निम्नलिखित रचना उन तीन
आलेखों का पुनर्मुद्रण है जो मैंने सन 1872 में लाइपजिग के वोक्स्स्टाट के लिये
लिखा था। ठीक उसी समय फ्रांसिसी अरबों की राशि जर्मनी में झर रही थी1; सार्वजनिक
ॠणों की अदायगी कर दी गई, कोटले और सेनावास बनाये गये, हथियार एवं युद्ध सामग्रियों
का नवीकरण किया गया; उपलब्ध पूंजी जो चलनशील मुद्रा के परिमाण से कम नहीं थी, अचानक
बहुत ज्यादा बढ़ गई, और यह सब कुछ तब हुआ जब जर्मनी विश्व के मंच पर न सिर्फ “एकीकृत
साम्राज्य” के रूप में बल्कि एक विराट औद्योगिक देश के रूप में प्रवेश कर रहा था। इस
फ्रांसिसी अरबों की राशि ने नवोदित बड़े उद्योगों को एक ताकतवर चढ़ाव दिया। उन्ही बड़े
उद्योगों के कारण युद्ध के बाद, भ्रामक कल्पनाओं से भरपूर, समृद्धि का एक छोटा सा वक्त
आया और तुरन्त उसके बाद, सन 1873-74 में भयानक मंदी आई जिसके दौरान विश्व-बाजार में
जर्मनी ने, अपने बूते खड़ा रहने वाले औद्योगिक देश के तौर पर खुद को साबित किया।
वह कालखण्ड जिसमें एक
पुराना सभ्य देश, यंत्र-उत्पादन एवं छोटे उत्पादन से बड़े उद्योग में संक्रमण करता है,
वह भी ऐसा संक्रमण जो इतनी अनुकूल परिस्थितियों के द्वारा त्वरित कर दिया गया हो, साथ
ही साथ एवं मुख्य रूप से “आवास की कमी” का भी कालखण्ड होता है। एक तरफ, ग्रामीण श्रमिक
अचानक बहुतायत में उन बड़े शहरों में खींचे चले आते हैं जो औद्योगिक केन्द्र के रूप
में विकसित हो रहे होते हैं, दूसरी तरफ, इन पुराने शहरों के निर्माण में प्रयोग की
गई अवधारणायें अब बड़े उद्योगों एवं अनुरूप यातायात के लिये आवश्यक स्थितियों से मेल
नहीं खातीं। सड़कें चौड़ी की जाती हैं, नये रास्ते काट कर निकाले जाते हैं और रेलमार्ग
उन सड़कों के बीच होकर गुजरता है। ठीक उसी समय जब श्रमिक शहरों में हुजूम में आते रहते
हैं, श्रमिकों के आवास थोक भाव से गिराये जाते हैं। फलस्वरूप अचानक श्रमिकों, छोटे
व्यापारियों एवं छोटे उत्पादक व्यवसायों - जो श्रमिकों पर उनके हाथ के कामों के लिये
निर्भर करते हैं – के लिये आवास की कमी हो जाती है। उन शहरों में जो शुरू से औद्योगिक
केन्द्र के रूप में विकसित हुये हैं, आवास की यह कमी लगभग अंजाना है, मसलन, मैंचेस्टर,
लीड्स, ब्रैडफोर्ड, बार्मेन-एल्बरफेल्ड। दूसरी ओर, लन्दन्, पैरिस, बर्लिन, वियेना में
उस समय इस कमी ने तीव्र रूप धारण कर लिया और अधिकांश समय में, पुराने मर्ज की तरह मौजूद
रही है।
इसलिये, आवास की ठीक
यही तीव्र कमी, जर्मनी में हो रही औद्योगिक क्रांति का यह लक्षण, “आवास के प्रश्न”
पर निबंधो के माध्यम से समकालीन संवाद-माध्यमों में छा गया, और विभिन्न किस्म के सामाजिक
नीमहकीमी को पैदा किया। वैसे आलेखों की एक शृंखला को वोकस्टाट में भी जगह मिल
गया। गुमनाम लेखक, जिन्होने बाद में खुद का परिचय दिया ए॰ मुलबर्गर, वर्टेमबर्ग के
एम॰डी, ने इसे एक अवसर समझा कि आलेखों के द्वारा जर्मन श्रमिकों को, आवास के प्रश्न
के माध्यम से, प्रुधों के सामाजिक रामवाण के चमत्कारी प्रभावों के बारे में जागरुक
किया जाय।2 जब मैंने इन अजीब आलेखों के स्वीकार किये जाने पर सम्पादकों
को अपना अचरज जताया, मुझे उनका जबाब देने की चुनौती दी गई। मैंने वह किया (देखें भाग
I: प्रुधों किस तरह आवास के प्रश्न का समाधान करते हैं)। जल्द ही इस शृंखला के बाद
दूसरी शृंखला आई, जिसमें मैंने, डा॰ एमिल सैक्स3 की एक रचना के आधार पर,
इस प्रश्न से सम्बन्धित परोपकारी पूंजीवादी विचार का परीक्षण किया (भाग II: पूंजीवादी
वर्ग किस तरह आवास की समस्या का समाधान करता है)। काफी लम्बे अन्तराल के बाद डा॰ मुलबर्गर
ने मेरे आलेखों4 का उत्तर देकर मेरा आदर किया और इसके कारण मुझे एक प्रत्युत्तर
तैयार करना पड़ा (भाग III: प्रुधों एवं आवास के प्रश्न पर अनुपूरक), जिसके साथ वाद-विवाद
भी एवं इस प्रश्न पर मेरी विशेष व्यस्तता का भी अंत हुआ। यही, आलेखों के इन तीन शृंखलाओं
की सृष्टिकथा है, जो एक पुस्तिका के तौर पर अलग से भी पुनर्मुद्रित हो चुