्रमिक वर्ग के लिये सबसे बड़ा दुर्भाग्य, मजदूरी को सामान्य स्तर के अभूतपूर्व नीचे दबाये रखने का आधार बनता जा रहा है – वह भी, उद्यमों की अलग अलग शाखाओं और जिलों में नहीं बल्कि पूरे देश में। कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े पूंजीपति वर्ग एवं टुटपूंजिया वर्ग, जो मजदूरी की इस अस्वाभाविक कटौती पर जिन्दा रहते और धनवान बनते हैं, ग्रामीण उद्योग एवं अपने घर का मालिकानावाले श्रमिकों को लेकर इतने उत्साहित हैं, और वे नये घरेलू उद्योगों की शुरूआत को तमाम ग्रामीण विपत्तियों का एकमात्र इलाज मानते हैं।                 
यह वस्तुस्थिति का एक पहलू है। लेकिन इसका विपरीत पहलू भी है। घरेलू उद्योग जर्मन निर्यात व्यापार एवं फलस्वरूप बड़े पैमाने के पूरे उद्योग का प्रशस्त आधार बन चुका है। इसके चलते यह जर्मनी के व्यापक इलाकों में फैला हुआ है और हर दिन और ज्यादा फैल रहा है। छोटे किसान की बर्बादी तो अनिवार्य थी ही। उसके अपने उपभोग के लिये उसका जो औद्योगिक घरेलू श्रम था, सस्ते बने-बनाये परिधान एवं मशीन से बने उत्पाद उसे ध्वस्त कर चुके थे। उसी तरह उसका पशुपालन, एवं नतीजे के तौर पर उसका खाद उत्पादन, मार्क व्यवस्था15 – सहाधिकार मार्क एवं फसल का बाध्यतापूर्वक चक्रीकरण – के विघटन से ध्वस्त हो चुके थे। यह बर्बादी छोटे किसान को महाजन का शिकार बनाकर बलपूर्वक आधुनिक घरेलू उद्योग के हाथों में डाल देती है। आयरलैंड के भूस्वामी के भूमि-किराये की तरह, जर्मनी के बंधकी का कारोबार करने वाले सूदखोर-महाजन का व्याज, धरती के उपज से नहीं बल्कि औद्योगिक किसान की मजदूरी से ही चुकाये जा सकते हैं। जो भी हो, घरेलू उद्योग के विस्तार से एक किसान-इलाके के बाद दूसरा किसान-इलाका आज की औद्योगिक गतिविधि में घसीटा चला आ रहा है। घरेलू उद्योग के माध्यम से ग्रामीण जिलों का यह क्रांतिकारी बदलाव ही जर्मनी के, इंग्लैंड और फ्रांस से ज्यादा प्रशस्त इलाकों में औद्योगिक क्रांति को फैला रहा है। तुलनात्मक तौर पर हमारे उद्योग का नीचा स्तर ही क्षेत्र में इसके विस्तार को अधिक जरूरी बनाता है। यही व्याख्या करता है कि क्यों जर्मनी में क्रांतिकारी श्रमिक-वर्ग आन्दोलन, इंग्लैंड और फ्रांस के विपरीत, शहरी केन्द्रों में सीमित रहने के बजाय, देश के बड़े भूभाग में इतनी तीव्रता से फैल गया है। और यही, आन्दोलन के शांत, निश्चित और अप्रतिरोध्य प्रगति की भी व्याख्या करता है। जर्मनी में यह पूरी तरह स्पष्ट है कि राजधानी और दूसरे बड़े शहरों में एक सफल विद्रोह तभी सम्भव होगा छोटे शहर और ग्रामीण जिलों के बड़े हिस्से क्रांतिकारी बदलाव के लिये परिपक्व हो जायेंगे। अगर सामान्य विकास की धारा पर बातें आगे बढ़ेंगी यह मान लिया जाय, तो यह सच है कि हम कभी भी सन 1848 या 1871 की पैरिस के मजदूरों की तरह श्रमिक-वर्गीय विजय हासिल नहीं कर पायेंगे, लेकिन यह भी सच है कि हमारा क्रांतिकारी राजधानी का पराजय प्रतिक्रांतिकारी प्रदेशों के द्वारा नहीं होगा, जैसा पैरिस को दोनों ही बार भुगतना पड़ा है। फ्रांस में आन्दोलन की शुरूआत हमेशा राजधानी में हुई है; जर्मनी में इसकी शुरुआत बड़े पैमाने के उद्योग, यंत्र-उत्पादन एवं घरेलू उद्योग के क्षेत्रों में हुई है; राजधानी पर बाद में विजय प्राप्त किया गया है। इसलिये, भविष्य में भी शायद, पहल फ्रांसीसी करेंगे लेकिन निर्णायक संघर्ष जर्मनी में ही लड़ी जायेगी।
अब, यह ग्रामीण घरेलू उद्योग एवं कारखाने, जो अपने विस्तार के कारण जर्मन उत्पादन की निर्णायक शाखा बन चुकी है और जर्मन किसानों का ज्यादा से ज्यादा वैप्लवीकरण कर रही है, खुद ही बस आगे के क्रांतिकारी बदलाव का प्रारंभिक चरण है। जैसा मार्क्स पहले ही साबित कर चुके हैं (पूंजी, खण्ड I, तीसरा संस्करण, पृ॰ 484-9516) कि, विकास के एक निश्चित चरण में इसके भी पतन की घंटी, मशीनरी एवं कारखाना-उत्पादन के चलते ही बजेगी। और वह घड़ी प्रतीत होता है की आ चुकी है। लेकिन मशीनरी एवं कारखाना-उत्पादन के द्वारा ग्रामीण घरेलू उद्योग एवं यंत्र-उत्पादन के विध्वंस का जर्मनी में अर्थ है दसियों लाख ग्रामीण उत्पादकों की जीविका का विध्वंस, जर्मन छोटे किसानों की लगभग आधी आबादी का उजड़ जाना। न सिर्फ घरेलू उद्योग का कारखाना-उत्पादन में रूपांतर, बल्कि किसानी की खेती का भी बड़े पैमाने की पूंजीवादी कृषि में रूपांतर, छोटे भूसम्पत्ति का बड़े जायदादों में रूपांतर – किसानों की कीमत पर पूंजी एवं बड़े भूस्वामित्व के पक्ष में औद्योगिक एवं कृषि क्रांति। अगर पुरानी सामाजिक स्थितियों में रहते हुये इस रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरना जर्मनी के भाग्य में है, तो प्रश्नातीत तौर पर यह एक मोड़ होगा। अगर किसी भी दूसरे देश का श्रमिक वर्ग उस समय तक पहल न करे तो जर्मनी पहली चोट करेगी और “महिमान्वित सेना” के किसान बेटे साहस के साथ सहायता के हाथ बढ़ायेंगे।
और इसके साथ पूंजीवादी एवं टुटपूंजिया आदर्शलोक, जिसमें हर एक श्रमिक को उसके छोटे से आवास का मालिकाना देने की, और इस तरह, उसे उसके खास पूंजीपति के साथ अर्द्ध-सामन्ती तरीके से जंजीरों में बांध देने की बात है, बहुत ही भिन्न रंगरूप ग्रहण कर लेता है। इसके भौतिकीकरण में आवासों के छोटे ग्रामीण मालिकों का औद्योगिक घरेलू श्रमिक में रूपांतर होता है; “सामाजिक उथलपुथल” में खींच कर लाये जाने के कारण छोटे किसानों का पुराना अलगाव और उसके साथ उनकी राजनीतिक महत्वहीनता भी खत्म हो जाते हैं; ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक क्रांति का विस्तार होता है और फलस्वरूप, आबादी का सबसे स्थाई एवं रूढ़िवादी वर्ग का, क्रांतिकारियों के पौधशाला में रूपांतर होता है; और इन तमाम बातों की परिणति के रूप में, घरेलू उद्योग में लगे किसानों को मशीनरी उजाड़ देती है, जो उन्हे बलपूर्वक विद्रोह में जाने के लिये मजबूर करता है।
पूंजीवादी-समाजवादी परोपकारियों को अपने आदर्शों से निजी तौर पर आनन्दित होने की अनुमति हम तब तक आसानी से दे सकते हैं जब तक वे पूंजीपति के रूप में, सामाजिक क्रांति की बड़ी भलाई के लिये अपने सार्वजनिक काम, उल्टे रूप में सामाजिक विकास की उपरोक्त प्रक्रिया को लागू करते रहते हैं।
लन्दन, जनवरी 10, 1887
                                                                                                                             फ्रेडरिक एंगेल्स

[पहली बार डेर सोज़्यलडेमोक्रैट, अंक 3 एवं 4, जनवरी 15 एवं 22, 1887 एवं पुस्तक: एफ॰ एंगेल्स, ज़ुर वोह्नांग्सफ्राय्जे, हॉटिनगेन-ज़ुरिख, 1887 में प्रकाशित]       

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1- यह उन 5000 मिलियन फ्रांक के हर्जाना का प्रसंग है जो फ्रांस को, फ्रांको-प्रुशियाई युद्ध के बाद 10 मई, 1871 को हुये फ्रांकफुर्ट शांति समझौते के शर्तों के तहत जर्मनी को देना पड़ा था। - स॰र॰स॰
2- [ए॰ मुलबर्गर] “डाय वोनांग्सफ्राय्जे”, डेर वोकस्टाट, अंक 10-13, 15, 19, फरवरी 3, 7, 10, 14, 21 एवं मार्च 6, 1872 – स॰र॰स॰
3- ई॰ सैक्स, डाय वोनांग्शुस्टान्ड डेर अर्बेइटेन्डेन क्लासेन उन्ड इह्रे रिफॉर्म [श्रमिक वर्गों के आवास की स्थिति और उनके सुधार], वियेना, 1869 - स॰र॰स॰
4- ए॰ मुलबर्गर, ज़ुर वोनांग्सफ्राय्जे [आवास के प्रश्न के लिये] (ऐन्टवोर्ट ऐन फ्रिड़रिख एंगेल्स वॉन ए॰ मुलबर्गर), डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 - स॰र॰स॰
5- जर्मनी में समाजवादी साहित्य के मुद्रण एवं वितरण पर पाबन्दी का प्रसंग है (एंगेल्स की रचना आवास का प्रश्न भी उसमें शामिल था। अक्तूबर 1878 को पारित समाजवादी-विरोधी कानून के तहत इस पाबन्दी को लागू किया गया था।  
6- देखें रचना समग्र, खण्ड 23, पृ॰ 334 - स॰र॰स॰
7- वही, पृ॰ 369 - स॰र॰स॰
8- नुयेवा फेदरसियोन माद्रिलेना (नया माद्रिद संघ) का गठन 8 जुलाई 1872 को ला इमैन्सिपैसिओन के सम्पादकीय मंडल के सदस्यों द्वारा किया गया था। ये सदस्य माद्रिद फेडरेशन के अराजकतावादी बहुमत के द्वारा निष्काषित किये गये थे। इन पर आरोप था कि ये अपने अखबार में स्पेन के गुप्त एलायेंस फॉर सोश्यलिस्ट डेमोक्रैसी के कामकाजों का भंडाफोड़ कर रहे थे। इस संघ के गठन में प्रधान भूमिका पॉल लाफार्ग ने निभाई थी। 15 अगस्त 1872 को पहले अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद ने नया माद्रिद संघ को अन्तरराष्ट्रीय में शामिल कर लिया।
नया माद्रिद संघ स्पेन में अराजकतावादी प्रभाव के प्रसार के खिलाफ लड़ा, वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाया तथा 1879 में स्पेनीय समाजवादी श्रमिक पार्टी की स्थापना में मदद किया।  
9- सन 1848 की क्रांति के दौरान प्रुधों ने सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों की कई ठोस परिकल्पनायें प्रस्तुत किये थे। सामान्य शब्दावलियों में उन परिकल्पनाओं की व्याख्या पी॰ जे॰ प्रुधों रचित आइडिए जेनेराले द ला रिवोल्युशॉन अ XIX-ए सियेक्ल [उन्नीसवीं सदी में क्रांति के सामान्य विचार], पैरिस, 1851
10- आराम-कुर्सी समाजवाद (कैथेडर्सोज़िअलिस्मस), जर्मन पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक धारा जो 19वीं सदी की अन्तिम तिहाई में श्रमिक आन्दोलन का विकास तथा उसमें वैज्ञानिक समाजवाद के प्रसार की प्रतिक्रिया के रूप में उभरी थी। इस धारा के प्रतिनिधि समाजवाद से प्रतिबद्धता के छद्म में विश्वविद्यालयी व्याख्यान-मंचों से पूंजीवादी सुधारवाद का वकालत किया करते थे। अन्य बातों के अलावा वे दावा करते थे कि राज्यसत्ता, खासकर जर्मन साम्राज्य, का वर्गातीत चरित्र है और इसका इस्तेमाल सामाजिक सुधार के द्वारा श्रमिक वर्ग की स्थिति बेहतर करने के लिये किया जा सकता है।
11- 21 अक्तूबर 1878 को राइखस्टैग में बहुमत के समर्थन के द्वारा बिसमार्क की सरकार ने, समाजवादी एवं श्रमिक-वर्ग आन्दोलन से लड़ने के लिये समाजवाद-विरोधी कानून या समाजवादियों के विरुद्ध आपवादिक कानून लागू किया था। इस कानून के द्वारा जर्मनी के सामाजिक-जनवादी पार्टी का कानूनी दर्जा खत्म किया गया था, सामाजिक-जनवादी पार्टी के सारे संगठनों पर, श्रमिकों के जनसंगठनों एवं समाजवादी व श्रमिकों के संवाद-माध्यमों पर रोक लगाये गये थे, समाजवादी साहित्य की जब्ती का हुक्म दिया गया था एवं सामाजिक-जनवादियों का दमन किया गया था। फिर भी, मार्क्स एवं एंगेल्स की सक्रिय सहायता से सामाजिक-जनवादी पार्टी ने अपनी कतारों के अवसरवादी एवं “अति-वाम” तत्वों पर विजय प्राप्त किया। समाजवादी-विरोधी कानून के लागू रहते हुये भी, अपने गैरकानूनी कामों को सभी कानूनी संभावनाओं के इस्तेमाल के साथ सही ढंग से जोड़ते हुये पार्टी ने जनता के बीच अपना प्रभाव काफी बढ़ाया और फैलाया। 1 अक्तूबर 1890 को यह कानून निरस्त किया गया। इस पर एंगेल्स के मूल्यांकन जाननेk ए लिये देखें उनका आलेख “बिसमार्क एवं जर्मन श्रमजीवियों की पार्टी”। (मा॰ए॰ रचना समग्र, खण्ड 24, पृ॰ 407-09)  
12-  आइफेल (प्रशिया का राइन प्रदेश), विशाल दलदल एवं बंजर भूमि के साथ एक पहाड़ी क्षेत्र है। जलवायु कठोर है और मिट्टी बांझ। एंगेल्स सन 1882 की घटनाओं की ओर ध्यान खींचते हैं जब लगातार फसल की बर्बादी एवं कृषि-उपजों के दामों में पूर्व में हुये गिरावट के कारण उस क्षेत्र में अकाल का प्रादुर्भाव हुआ था।  
13- तीस वर्षीय युद्ध (1618-48) – एक योरोपीय युद्ध जिसमें पोप, स्पेनीय एवं ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्गों [एक जर्मन राजपरिवार जो 15वीं व 16वीं सदी में, पवित्र रोम साम्राज्य का ताज पहन कर विभिन्न योरोपीय राज्यों के लिये शासक मुहैया करता था] एवं कैथलिक जर्मन राजकुमारगण कैथलिकवाद के झंडेतले इकट्ठा हुये और प्रोटेस्टैन्ट देशों – बोहेमिया, डेनमार्क, स्विडेन, नेदरलैन्डस के प्रजातंत्र एवं अन्य कई प्रोटेस्टैन्ट जर्मन राज्यों के खिलाफ लड़े। कैथलिक फ्रांस के शासक हैब्सबर्गों के प्रतिस्पर्धी थे इसलिये उन्होने प्रोटेस्टैन्ट खेमे का साथ दिया।  जर्मनी ही मुख्य युद्धक्षेत्र एवं लूट व क्षेत्रीय दावों का लक्ष्य था। सन 1648 में हुई वेस्टफैलिया की शांति ने जर्मनी के राजनीतिक अंगविच्छेद पर मुहर लगाया।
जेना की लड़ाई (अक्तूबर 14, 1806) में नेपोलियॉन के नेतृत्वाधीन फ्रांसिसी सेना ने प्रशियाई सेना को परास्त किया और इस तरह प्रशिया को आत्मसमर्पण के लिये मजबूर किया।
14- सन 1866 में ऑस्ट्रिया एवं प्रशिया के बीच हुये युद्ध एवं सन 1870-71 में फ्रांस एवं प्रशिया के बीच हुये युद्ध का प्रसंग है। …
15- मार्क सिस्टम एक सामाजिक संगठन है जो फ्रीमैन के छोटे समूहों द्वारा भूमि के सामान्य कार्यकाल और आम खेती पर टिकी हुई है। राजनीतिक और आर्थिक दोनों रूप से मार्क एक स्वतंत्र समुदाय हुआ करते थे, और इसके शुरुआती सदस्य नि:संदेह रक्तसम्बन्ध से रिश्तेदार रहे होंगे - विकिपिडिया
16- देखें, रचना समग्र, खण्ड 35, अध्याय XIII, 8 (इ) - स॰र॰स॰

Sunday, November 24, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (4) फ्रेडरिक एंगेल्स

IV
इतना स्याही और कागज खर्च करना, मुलबर्गर के विविध घुमावों और मोड़ों को भेदते हुये रास्ता बनाकर उस वास्तविक मुद्दे पर पहुँचने के लिये जरूरी था जिसे अपने जबाब में मुलबर्गर सावधानीपूर्वक टाल जाते हैं।
मुलबर्गर के आलेख में सकारात्मक वक्तव्य क्या क्या हैं?
पहला: कि “किसी घर, निर्माणक्षेत्र आदि के मूल लागत एवं वर्तमान मूल्य के बीच का फर्क” अधिकारपूर्वक समाज का होता है।102 अर्थनीति की भाषा में इस फर्क को भूमि-किराया कहते हैं। प्रुधों भी इसे समाज के लिये रखना चाहते हैं, उनके द्वारा रचित आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के सन 1868 के संस्करण में पृष्ठ 219 पर कोई चाहे तो इस बात को पढ़ सकता है।
दूसरा: कि आवास की समस्या का समाधान सभी के, अपने घरों में किरायेदार होने के बजाय उस घर का मालिक बन जाने में है।
तीसरा: कि यह समाधान एक कानून पारित कर प्रभाव में लाया जायगा, जिसके तहत किराये के भुगतान को घर की खरीद की कीमत के किश्तों के भुगतान में बदल दिया जायेगा। --दूसरा एवं तीसरा बिन्दु दोनों प्रुधों से उधार लिया गया है; कोई भी उनके आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के पृ॰ 199 पर, सम्बन्धित अंश में देख सखता है। पृष्ठ 203 में सम्बन्धित कानून की परिकल्पना का एक मसौदा भी तैयार किया हुआ है।
चौथा: कि व्याज की दर को तत्कालिक तौर पर एक प्रतिशत पर लाने वाले एवं आगे और भी कम किये जाने के प्रावधान के साथ एक संक्रमणकालीन कानून के द्वारापूंजी की उत्पादकता से निर्णायक टक्कर लिया गया। यह बिन्दु भी प्रुधों से लिया गया है, जो विशद में आइडिये जेनराले के पृष्ठ 182 से लेकर 186 तक में पढ़ा जा सकता है।
उपरोक्त हर बिन्दु पर मैंने प्रुधों की उन रचनाओं में से अंश उद्धृत किये है, जिनमें मुलबर्गर कृत नकल का मूल मिलेगा। और अब मैं पूछता हूँ कि जिस आलेख में पूरी तरह और सिर्फ प्रुधोंवादी नजरिया है, उसके लेखक को प्रुधोंवादी कहना मेरे लिये उचित था कि नहीं था? इसके अलावा, मुलबर्गर को मुझसे सबसे कड़ुवी शिकायत इस बात के चलते हैं कि उनके आलेख में “प्रुधों की कुछेक खास अभिव्यक्तियाँ पा जाने” के कारण मैं उन्हे प्रुधोंवादी कहता हूँ। नहीं। बल्कि “अभिव्यक्तियाँ” सभी मुलबर्गर की है, उनकी सामग्री प्रुधों की है। और जब मैं इस प्रुधोंवादी अन्वेषण का अनुपूरण प्रुधों से करता हूँ, मुलबर्गर शिकायत करते हैं कि मैं प्रुधों के “विकट नजरिये” का श्रेय उन्हे दे रहा हूँ!
मैंने इस प्रुधोंवादी योजना का क्या जबाब दिया था?
पहला: कि भूमि-किराया का राज्यसत्ता को अन्तरण भूमि पर व्यक्तिगर सम्पत्ति का अन्त है।
दूसरा: कि किराये के घर की पापमुक्ति एवं अभी तक जो किराएदार था उसके नाम घर की सम्पत्ति का अन्तरण से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर कोई असर नहीं पड़ता है।
तीसरा: कि बड़े उद्योगों एवं शहरों के मौजूदा विकास के परिप्रेक्ष्य में यह प्रस्ताव उतना ही निरर्थक है जितना प्रतिक्रियावादी है, और हर एक व्यक्ति को उसके घर के व्यक्तिगत मालिकाने की व्यवस्था की पुन: शुरुआत, पीछे की ओर जाता हुआ एक कदम होगा।
चौथा: कि पूंजी पर व्याज की दर में बाध्यकर कमी किसी भी तरह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर हमला नहीं करता है103; और जैसा कि सूदखोरी के कानून साबित करते हैं, यह उपाय जितना पुराना है उतना ही असम्भव है।
पाँचवाँ: कि पूंजी पर व्याज का अन्त किसी भी तरह घरों के लिये किराये के भुगतान का अन्त नहीं करता है।
मुलबर्गर अब दूसरा एवं चौथा बिन्दु मान चुके हैं। बाकी बिन्दुओं पर वह कोई भी जबाब नहीं देते। जबकि ये ही वे बिन्दु हैं जिन पर पूरा वाद-विवाद केन्द्रित है। मुलबर्गर का जबाब, खण्डन नहीं है। सावधानी से यह जबाब सभी आर्थिक बिन्दुओं को टाल जाता है, जबकि वे बिन्दु ही निर्णायक हैं। यह बस एक व्यक्तिगत शिकायत है। उदाहरण के तौर पर, जब मैं पहले से, अन्य प्रश्नों, जैसे राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण एवं साख पर उनके घोषित समाधानों को जान जाता हूँ और बोलता हूँ कि मुलबर्गर का समाधान आवास के प्रश्न की तरह ही सभी जगहों पर एक जैसा होगा – व्याज का अन्त, व्याज के भुगतान को पूंजीगत रकम पर किश्त के भुगतान में रुपांतरण और नि:शुल्क साख – वह शिकायत करते हैं। तब भी, मैं बाजी रखने को तैयार हूँ कि अगर उपरोक्त विषयों पर मुलबर्गर के आलेख प्रकाशित हों तो उनकी मूलभूत सामग्री प्रुधों के आइडिये जेनराले से मेल खायेंगे – साख, पृष्ठ 182 के साथ, राज्यसत्ता के ॠण, पृष्ठ 186 के साथ, निजी ॠण, पृष्ठ 196 के साथ – ठीक उतना ही मेल खायेंगे जितना आवास के प्रश्न पर उनके आलेख, प्रुधों की उसी किताब के मेरे द्वारा उद्धृत अंशों से मेल खाये।
मुलबर्गर इस अवसर का इस्तेमाल करते हुये मुझे सूचित करते हैं कि कर-निर्धारण, राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण एवं साख जैसे सवाल, जिनके साथ अब सामुदायिक स्वशासन भी जुड़ गया है, किसानों के लिये एवं गाँवोँ में प्रचार की दृष्टि से सर्वाधिक महर्वपूर्ण सवाल हैं। काफी हद तक मैं सहमत हूँ लेकिन, 1) अभी तक किसानों के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई है और 2) इन सभी समस्याओं का प्रुधोंकृत “समाधान” आर्थिक तौर पर उतना ही निरर्थक है और उतना ही मूलभूत तौर पर पूंजीवादी जितना है आवास की समस्या का उनका समाधान। मुलबर्गर के इस सुझाव के विरुद्ध, कि मैं किसानों को आन्दोलन में लाने की आवश्यकता को समझने में असफल हूँ मुझे अपनी सफाई देने की शायद ही जरूरत है। वैसे, मैं उन्हे इस काम के लिये प्रुधोंवादी नीमहकीमी की अनुशंसा करने को नि:सन्देह नादानी समझूंगा। जर्मनी में अभी भी काफी बड़ी भू-सम्पत्तियाँ मौजूद हैं। प्रुधों के सिद्धांत के अनुसार इन सारी सम्पत्तियों को छोटी किसानी के खेतों में बाँट दिया जाना चाहिये। यह प्रस्ताव, वैज्ञानिक कृषि की वर्तमान स्थिति में तथा फ्रांस एवं पश्चिम जर्मनी में किये गये छोटे भू-आबंटनों के अनुभव के बाद, निश्चय ही प्रतिक्रियावादी है। बल्कि, बड़ी जमीन वाले जायदाद जो अभी भी मौजूद हैं, बड़े पैमाने पर खेती चलाने के स्वागतयोग्य आधार होंगे। बड़े पैमाने पर खेती, खेती की एकमात्र पद्धति है जो आधुनिक सुविधाओं, यंत्रसमूहों आदि का इस्तेमाल, सहयोगी श्रमिकों के द्वारा कर सकता है – और इस तरह छोटे किसानों को, सहयोगिता के माध्यम से बड़े पैमाने पर काम के लाभों को समझा सकता है। डेन्मार्क के समाजवादी, जो इस मामले में सबसे आगे हैं, बहुत पहले इस पहलु को जान गये थे।104
उतना ही गैरजरूरी है मेरे लिये इस सुझाव के खिलाफ अपना बचाव करना कि मैं श्रमिकों की मौजूदा जघन्य आवासीय स्थिति को “एक तुच्छ ब्योरा” मानता हूँ। जहाँ तक मैं जानता हूँ, मैंने ही सबसे पहले जर्मन में इन स्थितियों के शास्त्रीय रूप – जो इंग्लैंड में मौजूद था - का बयान किया था। इसलिये नहीं कि, जैसा कि मुलबर्गर राय देते हैं, वे “मेरे न्याय के बोध का अनादर करते थे”। जो भी उन सारे तथ्यों पर पुस्तकें लिखने पर अड़ा है जो उसके न्याय के बोध का अनादर कर रहे हैं, उसे बहुत कुछ करने को मिलेगा। लेकिन, जैसा कि मेरे पुस्तक105 के आमुख में पढ़ा जा सकता है, मैने, आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों के द्वारा सृजित सामाजिक स्थितियों का वर्णन करते हुये श्रमिकों की आवासीय स्थितियों का बयान जर्मन समाजवाद को तथ्यात्मक आधार देने के लिये किया, क्योंकि जर्मन समाजवाद उस समय जागृत हो रहा था और खाली मुहावरों में खुद को खर्च कर रहा था। खैर, मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि ज्यादा महत्वपूर्ण भोजन के प्रश्न के ब्योरों में खुद को नियोजित करने से अधिक आवास के प्रश्न के समाधान की कोशिश की जाय। अगर मैं साबित कर सकूँ कि हमारे आधुनिक समाज का उत्पादन उस समाज के सभी सदस्यों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के लिये यथेष्ट है, और पर्याप्त घर मौजूद हैं जहाँ तत्काल श्रमजीवी जनता को खुला और स्वस्थ जीने लायक आवास मुहैया कराया जा सकता है, तो मैं संतुष्ट हो जाउंगा। भविष्य का समाज भोजन एवं आवास के वितरण को किस तरह संगठित करेगा इस बारे में अटकलें सीधे आदर्शलोक की ओर ले जायेगा। अधिक से अधिक, आज तक की सभी उत्पादन प्रणालियों की बुनियादी शर्तों की हमारी समझ से हम इतना बता सकते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पतन के बाद कुछ रूपों में स्वायत्तीकरण, जो आज तक समाज में मौजूद था, असम्भव हो जायेगा। यहाँ तक कि संक्रमणकालीन कदम भी हर जगह, उस पल मौजूद सम्बन्धों के अनुसार ही होंगे। छोटे भू-सम्पत्ति वाले देशों में वे कदम, बड़े भू-सम्पत्ति वाले देशों से काफी हद तक अलग होंगे, आदि। मुलबर्गर खुद हमें किसी दूसरे से बेहतर दिखाते हैं कि अगर कोई आवास के प्रश्न जैसे तथाकथित व्यवहारिक समस्याओं के अलग अलग समाधान खोजने का प्रयास करता है, तो वह कहाँ पहुँचता है। उन्होने पहले 28 पृष्ठ इसकी व्याख्या106 के लिये खर्च किये कि “आवास के प्रश्न के समाधान का पूरा विषय वस्तु पापमुक्ति शब्द में निहित है”, और जब दबाव में आये तो शर्मिन्दगी में हकलाने लगे कि वास्तव में यह संदिग्ध है कि यथार्थ में घरों का दखल लेने के बाद “श्रमजीवी जनता पापमुक्ति की पूजा” स्वत्वहरण के अन्य रूपों से पहले “करेंगे”।107
मुलबर्गर मांग करते हैं कि हमे व्यवहारिक होने चाहिये, कि “जब हम “वास्तविक व्यवहारिक सम्बन्धों के मुखातिब हों”, हमें “सिर्फ मृत एवं अमूर्त सुत्रों के साथ आगे आना” नहीं चाहिये, कि हमें “अमूर्त समाजवाद से आगे जाना” चाहिये “और समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आना” चाहिये। अगर मुलबर्गर खुद यह किये होते तो शायद आन्दोलन के लिये बड़ा काम किये होते। समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आने की ओर पहला कदम निश्चित तौर पर यही है कि सीखा जाय वे हैं क्या। मौजूदा आर्थिक अन्तर्सम्पर्कों के अनुसार उनकी जाँच की जाय। लेकिन हमें मुलबर्गर के आलेखों में क्या मिलते हैं? दो पूरे वाक्य, इस तरह:
1॰ “पूंजीपति के साथ मजदूर का सम्बन्ध जिस जगह पर है, मकान-मालिक के साथ किरायेदार का सम्बन्ध भी उसी जगह पर है।” [पृष्ठ 13]
मैंने पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 6 में साबित किया है कि यह बात पूरी तरह गलत है108 और मुलबर्गर के पास प्रत्युत्तर के लिये एक शब्द नहीं है।
2॰ “खैर, जिस सांड को” (सामाजिक सुधार में) “उसके सिंग से पकड़ना चाहिये वह है पूंजी की उत्पादकता, जैसा कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के उदारवादी विद्वतसमाज कहते हैं, एक ऐसी चीज जो वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, लेकिन अपने प्रतीयमान अस्तित्व में, आज के समाज पर बोझ बनी हुई तमाम असमानताओं को ढँकने के चादर का काम करती है।”109
तो वह सांड जिसे सींग से पकड़ना होगा “वास्तव में” अस्तित्व में “नहीं है”, तो इसके कोई “सींग” भी नहीं हैं। सांड दुष्ट नहीं है बल्कि उसका प्रतीयमान अस्तित्व दुष्ट है। इसके बावजूद, “(पूंजी की) तथाकथित उत्पादकता”, “जादू से घर और शहर खड़ा करने में सक्षम है” जिनका अस्तित्व और जो कुछ भी हो, प्रतीयमान नहीं है। (पृष्ठ 12) और एक आदमी जो, जबकि मार्क्स की पूंजी से “वह परिचित है”, इतनी बुरी तरह की भ्रांतियों में पूंजी और श्रम के सम्बन्ध पर बड़बड़ाते रहता है, जर्मन श्रमिकों को नया और बेहतर रास्ता दिखाने का जिम्मा लेता है और खुद को “उस्ताद निर्माता” के रूप में प्रस्तुत करता है जो
“भविष्य के समाज के स्थापत्यात्मक ढाँचे के बारे में, कम से कम उसके मुख्य रूपरेखाओं में स्पष्ट है”! [पृष्ठ 13]
पूंजी में मार्क्स जिस करीब तक “समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों तक” पहुँचे हैं, और कोई वहाँ तक पहुँच नहीं पाया है। पचीस साल वह उन सम्बन्धों को विभिन्न कोणों से जाँच करते हुये बिताये और पूरे ग्रंथ में, उनकी आलोचना के परिणामों में तथाकथित समाधानों के भी अंकुर मौजूद हैं – जहाँ तक उन्हे देख पाना आज सम्भव है। लेकिन वह मुलबर्गर के लिये पर्याप्त नहीं है। वह सब अमूर्त समाजवाद है, मृत एवं अमूर्त सुत्र। “समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों” का अध्ययन करने के बजाय, मित्र मुलबर्गर प्रुधों के कुछेक खण्डों को पढ़कर सन्तुष्ट हो जाते हैं। प्रुधों के वे खण्ड उन्हे समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। विपरीत, उन्हे सभी सामाजिक बुराईयों के बहुत निर्दिष्ट ठोस चमत्कारी इलाज बताते हैं। वह तब सामाजिक मुक्ति के इस बनी-बनायी योजना को, इस प्रुधोंवादी प्रणाली को, जर्मन श्रमिकों को इस बहाने पेश करते हैं कि वहप्रणालियों को अलविदा कहना चाहते हैं, जबकि मैं “विपरीत रास्ता चुनता हूँ”! इसे समझने के लिये मुझे मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूँ और मुलबर्गर बहरा, और इसीलिये हमारे बीच किसी भी किस्म का समझौता बिल्कुल असम्भव है।
लेकिन बहुत हुआ। अगर यह बहस और किसी काम का नहीं तो कम से कम इसने सबूत पेश किया कि इन स्वघोषित “व्यवहारिक” समाजवादियों के व्यवहार में वास्तविक तौर पर है क्या। सारी सामाजिक बुराईयों के अन्त के ये व्यवहारिक प्रस्ताव, ये विश्वव्यापी सामाजिक राम-वाण की खोज, हमेशा से और हर जगह पर उन सम्प्रदायों के संस्थापकों के काम रहे हैं जो सर्वहारा आन्दोलन के शैशव में आविर्भूत होते रहे हैं। प्रुधों उन्हीं में आते हैं। सर्वहारा का विकास जल्द ही इन शिशु-वस्त्रों को फेंक देता है और श्रमिक वर्ग में ही इस एहसास को जन्म देता है कि अग्रिम मनगढ़ंत और विश्वव्यापी प्रयोग के उपयुक्त इन “व्यवहारिक समाधानों” से कम व्यवहारिक कुछ है ही नहीं। सर्वहारा को यह एहसास हो जाता है कि व्यवहारिक समाजवाद है, विभिन्न पहलुओं से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का सही ज्ञान।  एक श्रमिक वर्ग जो इस मामले में वस्तु-स्थिति को जानता है, कभी सन्देह में नहीं रहेगा कि कौन सी सामाजिक संस्थायें इसके मुख्य हमलों के लक्ष्य होने चाहिये, और किस तरीके से इन हमलों को निष्पादित किया जाय।   

समाप्त

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102- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्रायजे, पृ॰ 8 – स॰र॰सं।

103- डेर वोकस्टाट में “पूंजीवादी उत्पादन” है। - स॰र॰स॰
104- एफ॰ एंगेल्स, “कृषि के सवाल पर अन्तरराष्ट्रीय के डैनिश सदस्यों की समझ” (देखें यह खण्ड, पृ॰57-58) – स॰र॰स॰
105- एफ॰ एंगेल्स, इंग्लैंड में श्रमिक-वर्ग की स्थिति (देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 302-04) - स॰र॰स॰
106- डेर वोकस्टाट में है “विशद में व्याख्या के लिये” - स॰र॰स॰
107- देखें यह खण्ड, पृ॰ 385 - स॰र॰स॰
108- वही, पृ॰ 320 - स॰र॰स॰
109- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्स्फ्राज, पृ॰ 7 (तुलना करें यह खण्ड, पृ॰ 331) - स॰र॰स॰

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मई 1872 – जनवरी 1873 के दौरान लिखा गया

पहली बार डेर वोकस्टाट के अंक 51, 52, 53, 103 एवं 104 - जून 26 एवं 29, जुलाई 3, दिसम्बर 25 एवं 28 1872 तथा अंक 2, 3, 21, 13, 15 एवं 16 - जनवरी 4 एवं 8, फरवरी 8, 12, 19 एवं 22, 1873 में प्रकाशित हुआ और फिर 1872-73 में ही लाइपजिग से तीन अलग मुद्रणों में प्रकाशित हुआ।

सन 1887 के संस्करण के अनुसार मुद्रित तथा अखबार के पाठ के साथ मिलान किया गया
         
       
      

Saturday, November 23, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (3) फ्रेडरिक एंगेल्स


III
मुलबर्गर आगे शिकायत करते हैं कि उनके “दृढ़” कथन,
“हमारी प्रशंसित सदी की पूरी संस्कृति का, इस तथ्य से अधिक भयानक उपहास कुछ हो नहीं सकता कि बड़े शहरों में आबादी के 90 प्रतिशत या उससे अधिक के पास कोई जगह नहीं है जिसे वे अपनी कह सकें”96  
को मैंने प्रतिक्रियावादी विलाप कहा। स्पष्ट करना जरूरी है: अगर मुलबर्गर, जैसा कि वह छल करते हैं, खुद को “वर्तमान समय की भयावहताओं” के वर्णन तक सीमित रखते तो निश्चित ही मुझे “उनके या उनके शालीन शब्दों” के बारे में एक भी बुरा शब्द कहना नहीं चाहिये होता। लेकिन, सच्चाई यही है कि वह कुछ अलग ही करते हैं। वह इन “भयावहताओं” का वर्णन इस तथ्य के परिणामस्वरूप करते हैं कि श्रमिकों के पास “कोई जगह नहीं है जिसे वे अपनी कहें”। कोई इस कारण से “वर्तमान समय की भयावहताओं” का वर्णन करे कि आवासों पर श्रमिकों की मिल्कियत खत्म हो चुकी है या इस कारण से, जैसा कि जुंकर करते हैं, कि सामन्तवाद एवं संघ [शिल्पी या कारिगरों का – अनु॰] खत्म हो गये हैं, दोनों ही स्थिति में इससे प्रतिक्रियावादी विलाप के अलावा - अनिवार्य के, ऐतिहासिक तौर पर आवश्यक के आने पर शोक के गीत के अलावा कुछ भी पैदा नहीं हो सकता है। इसका प्रतिक्रियावादी चरित्र ठीक इस तथ्य में है कि मुलबर्गर श्रमिकों के लिये व्यक्तिगत गृह-स्वामित्व पुनर्स्थापित करना चाहते हैं; यह एक ऐसा मामला है जिसे इतिहास ने काफी पहले खत्म कर दिया है। दोबारा उन सभी को अपने घरों के मालिक बनाने के अलावे मुलबर्गर श्रमिकों की मुक्ति का कोई दूसरा मार्ग नहीं सोच पाते।
और आगे:
“मैं दृढ़ता के साथ घोषणा करता हूँ कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के खिलाफ वास्तविक संघर्ष में उतरना पड़ेगा; इसके बदलाव से ही आवासीय स्थितियों की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है। एंगेल्स यह सब देख ही नहीं पाते … मैं मानता हूँ कि सामाजिक प्रश्न के पूर्ण समाधान होने के बाद ही किराये के आवासों की समाप्ति की ओर अग्रसर होने में हम सक्षम होंगे।”97
दुर्भाग्य से, अभी भी मैं इन सभी बातों का कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ। जिनका नाम मैंने कभी नहीं सुना, वैसे किसी व्यक्ति ने अपने मन के गुप्त तहों में क्या मान रखा है उसे जान पाना निश्चित ही मेरे लिये असम्भव है। मैं सिर्फ मुलबर्गर के छपे हुये आलेखों में सीमित रह सकता हूँ। और उनमें मुझे आज भी दिखता है कि (पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 15 एवं 16) मुलबर्गर, किराये के आवासों के खात्मे की ओर बढ़ने के लिये, सिवाय किराये के आवासों के, किसी भी दूसरी बात का पूर्वानुमान नहीं करते। सिर्फ पृष्ठ 17 में वह “पूंजी की उत्पादकता को सिंग से” पकड़ते हैं, जिस पर हम बाद में लौट आयेंगे। अपने उत्तर में भी वह अपनी बात की पुष्टि करते हैं जब वह कहते हैं:
“बल्कि यह दिखाने का सवाल था कि किस तरह मौजूदा स्थितियों से आवास के प्रश्न में पूरा बदलाव लाया जा सकता है।”
मौजूदा स्थिति से और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बदलाव (पढ़ें: अन्त) से निश्चय ही दो बिल्कुल विपरीत बातें हैं।
श्रमिकों को उनका अपना आवास प्राप्त कराने के लिये एम॰डॉलफस एवं अन्य कारखानादारों के परोपकारी प्रयासों को जब मैं, प्रुधोंवादी परिकल्पनाओं का एकमात्र सम्भव व्यवहारिक सम्पादन मानता हूँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुलबर्गर शिकायत करते हैं। अगर वह समझ जाते कि समाज की मुक्ति के लिये प्रुधों की योजना पूरी तरह पूंजीवादी समाज पर आधारित एक कल्पकथा है, तो वह स्वाभाविक तौर पर इस पर विश्वास नहीं करते। मैंने कभी भी उनके अच्छे इरादों पर सवाल नहीं उठाया। लेकिन फिर क्यों वह डा॰ रेशॉअर98 का इस बात के लिये तारीफ करते हैं कि डा॰ रेशॉअर ने वियेना सिटी काउंसिल को डॉलफस की परिकल्पनाओं का नकल करने का प्रस्ताव दिया?
मुलबर्गर आगे चल कर घोषणा करते हैं:
“जहाँ तक खास कर शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का सवाल है, इसका अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है।… सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने का नहीं, उन राजनीतिक एवं सामाजिक रूपों को ढूँढ़ने का है जहाँ वह प्रतिपक्षता हानिरहित होगी, बल्कि यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर संतुलन की उम्मीद करना सम्भव होगा।”
तो, शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता की समाप्ति आदर्शलोकीय है क्योंकि यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। चलिये, इस तर्क को हम आधुनिक समाज की दूसरी विषमताओं पर लागू करें और देखें कि हम कहाँ पहुँचते हैं। उदाहरण के तौर पर, “जहाँ तक खास तौर पर” पूंजीपतियों एवं मजदूरों “के बीच प्रतिपक्षता का सवाल है, इसका अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने का नहीं, उन राजनीतिक एवं सामाजिक रूपों को ढूंढ़ने का है जिसमें यह हानिरहित होगी, बल्कि यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर संतुलन की उम्मीद करना सम्भव होगा।”
और इसके साथ हम फिर शुल्ज़-डेलिश के पास पहुँच गये।
शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का अन्त, पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त से न तो ज्यादा और न कम आदर्शलोकीय है। दिन प्रति दिन यह, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का अधिकाधिक व्यवहारिक मांग बनता जा रहा है। सबसे ज्यादा ऊर्जा के साथ लीबिग ने, कृषि के रसायनशास्त्र पर अपनी रचनाओं में इस मांग को उठाया है। उनकी पहली मांग हमेशा से रही है कि आदमी जमीन से जितना प्राप्त करता है उतना जमीन को वापस करे; इस मांग को प्रस्तुत करते हुये वह साबित करते हैं कि शहरों की, खास कर बड़े शहरों की मौजूदगी इसे रोकता है।99 जब कोई गौर करता है कि लन्दन में, सैक्सनी के पूरे राजत्व से अधिक मात्रा में उत्पन्न खाद प्रति दिन भारी रकम के खर्च पर समन्दर में उड़ेल दिया जाता है और कितने भारी भरकम ढाँचे जरूरी होते हैं इस खाद को पूरे लन्दन में जहर फैलाने से रोकने के लिये, तब शहर और गाँव के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त के आदर्शलोक को उल्लेखनीय व्यवहारिक आधार मिल जाता है। यहाँ तक कि तुलनात्मक तौर पर महत्वहीन बर्लिन का भी कम से कम तीस वर्षों से, अपनी ही गंदगी के दूषित गंध से दम घुट रहा है। दूसरी ओर, प्रुधों की तरह, किसानों को ज्यों का त्यों रखते हुये वर्तमान पूंजीवादी समाज में उथल-पुथल चाहना पूर्णत: आदर्शलोकीय है। अगर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त हो जाय तो पूरे देश में जहाँ तक सम्भव आबादी का समरूप वितरण, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के बीच नजदीकी सम्पर्क एवं साथ ही, उसके चलते संचार के साधनों का आवश्यक होता विस्तार, ग्रामीण आबादी को उस अलगाव एवं जड़ता से मुक्त करेगा जिसमें वह हजारों वर्ष से लगभग एक ही तरह से निरर्थक जीवन जीती रही है। आदर्शलोकीय होने का मतलब यह मानना नहीं है कि अपनी ऐतिहासिक अतीत द्वारा गढ़ी गई जंजीरों से मानवता की मुक्ति तभी पूरी होगी जब शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का अन्त हो जायेगा; आदर्शलोक तभी शुरू होता है जब कोई “मौजूदा स्थितिओं से” उस रूप का नुस्खा बताने की जोखिम उठाता है जिसमें आज के समाज की यह या दूसरी कोई प्रतिपक्षता का हल हो जायेगा। और मुलबर्गर, आवास के प्रश्न के समाधान के लिये प्रुधोंवादी सुत्र को अपना कर यही करते हैं।
आगे मुलबर्गर शिकायत करते हैं कि मैंने उन्हे एक हद तक “पूंजी और व्याज पर प्रुधों के विकट दृष्टिकोण” के लिये सह-जिम्मेदार ठहराया है, और घोषणा करते हैं:
“उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली को मैं एक साधित स्थिति के तौर पर पूर्वानुमान कर लेता हूँ, व्याज की दर को नियन्त्रित करता संक्रमणकालीन कानून उत्पादन के सम्बन्धों से नहीं बल्कि सामाजिक कारोबार, परिचालन के सम्बन्धों से निपटता है … उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली, या जैसा कि जर्मन विद्वत-समाज अधिक सटीक ढंग से कहते हैं, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त निस्सन्देह व्याज का अन्त करने वाला किसी संक्रमणकालीन कानून के परिणामस्वरूप नहीं होता है, जैसा एंगेल्स मुझसे कहलवाना चाहते हैं, बल्कि श्रमिक जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती, पुरे उद्योग की जब्ती के परिणामस्वरूप होता है। वैसा घटित हो जाने पर श्रमजीवी जन अविलम्ब बेदखली के बजाय पापमुक्ति की पूजा” (!) “करेंगे की नहीं, इसका फैसला न तो मैं कर सकता हूँ और न एंगेल्स।”
मैं अचरज में अपनी आँखें मलता हूँ। मैं मुलबर्गर के अन्वेषण को शुरु से अन्त तक फिर से पूरा पढ़ता हूँ उस अंश को ढूंढ़ने के लिये जिसमें वह कहते हैं कि किराये के घरों से उनके द्वारा सुझाई गई पापमुक्ति, “श्रमिक जनता द्वारा श्रम के औजारों की वास्तविक जब्ती, पूरे उद्योग की जब्ती” को एक साधित स्थिति के तौर पर पूर्वानुमान कर लेती है। लेकिन वैसा कोई अंश ढूंढ़ पाने में मैं अक्षम होता हूँ। वैसा कोई अंश है ही नहीं। कहीं भी “वास्तविक जब्ती” का जिक्र नहीं है, लेकिन पृष्ठ 17 पर निम्नलिखित अंश है:
“उदाहरण के तौर पर अब मान लिया जाय कि एक संक्रमणकालीन कानून के द्वारा जो सारे प्रकार की पूंजियों व्याज की दर एक प्रतिशत पर स्थिर कर दे, पूंजी की उत्पादकता से वास्तविक तौर पर निर्णायक टक्कर लिया गया [मुहावरा ‘सींग से पकड़ा गया’ – अनु॰] - जैसा कि होगा ही देर-सवेर। लेकिन ध्यान रहे, इस स्थिरिकरण में उस एक प्रतिशत को भी ज्यादा से ज्यादा शून्य तक ले जाने की प्रवृत्ति रहेगी। … सभी दूसरे उत्पादों की तरह, आवास और घरों को भी स्वाभाविक तौर पर इस कानून के दायरे में शामिल किया जायेगा। … इसलिये, हम पाते हैं कि किराये के घरों की पापमुक्ति भी पूंजी की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक नतीजा है।100
इस तरह, मुलबर्गर के हाल की पल्टी के विपरीत, यहाँ सादे शब्दों में कहा गया है कि श्रम की उत्पादकता – इस भ्रामक मुहावरे से उनका स्वीकृत अर्थ है पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली – को वास्तव में व्याज की समाप्ति करने वाले एक कानून के द्वारा “सींग से पकड़ा गया” है और ठीक उसी कानून के फलस्वरूप, “पूंजी की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक परिणाम होता है किराये के घरों की पापमुक्ति”। बिल्कुल नहीं, अब मुलबर्गर कहते हैं। वह संक्रमणकालीन कानून “उत्पादन के सम्बन्धों पर नहीं, परिचालन के सम्बन्धों पर लागू होता है”। जैसा कि ग्येठे कहे होते101 “ज्ञानी और मूर्ख दोनों के लिये समान रहस्यमय” इस मूर्खतापूर्ण अन्तर्विरोध को देखते हुये मेरे लिये बस इतना ही मान लेना बचता है कि मैं दो अलग अलग और भिन्न मुलबर्गरों के मुखातिब हूँ जिनमें से एक सही ही शिकायत करता है कि मैंने “उनसे” वह बात “कहलवाने की कोशिश की” जो दूसरा छपवा देता है।
यह निश्चित ही सत्य है कि श्रमजीवी जनता न मुझे और न मुलबर्गर को पूछेगी कि वास्तविक जब्ती के समय वे “अविलम्ब बेदखली से ज्यादा जल्दी पापमुक्ति की पूजा” करेंगे या नहीं। सारी संभावनायें हैं कि वे “पूजा” ही करना नहीं चाहेंगे। जो भी हो, सिवाय (पृष्ठ 17 पर) मुलबर्गर के दावा के अलावे कि “आवास के प्रश्न के समाधान की पूरी सामग्री पापमुक्ति शब्द में निहित है”, श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती का कोई सवाल कभी था ही नहीं। अब अगर वह घोषणा करते हैं कि पापमुक्ति अत्यन्त सन्देहास्पद है, हम दोनों को और हमारे पाठकों को बेमतलब इतना परेशान करने की क्या जरूरत थी?
साथ ही, यह बता देना जरूरी है कि श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की “वास्तविक जब्ती”, पूरे उद्योग का दखल लिया जाना, प्रुधोंवादी “पापमुक्ति” के ठीक विपरीत है। दूसरे वाले मामले में व्यक्ति श्रमिक अपने घर का, किसानी के लिये खेत का, श्रम के औजारों का मालिक बनता है; पहले वाले मामले में आवासों, कारखानों एवं श्रम के औजारों पर श्रमजीवी जनता का सामूहिक मालिकाना रहता है, जिनका इस्तेमाल, कम से कम एक संक्रमणकाल में वे किसी भी व्यक्ति या संघ को, बिना लागत की क्षतिपूर्ति के, करने शायद ही दें। उसी तरह से, जमीन में सम्पत्ति की समाप्ति का मतलब भूमि-किराये की समाप्ति नहीं होगी बल्कि समाज के हाथों में जमीन का अन्तरन होगा, भले ही संशोधित रूप में हो। इसलिये, श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की जब्ती कहीं से भी किराये के सम्बन्धों को बने रहने से रोक नहीं देता।
सत्ता में आने पर सर्वहारा क्या बस जबर्दस्ती उत्पादन के औजारों, कच्चे मालों और जीवनधारण के साधनों को जब्त करेगा, क्या उनके लिये तत्काल क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगा या उन सम्पत्तियों को छोटे किश्तों में भुगतान कर छुड़ायेगा – यह सामान्यत:, कोई सवाल नहीं है। ऐसे सवाल का या और सभी सवालों का अग्रिम जबाब देने का प्रयास कल्पलोक का सृजन होगा और वह मैं दूसरों के लिये छोड़ देता हूँ।  
[क्रमश]


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96- देखें यह खण्ड, पृ॰ 323 – स॰र॰स॰
97- यहाँ और आगे एंगेल्स ए॰ मुलबर्गर कृत “जुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 से उद्धृत करते हैं – स॰र॰स॰
98- एच॰ रेशॉअर, डाय वोनांग्स्नोथ उन्ड इह्र शाडलिखेर एइन्फ़्लाब ऑफ डाय क्लेइंगेवेर्बेट्रेइबेन्डेन उन्ड लोह्नार्बेइटर [आवास का संकट एवं छोटे व्यवसाय के मालिकों तथा मजदूरों पर उसका हानिकारक प्रभाव – अनु॰], वियेना, 1871 - स॰र॰स॰
99- जस्टस वॉन लीबिग, डाय केमी इन इह्रेर अन्वेन्डुंग ऑफ एग्रिकल्टुर अन्ड फिसिओलोजी, [कृषि एवं शरीरविज्ञान में प्रयोग के लिये रसायनशास्त्र – अनु॰] भाग 1, ब्रुन्सविक, 1862, पृ॰ 128-29, - स॰र॰स॰
100- ए॰मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्राज, (यह खण्ड देखें, पृ॰ 331) – स॰र॰स॰
101- तुलना करें, ग्येठे, फाउस्ट, भाग 1, दृश्य 6 (“हेक्सेनकुचे”) - स॰र॰स॰

Wednesday, November 20, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (2) फ्रेडरिक एंगेल्स


II
अब हम मुख्य बिन्दुओं तक पहुँचते हैं। मैंने मुलबर्गर के आलेखों के बारे में आरोप लगाया था कि ये प्रुधों के तरीके से आर्थिक सम्बन्धों को कानूनी शब्दावलियों में अनुदित कर उन्हे झुठला रहे हैं। इसके उदाहरणस्वरूप मैंने मुलबर्गर के निम्नलिखित वक्तव्य को चुना था:
“घर, एकबार बन जाने के बाद, सामाजिक श्रम के निश्चित अंश का शाश्वत कानूनी हक होता है, हालाँकि घर का वास्तविक मूल्य किराये के रूप में काफी पहले और पर्याप्त से अधिक, भुगतान किया जा चुका होता है। इसी लिये ऐसा होता है कि एक घर जो, उदाहरण के तौर पर पचास साल पहले बना था, इस पूरी अवधि में मूल लागत का दो, तीन, पाँच, दस और उससे भी अधिक गुणा किराये की रकम से हासिल कर चुका होता है।”82
अब मुलबर्गर निम्नलिखित शिकायत करते हैं:
“इस सरल, संयमित तथ्य वर्णन के कारण एंगेल्स मुझे समझाते हैं कि घर कैसे ‘कानूनी हक’ बन जाता है इसकी मुझे व्याख्या करनी चाहिये थी – जबकि यह मेरे कार्यभार की सीमाओं के बाहर की बात थी … विवरण एक बात है और व्याख्या दूसरी बात। जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होनी चाहिये, मैं आज के दिन के समाज को वर्णित कर रहा होता हूँ जिस में, यह यथार्थ है कि अधिकार की सारी अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं, लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है; यह एक तथ्य है जिसे एंगेल्स खुद भी स्वीकार करेंगे।”83
अभी फिलहाल हम उसी घर पर रहें जो बन चुका है। वह घर, एक बार किराये पर लगने के बाद, किराये के रूप में निर्माता को भूमि किराया, मरम्मत का खर्च, निवेशित निर्माण-पूंजी पर व्याज के अलावे उस पर मुनाफा भी देता है84। परिस्थिति के अनुसार, उत्तरोत्तर भुगतान किया गया वह किराया, मूल लागत का दो, तीन, पाँच या दस गुना भी हो सकता है। य्ह, मेरे मित्र मुलबर्गर, “तथ्य” का “सरल, संयमित वर्णन” है, एक आर्थिक तथ्य है। अब अगर हम जानना चाहते हों कि “कैसे यह होता है” कि यह होता है, हमें अपना परीक्षण आर्थिक क्षेत्र में संचालित करना पड़ेगा। अत:, थोड़ा करीब जाकर इस तथ्य को देखें ताकि आगे से एक बच्चा भी इसे गलत तरीके से न समझे। जैसा कि जानी हुई बात है, एक माल की बिक्री इस तथ्य में निहित है कि बेचने वाला उस माल का उपयोग मूल्य छोड़ता है एवं विनिमय मूल्य अपने पॉकेट में डालता है। मालों के उपयोग-मूल्य में, भिन्नता के अलग अलग पहलुओं के साथ साथ उपभोग में लगने वाले समय की भी भिन्नता होती है। पावरोटी के एक पिण्ड का एक दिन में उपभोग हो जाता है, एक पतलून एक साल में घिस जाता है और एक घर को जीर्ण होने में, अगर आप माने तो सौ साल लग जाता है। इसीलिये, टिकाऊ मालों के मामलों में, उनके उपयोग-मूल्य को खण्ड-खण्ड में और हर बार एक निश्चित अवधि के लिये बेचने की संभावना बनती है, यानि जिसे किराये पर लगाना कहा जाता है। फलस्वरूप, खण्ड-खण्ड में बिक्री में विनिमय-मूल्य की पावती धीरे धीरे होती है। अग्रिम लगाई गई पूंजी एवं उस पर उपार्जित मुनाफे की अविलम्ब अदायगी को त्यागने की क्षतिपूर्ति के रूप में बिक्रेता को बढ़ी हुई कीमत – व्याज - मिलती है जिसकी दर राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियमों द्वारा निर्धारित होती है, किसी मनमाने ढंग से कभी भी नहीं। सौ साल खत्म होने के बाद घर का पूरा उपयोग हो चुका होता है, वह घिस चुका होता है और रहने लायक नहीं रहता। तब, अगर हम घर के लिये चुकाये गये पूरा किराया में से निम्नलिखित घटायें: 1) भूमि-किराया - आलोच्य अवधि में अगर बृद्धि हुई हो तो उस बृद्धि के साथ - एवं 2) चलते मरम्मत के लिये खर्च की गई रकम, तो हम पायेंगे कि शेष औसतन निम्नलिखित चीजों का बना होता है: 1) घर पर मूलत: निवेश की गई निर्माण पूंजी, 2) उस पर मुनाफा, एवं 3) उत्तरोत्तर परिपक्व होते हुये पूंजी और मुनाफे पर व्याज।85 अब, यह सच है कि इस अवधि के बाद किरायेदार के पास कोई घर नहीं होता है, लेकिन मकानमालिक के पास भी कोई घर नहीं होता है। मकानमालिक के पास सिर्फ जमीन का वह टुकड़ा होता है (बशर्ते वह उसका अपना हो) और उस पर रखी मकान की सामग्रियाँ होती हैं जो अब मकान नहीं रहा। हालाँकि, इस बीच वह घर हो सकता है उसके “मूल लागत का पाँच गुना या दस गुना” वापस लाया होगा। लेकिन, हम देखेंगे कि यह एक मात्र भूमि-किराया में बृद्धि के कारण हुआ है। लन्दन जैसे शहरों में जहाँ जमीन का मालिक और मकान का मालिक अधिकांशत: दो अलग अलग व्यक्तियाँ होते हैं, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। तेजी से बढ़ रहे शहरों में ही भूमि-किराया की इतनी तीव्र बृद्धि होती है,86 खेती से जुड़े किसी गाँव में नहीं, जहाँ मकान वाली जमीन का भूमि-किराया व्यवहारिक तौर पर अपरिवर्तित रहता है। यह एक खुला तथ्य है कि भूमि-किराये में बृद्धि के अलावा, मकान का किराया मकानमालिक के लिये, निवेशित पूंजी (जिसमें मुनाफा शामिल है) पर सालाना औसतन सात प्रतिशत से अधिक नहीं पैदा करता है – और उसी रकम में से मरम्मत आदि के खर्च देने पड़ते हैं। संक्षेप में, किराया का समझौता माल का एक सामान्य विनिमय है जो सैद्धांतिक तौर पर श्रमिक के लिये, एक अपवाद - श्रमशक्ति की खरीद और बिक्री – को छोड़कर किसी भी दुसरे माल के विनिमय से अधिक या कम सम्बन्ध नहीं रखता है। व्यवहारिक तौर पर श्रमिक, किराया के समझौता का सामना, उन हजार पूंजीवादी धोखे के रूपों में से एक मान कर करता है, जिनका जिक्र मैं अलग पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 4 पर कर चुका हूँ।87 लेकिन, जैसा कि मैंने वहाँ साबित किया था, धोखे का यह रूप भी आर्थिक नियमन के अधीन होता है।
मुलबर्गर एक तरफ, किराया के समझौते को बिल्कुल “मनमानापन” मानते हैं (अलग पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 19) और जब मैं इसका विपरीत उन्हे साबित कर देता हूँ तब वह शिकायत करते हैं कि मैं उन्हे “सिर्फ वही चीजें” बता रहा हूँ “जो, उन्हे खेद है कि वह पहले से जानते थे”।
लेकिन आवास के किराये के बारे में किये गये सारे आर्थिक अनुसंधान हमें किराये के घरों के खात्मे को “क्रांतिकारी विचार के गर्भ से पैदा हुये सबसे अधिक फलदायी एवं भव्य आकांक्षाओं में से एक”88 बनाने में सक्षम नहीं कर पायेंगे। ऐसा करने को सक्षम होने के लिये हमें सामान्य तथ्य को संयमित अर्थशास्त्र से न्यायशास्त्र के, वास्तविक ही कहीं अधिक विचारधारात्मक क्षेत्र मे अनुदित करना होगा। “आवास पर” आवास-किराये का एक “शाश्वत कानूनी हक” होता है, और “इसी कारण से” आवास के मूल्य का दो, तीन, पाँच या दस गुना किराये के द्वारा चुका दिया जा सकता है। “कानूनी हक” हमें एक रत्ती भी इस बात की खोज करने में मदद नहीं करता है कि किस तरह वास्तव में “यह होता है”, और इसीलिये मैंने कहा था कि किस तरह वास्तव में “यह होता है” यह मुलबर्गर ढूंढ़ने में सक्षम हो सकते थे  - सिर्फ उन्हे जाँच करनी थी कि एक आवास किस तरह कानूनी हक बनता है। शासक वर्ग जिस कानूनी अभिव्यक्ति के द्वारा इस कानूनी हक की मंजूरी देता है उस पर झगड़ने के बजाय अगर हम आवास किराया के आर्थिक प्रकृति का परीक्षण करें, जैसा कि मैंने किया, हम खोज कर सकते थे कि कानूनी हक बनता किस तरह से है। -- कोई भी जो किराये की समाप्ति के लिये आर्थिक कदम उठाने का प्रस्ताव देता है, उसे निश्चित ही आवास-किराया के बारे में, इससे थोड़ा अधिक जानना होगा कि किराया “किरायेदार द्वारा पूंजी के शाश्वत हक को चुकाये गये भेंट का प्रतिनिधित्व करता है”।89 इस पर मुलबर्गर जबाब देते हैं, “वर्णन एक बात है और व्याख्या दूसरी बात।”
हमने इस तरह, घर को आवास-किराये के श्वाश्वत कानूनी हक में बदल दिया, हालाँकि यह कहीं से भी चिरस्थायी नहीं है। हम पाते हैं कि चाहे जैसे भी “यह आये”, इस कानूनी हक के कारण, घर अपने मूल मूल्य का कई गुना किराये के रूप में वापस लाता है। बातों को कानूनी मुहावरों में अनुदित कर हम अर्थनीति से इतनी दूर चले गये हैं कि अब हम इस परिघटना से आगे कुछ भी नहीं देख पाते हैं कि एक घर का उत्तरोत्तर कई गुना भुगतान थोक किराये के द्वारा हो जाता है। चुँकि हम कानूनी भाषा में सोच और बोल रहे हैं, हम इस परिघटना पर अधिकार को, न्याय को नापने वाली छड़ी का इस्तेमाल करते हैं और पाते हैं कि यह अन्याय है, यह “अधिकार पर क्रांति की अवधारणा” से मेल नहीं खाता है (जो भी इसका अर्थ हो) और इसलिये कानूनी हक सही नहीं है। हम यह भी पाते हैं कि यह बात व्याज-देने-वाली-पूंजी एवं पट्टे पर दी गई कृषि-भूमि पर भी लागू होती है, और अब हमारे पास इन सम्पत्तियों को सम्पत्ति के अन्य वर्गों से अलग करने और अपवादात्मक बर्ताव करने का बहाना है। यह बर्ताव इन मांगों में है: 1) मालिक को उसकी सम्पत्ति छोड़ने की सूचना किरायेदार को देने के अधिकार से, अपनी सम्पत्ति वापस मांगने के अधिकार से वंचित करना; 2) पट्टेदार, कर्जदार या किरायेदार को जो चीज अन्तरित की गई लेकिन जो उनकी नहीं हुई उसे मुफ्त इस्तेमाल करने देना; और 3) मालिक को एक लम्बी अवधि तक किश्तों में चुकाना बिना किसी व्याज के। और इसी के साथ हम इस पहलु पर प्रुधोंवादी “सिद्धांतों” को खाली कर चुके होते हैं। यही है प्रुधों का “सामाजिक विघटन”।      
प्रसंगवश, यह जाहिर है कि सुधार की पूरी योजना कहा जाय तो विशेष तौर पर टुटपूंजियों एवं छोटे किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये है क्योंकि ये योजनायें उनकी टुटपूंजिया एवं छोटे किसान के रूप में स्थिति को मजबूत बनाती है। इस तरह “टुटपूंजिया प्रुधों” जो मुलबर्गर के अनुसार एक पौराणिक पात्र हैं, अचानक यहाँ अत्यधिक मूर्त ऐतिहासिक अस्तित्व में आ जाते हैं।
मुलबर्गर आगे बढ़ते हैं:
“जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये, मैं आज के समाज का वर्णन इस रूप में कर रहा हूँ जहाँ, यह सच है कि सभी तरह के अधिकारों की अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है और इस बात को एंगेल्स खुद भी स्वीकारेंगे।”89
दुर्भाग्य से मैं मुलबर्गर पर यह एहसान करने की स्थिति में नहीं हूँ। मुलबर्गर मांग करते हैं कि समाज अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये और इस मांग को वर्णन कहते हैं। अगर कोई अदालत किसी ॠण की अदायगी का सम्मन के साथ एक कारिंदा को मेरे पास भेजे, तो, मुलबर्गर के मुताबिक, अदालत बस एक ऐसे आदमी के रूप में मेरा वर्णन कर रहा है जो अपना कर्ज नहीं चुकाता है, और कुछ नहीं! वर्णन एक चीज है और एक ढीठ मांग दूसरी चीज। और ठीक यहीं पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद एवं प्रुधों के बीच की मूलभूत भिन्नता है। मुलबर्गर जो भी कहें, किसी भी चीज का वास्तविक वर्णन उस चीज की व्याख्या भी होती है। आर्थिक सम्बन्ध जिस तरह के हैं और जिस तरह वे विकसित हो रहे हैं, हम [जर्मन वैज्ञानिक समाजवादी – अनु॰] उन दोनों प्रकार का वर्णन करते हैं, और हम सबूत पेश करते हैं – कठोर रूप से अर्थशास्त्रीय – कि उनका विकास साथ ही साथ, सामाजिक क्रांति के तत्वों का भी विकास है। एक तरफ एक वर्ग, सर्वहारा, का विकास जिसके जीवन की परिस्थितियाँ आवश्यक तौर पर उसे सामाजिक क्रांति के लिये प्रेरित करती है, दूसरी तरफ, उत्पादक शक्तियों का विकास, जो पूंजीवादी समाज के ढाँचे की सीमाओं से आगे बढ़ने के बाद, आवश्यक तौर पर उस ढाँचे को तोड़ देता है। साथ ही साथ वह, सामाजिक प्रगति के हित में एकबारगी के लिये वर्ग-भेदों को मिटाने का साधन मुहैया करता है। प्रुधों इसके विपरीत, मौजूदा समाज से यह मांग करते हैं कि यह खुद को, आर्थिक विकास के इसके अपने नियमों के अनुसार नहीं बल्कि न्याय के नीतिवचनों (“अधिकार की अवधारणा” वाला मुहावरा प्रुधों का नहीं बल्कि मुलबर्गर का है) के अनुसार बदल डाले। जहाँ हम साबित करते हैं, प्रुधों और उनके साथ मुलबर्गर, उपदेश देते हैं और विलाप करते हैं।
“क्रांति के अधिकार की अवधारणा” किस प्रकार की चीज है, इसका अनुमान करने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। यह सही है कि प्रुधों “उस क्रांति” की देवी जैसी कुछ बनाते हैं जो उनके “न्याय” की वाहिका एवं कार्यनिष्पादिका होती है। ऐसा करने में वह सन 1789-94 की पूंजीवादी क्रांति को आनेवाली सर्वहारा क्रांति के साथ मिला देने की अजीब सी गलती कर बैठते हैं। अपनी लगभग सभी रचनाओं में, खास कर सन 1848 के बाद से, वह ये गलती करते हैं। उदाहरण के तौर मैं सिर्फ एक उद्धरण दूंगा – आइडिए जेनेराले द ला रिवोल्युशन के सन 1868 के संस्करण का पृष्ठ 39 और 40। हालाँकि, चूंकि मुलबर्गर प्रुधों की सभी एवं सारी जिम्मेवारी अस्वीकार करते हैं, मेरे पास प्रुधों की रचनाओं से, “क्रांति के अधिकार की अवधारणा” की व्याख्या करने की अनुमति नहीं है, फलस्वरूप गहन अंधकार में हूँ।
मुलबर्गर आगे कहते हैं:
“लेकिन न मैं और न प्रुधों मौजूदा अन्यायपूर्ण परिस्थितियों की व्याख्या के लिये ‘श्वाश्वत न्याय’ के नाम से अपील करता हूँ, या इस न्याय के नाम अपील करके इन परिस्थितियों की बेहतरी की उम्मीद करता हूँ, जैसा कि एंगेल्स मेरे जुबान का हवाला देते हैं।”
मुलबर्गर जरूर अपने इस विचार पर भरोसा कर रहे होंगे कि “जर्मनी में प्रुधों सामान्यत: अज्ञात जैसे ही हैं”। उनकी सभी रचनाओं में प्रुधों अपने “न्याय” की छड़ी लिये हुये सारी सामाजिक, कानूनी, राजनीतिक एवं धार्मिक प्रस्तावों90 को नापते हैं, तथा वह जिसे “न्याय” कहते हैं उसके अनुरूप होने या न होने के अनुसार उन्हे या तो खारिज करते हैं या पहचानते हैं। कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स 91 तक यह न्याय “श्वाश्वत न्याय” कहलाता है। बाद में शाश्वत के बारे में कुछ और नहीं कहा जाता है लेकिन विचार का साररूप रह जाता है। उदाहरण के तौर पर, द ला दान्स ला रिवोल्युशन एत दान्स ल’इगलिसे [क्रांति एवं गिर्जा में न्याय पर – अनु॰] के सन 1858 संस्करण में निम्नलिखित अंश पूरे तीन खण्डों के उपदेश का कथ्य है (खण्ड 1, पृष्ठ 42):
“समाजों का आधारभूत, जैविक, नियंत्रक एवं संप्रभु सिद्धांत क्या है, वह सिद्धांत जो सभी दूसरों को खुद के अधीन कर लेता है, जो शासन करता है, सुरक्षा देता है, दमन करता है, सजा देता है और जरूरत पड़ने पर विद्रोही तत्वों को कुचल भी देता है? क्या वह धर्म है, या आदर्श या हित?… मेरी राय में वह न्याय का सिद्धांत है। -- न्याय क्या है? यह मानवता का खास सारवस्तु है। दुनिया की शुरूआत से यह क्या है? कुछ नहीं। -- इसे होना क्या चाहिये? सबकुछ।”
वह न्याय जो कि मानवता का खास सारवस्तु है, अगर शाश्वत न्याय नहीं तो और क्या है? वह न्याय जो जैविक, नियंत्रक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत है समाजों का, जो अभी तक खैर कुछ हुआ नहीं है लेकिन सबकुछ होना चाहिये – क्या है वह अगर सारे मानवीय मामलों को नापने की छड़ी नहीं है, अन्तिम पंच नहीं है जिसके पास सारे टकरावों में अपील करना होगा? और क्या मैं इसके अलावा और कुछ दावा किया था कि सारे आर्थिक सम्बन्धों को आर्थिक नियमों के बजाय इस बात से आँक कर कि वे इस शाश्वत न्याय की अवधारणा के अनुरूप हैं या नहीं, प्रुधों अपनी आर्थिक अज्ञानता एवं असहायता को ढक लेते हैं? और क्या भिन्नता है मुलबर्गर और प्रुधों में अगर मुलबर्गर मांग करते हैं कि “आधुनिक समाज के जीवन के इन सारे आदान-प्रदानों” में “कहा जाय तो अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त” होनी चाहिये; ये आदान-प्रदान “सभी जगहों पर न्याय की कठोर मांग के अनुरूप किये जाने चाहिये92? क्या मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ या मुलबर्गर लिखना नहीं जानते हैं?
मुलबर्गर आगे और कहते हैं:
“प्रुधों मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह जानते हैं कि मानव समाज में वास्तविक चालक प्रवृत्ति आर्थिक सम्बन्धों से बनती है न कि न्यायिक सम्बन्धों से; वह यह भी जानते हैं कि किसी जनता में मौजूद अधिकार की अवधारणायें सिर्फ आर्थिक सम्बन्धों के अभिव्यक्ति, चिन्ह एवं उपज है – विशेष कर उत्पादन के सम्बन्धों के … एक शब्द में, प्रुधों का अधिकार ऐतिहासिक तौर पर विकसित आर्थिक उपज है।”
अगर प्रुधों यह सब कुछ जानते हैं (मुलबर्गर द्वारा इस्तेमाल की गई सारी अस्पष्ट अभिव्यक्तियों को मैं रास्ता देने को एवं उपरोक्त बातों में निहित उनके अच्छे इरादों को ग्रहण करने को तैयार हूँ), अगर प्रुधों यह सब कुछ “मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह” जानते हैं तो झगड़े के लिये क्या बचता है? मुश्किल यह है प्रुधों की ज्ञान सम्बन्धित स्थिति कुछ भिन्न है। किसी समाज के आर्थिक सम्बन्ध सबसे पहले हितों के रूप में सामने आते हैं। अब, प्रुधों की प्रधान रचना से उद्धृत किये गये अंश में प्रुधों शब्द-संभार के साथ कहते हैं कि “समाजों का नियंत्रक, जैविक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत, वह सिद्धांत जो सभी अन्य को अपने अधीन करता है” हित नहीं बल्कि न्याय है। और यह बात वह अपनी सभी रचनाओं के निर्णायक अंशों में दोहराते हैं, जिसके चलते मुलबर्गर आगे बढ़ने से रुक नहीं पाते:
“आर्थिक अधिकार का विचार, जिसे सर्वाधिक गहनता के साथ प्रुधों द्वारा ला ग्वेरे एत ला पैक्स [युद्ध एवं शांति – अनु॰] में विकसित किया गया था, लासाल के उन मूलभूत विचारों के साथ पूरी तरह मेल खाता है जिन्हे लासाल ने सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था – अनु॰] के प्राक्कथन में उत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त किया गया है।”
ला ग्वेरे एत ला पैक्स शायद प्रुधों के अनेकों बालसुलभ रचनाओं में से सर्वाधिक बालसुलभ है। लेकिन मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि इस रचना को प्रुधों की, इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा की समझ के सबूत के रूप में पेश किया जायेगा। इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा सभी ऐतिहासिक घटनाओं एवं विचारों, पूरी राजनीति, दर्शन एवं धर्म की व्याख्या, आलोच्य ऐतिहासिक काल के जीवन की भौतिक, आर्थिक स्थितियों से करती है। उपरोक्त पुस्तक इतना कम भौतिकतावादी है कि युद्ध की अवधारणा का निर्माण भी, बनाने वाले विधाता की मदद के बिना कर नहीं पाता है”
“हालाँकि, जिसने हमारे लिये जीवन के इस रूप को चुना, उस बनाने वाले के अपने उद्देश्य थे।” [खण्ड II, पृष्ठ 100, 1869 संस्करण]
किस तरह के ऐतिहासिक ज्ञान पर यह पुस्तक आधारित था इसका निर्णय इस तथ्य से हो सकता है कि यह पुस्तक ‘स्वर्णयुग’ के ऐतिहासिक अस्तित्व पर विश्वास करता है:      
“प्रारंभ में, जब तक मानव जाति का फैलाव पृथ्वी की सतह पर विरल था, प्रकृति इसकी जरूरतों की आपुर्ति बिना कठिनाई के करती थी। यह स्वर्णयुग था, शांति और प्राचुर्य का युग।” (उपरोक्त, पृष्ठ 102)
पुस्तक की आर्थिक समझ सबसे घटिया मैल्थसवाद है:
“जब उत्पादन दोगुना हो जायेगा, जनसंख्या भी जल्द ही दोगुनी हो जायेगी” (पृष्ठ 106)93
तो फिर किस बात में है इस पुस्तक की भौतिकतावाद? इसी घोषणा में कि युद्ध का कारण हमेशा से रही है “कंगाली”, और आगे भी रहेगी (उदहरणस्वरूप पृष्ठ 143)। चाचा ब्रासिग भी उतने ही पहुँचे हुये भौतिकतावादी थे जब सन 1848 के भाषण में उन्होने शांत भाव ये भव्य शब्दों के उच्चारण किये थे: “भयंकर गरीबी का कारण है भयंकर गरीबी [फ्रांसिसी भाषा में – अनु॰]
लासाल रचित सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था] में न सिर्फ एक न्यायशास्त्री की, बल्कि एक पुराने हेगेलवादी की भी भ्रांतियों के छाप हैं। पृष्ठ VII में, लासाल प्रत्यक्षत: घोषित करते हैं कि “अर्थनीति में” भी “अर्जित अधिकारों की अवधारणा आगे की पूरी विकास की चालक शक्ति है” और वह साबित करने का प्रयास करते हैं (पृष्ठ XI) कि “अधिकार, खुद में से विकसित होता हुआ एक तार्किक जीव है” (यानि, आर्थिक पूर्वशर्तों से नहीं)। लासाल के लिये यह अधिकार को, आर्थिक सम्बन्धों से नीत होने का सवाल नहीं था बल्कि
“ईच्छा की उस अवधारणा से, कानून का दर्शन [अधिकार – रेख्ट्सफिलॉसोफी] बस जिसका विकास एवं प्रतिपादन है” (पृष्ठ XII)
पाने का सवाल था। तो, यहाँ यह पुस्तक कहाँ पहुँचता है? प्रुधों एवं लासाल में एक मात्र फर्क है कि लासाल वास्तविक न्यायशास्त्री एवं हेगेलवादी थे जबकि अन्य सभी मामलों की तरह न्यायशास्त्र में भी और दर्शनशास्त्र में भी प्रुधों मात्र एक पल्लवग्राही थे।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह आदमी प्रुधों, जो लगातार अन्तर्विरोधी बात कहने के लिये कुख्यात है, कभी-कभार एकाध उक्ति ऐसा कर लेता है कि देखने से लगता है गोया वह तथ्यों के आधार पर विचारों की व्याख्या कर रहा  हो। लेकिन जब उनके चिन्तन की बुनियादी प्रवृत्ति के विपरीत वैसी उक्तियाँ महत्वहीन हैं। साथ ही, वैसी उक्तियाँ जहाँ हैं भी, बेहद उलझी हुई एवं भीतर से विसंगतिपूर्ण हैं।
समाज के विकास के एक विशेष, बहुत आदिम चरण में, उत्पादन, वितरण एवं उत्पादों के विनिमय के, प्रतिदिन की आवर्ती क्रियाओं को एक सामान्य नियम के अन्तर्गत लाने की आवश्यकता उत्पन्न होती है ताकि व्यक्ति खुद को उत्पादन एवं विनिमय के सामान्य शर्तों के अधीन करे। यह नियम, जो पहले एक प्रथा होती है, जल्द ही कानून बन जाती है। कानून के साथ, आवश्यक तौर पर वे अंग पैदा होते हैं जिनका कार्यभार उस कानून का अनुपालन हो – लोक-प्राधिकरण, राज्यसत्ता। और अधिक सामाजिक विकास के साथ, कानून कमोबेश एक विस्तृत न्यायिक व्यवस्था में विकसित होती है। यह न्यायिक व्यवस्था जितनी जटिल होती जाती है, इसकी अभिव्यक्तियाँ, समाज के जीवन की सामान्य स्थितियों की अभिव्यक्तियों से उतनी ही अलग होती जाती हैं। यह एक स्वतंत्र तत्व प्रतीत होता है जो अपने अस्तित्व का औचित्य एवं आगे के विकास का प्रमाणीकरण आर्थिक सम्बन्धों से नीत नहीं बल्कि इसके अपने आन्तरिक बुनियादों से या, अगर आपको अच्छा लगे तो, “ईच्छा की अवधारणा” से नीत होता है। लोग भूल जाते हैं कि उनके अधिकार, जीवन की आर्थिक स्थितियों से नीत होते हैं, जिस तरह वे ये भी भूल गये हैं कि वे खुद पशुजगत से नीत हुये हैं। कानूनी व्यवस्था के एक जटिल, विस्तृत पूर्णता में विकसित होने के साथ साथ श्रम का एक नया सामाजिक विभाजन जरूरी हो जाता है; पेशेवर न्यायशास्त्रियों का एक प्रकार विकसित होता है और इन सब के साथ न्यायिक विज्ञान अस्तित्व में आता है। इसके आगे के विकास में यह विज्ञान विभिन्न जनसमूहों एवं विभिन्न कालखण्डों की न्यायिक व्यवस्थाओं की तुलना करता है, लेकिन उन जनसमूहों या कालखण्डों के अलग अलग आर्थिक सम्बन्धों के प्रतिफलन के रूप में नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्थाओं के रूप में जो अपना प्रमाणीकरण खुद में प्राप्त कर लेते हैं। यह तूलना, समान बिन्दुओं का अनुमान कर लेता है और, कमोबेश उन सभी न्यायिक व्यवस्थाओं में समान बिन्दुओं को संग्रह करते हुये एवं उन्हे नैसर्गिक अधिकार नाम देते हुये, न्यायशास्त्री उन्हे खोजते हैं। और, यह नापने के लिये कि नैसर्गिक अधिकार क्या है अथवा क्या नहीं है, जो छड़ी वे इस्तेमाल करते हैं वह अधिकार की ही सबसे अधिक अमूर्त अभिव्यक्ति होती है, जिसे न्याय कहा जाता है। फलस्वरूप इसके बाद, न्यायशास्त्रियों के लिये एवं उनलोगों के लिये जो न्यायशास्त्रियों के बोल को ही सबकुछ मानते हैं, अधिकार का विकास बस मानवीय परिस्थितियों को - जहाँ तक वे न्यायिक शब्दावलियों में अभिव्यक्त होती हैं - न्याय के, शाश्वत न्याय के आदर्श के करीब ले आने के प्रयास के अलावा कुछ भी नहीं होता है। और हमेशा यह न्याय मौजूदा आर्थिक सम्बन्धों की विचारधारात्मक, आदर्शकृत अभिव्यक्ति होती है – कभी रूढ़िवादी दृष्टिकोण से तो कभी क्रांतिकारी दृष्टिकोण से। यूनानी एवं रोमकों का न्याय दासप्रथा को न्यायपूर्ण मानता था; सन 1789 में पूंजीवादियों का न्याय सामन्तवाद का खात्मा इस आधार पर मांगा कि वह अन्यायपूर्ण था। प्रुशियाई जुंकर [सैन्यशाही अभिजात – अनु॰] के लिये जिलों की तुच्छ नियमावली भी शाश्वत न्याय का उल्लंघन है।94 इसलिये, शाश्वत न्याय की अवधारणा न सिर्फ स्थान और काल के साथ बल्कि सम्बन्धित लोगों के साथ भी बदलती जाती है, और यह अवधारणा उन चीजों में शामिल है जिनके बारे में मुलबर्गर सही कहते हैं कि “सभी थोड़ा अलग समझते हैं”। प्रतिदिन के जीवन में, विवेचित सम्बन्धों के मद्देनजर, सही, गलत, न्याय एवं अधिकार के बोध जैसी अभिव्यक्तियाँ, सामाजिक मुद्दों के प्रसंग में भी बिना किसी गलतफहमी के स्वीकार की जाती हैं। लेकिन, जैसा कि हमने देखा, आर्थिक सम्बन्धों के वैज्ञानिक अनुसंधान में वे अभिव्यक्तियाँ उतनी ही लाचार उलझनें पैदा करेंगी जितना, उदाहरण के तौर पर आधुनिक रसायनविज्ञान के अनुसंधान में पैदा होंगे अगर फ्लॉगिस्टन सिद्धांत की पारिभाषिक शब्दावली बनाये रखे जायें। उलझनें और भी बुरी होंगी अगर कोई, प्रुधों जैसा इस “न्याय” सरीखे सामाजिक फ्लॉगिस्टन में विश्वास करे, या कोई, मुलबर्गर जैसा निश्चय के साथ कहे कि फ्लॉगिस्टन सिद्धांत उतना ही सही है जितना ऑक्सिजेन का सिद्धांत।95


[क्रमश:]
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82- देखें यही खण्ड, पृ॰320-21 - स॰र॰स॰
83- ए॰ मूलबर्गर, “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 – स॰र॰स॰
84- डेर वोकस्टाट में वाक्य का यह भाग यूँ लिखा है: “एक बार किराये पर लग जाने के बाद घर इसके निर्माता को किराये के रूप में भूमि-किराया, मरम्मत का लागत, और निवेशित निर्माण पूंजी पर मुनाफा देता है”। - स॰र॰स॰
85- “और मुनाफे” यह दो शब्द एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़े गये।
86- डेर वोकस्टाट में है “तेजी से बढ़ते बड़े शहरों में” - स॰र॰स॰  
87- यहाँ फ्रेडरिक एंगेल्स रचित जुर वोनांग्सफ्राज, भाग 1, लाइपजिग, 1872 के अलग पुनर्मुद्रण की चर्चा है (देखें यही खण्ड, पृ॰ 318) - स॰र॰स॰
88- देखें यही खण्ड, पृ॰ 327 – स॰र॰स॰
89- यहाँ और आगे, एंगेल्स ए॰ मुलबर्गर के “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 से उद्धृत करते हैं - स॰र॰स॰
90- डेर वोकस्टाट में छपा है “सारी सामाजिक, कानूनी एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ, सारे सैद्धांतिक, दार्शनिक एवं धार्मिक प्रस्ताव” – स॰र॰स॰
91- संदर्भित है पी॰जे॰प्रुधों, सिस्तियेम द कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स, अ फिलॉसोफी द ला मिजेरे - स॰र॰स॰
92- तुलना करें, यह खण्ड, पृ॰ 322 - स॰र॰स॰
93- एंगेल्स की पांडुलिपियों में वे अंश बचे हैं जो उन्होने सन 1873 की शुरुआत में प्रुधों रचित ला ग्वेरे एत ला पैक्स (सन 1869 में प्रकाशित) से उद्धृत किया था। उस समय वह आवास के प्रश्न के भाग III की रचना में मग्न थे। एंगेल्स ने इन उद्धरणों के साथ अपनी टिप्पणियाँ भी जोड़ी थी जिनमें उन्होने प्रुधों के आदर्शवादी नजरिये पर, सामाजिक विकास के नियमों के बारे में प्रुधों की गलतफहमी पर एवं प्रुधों के धृष्ट निराधार रायों पर जोर डाला था। “हर जगह पर, सबूत और चिंतन के विकास के बदले धृष्टता है और सिर्फ दावा है,” एंगेल्स ने लिखा। सामाजिक गैरबराबरी के उद्भव की प्रुधों-कृत व्याख्या पर एंगेल्स ने कहा, “आर्थिक एवं ऐतिहासिक विकास के नियमों से नहीं, बल्कि युद्ध सहित अन्य सभी मामलों की तरह, मनोवैज्ञानिक कारणों से निगमित किया गया है …” एंगेल्स ने यह भी दर्शाया कि प्रुधों का जनसंख्या का सिद्धांत मैल्थस के उस झूठे मत के करीब है जो कहता है कि नैसर्गिक कारणों से जनसंख्या, जीवनधारण के साधनों की तुलना में अधिक गति से बढ़ती है, और, इसीलिये दलील देता है कि श्रमजीवी जनता के कष्ट की व्याख्या सामा्जिक स्थितियों से नहीं की जा सकती है।
94- प्रुशिया, ब्रन्डेनबर्ग, पमेरानिया, पोसेन, साइलेसिया एवं सैक्सनी के प्रदेशों के लिये जिला नियमावली दिसम्बर 1872 में गृहित हुये थे और प्रुशिया के प्रशासनिक सुधार के हिस्से थे। इस नियमावली ने जुंकरों के मौरूसी ताकत को खत्म कर दिया था एवं स्थानीय स्वशासन के कुछेक तत्वों को लागू किया था (समुदाय के मुखियों को चुने जाने के नियम बने एवं सरकारी अधिकारियों के अधीन जिला परिषद बनाये गये)। सुधार का लक्ष्य था, सामान्यत: जुंकरों के हित में जुंकर-पूंजीवादी राज्यसत्ता का अधिकतर केन्द्रीकरण और वास्तव में उस वर्ग के सभी व्यक्ति-प्रतिनिधियों की सुविधायें सुरक्षित रखे गये। उन्हे स्थानीय स्वशासन के सभी दफ्तरों में चुने जाने या नामित किये जाने या अपने आश्रितों को वहाँ बिठाने के अवसर दिये गये। फिर भी रूढ़िवादी कुलीनों एवं भूस्वामी अभिजातों ने, खास कर प्रुशियाई उच्च सदन में, सुधारों का जोरदार प्रतिरोध किया। विशद विवरण देखें एंगेल्स रचित “प्रुशिया का ‘संकट’ निबंध में (यही खण्ड, पृ॰ 400-05)
95- ऑक्सिजेन के आविष्कार के पहले रसायनशास्त्री, वायुमंडलीय हवा में पदार्थों के जलने की व्याख्या, फ्लॉगिस्टन नाम के एक विशेष दाह्य पदार्थ के अस्तित्व को मान कर करते थे जो दहन की प्रक्रिया के दौरान निकल जाता था। चूंकि उन्होने पाया कि दहन में साधारण पदार्थ का वजन जलने के उपरांत, जलने के पहले से अधिक हो जाता है, उन्होने घोषणा किया कि फ्लॉगिस्टन का वजन ॠणात्मक है और इसीलिये कोई पदार्थ उसके फ्लॉगिस्टन के साथ कम वजन का होता है जबकि उसके बिना अधिक। इस तरह ऑक्सिजन के सारे मुख्य गुण धीरे धीरे फ्लॉगिस्टन के नाम होते रहे, लेकिन उल्टे रूप में। यह आविष्कार कि जलने वाले पदार्थ का एक अन्य पदार्थ के साथ जुड़ना ही दहन होता हैं और उस ऑक्सिजन का आविष्कार मूल मान्यता को समाप्त कर दिया - लेकिन पुराने रसायनशास्त्रियों के दीर्घकालीन प्रतिरोध के उपरांत ही।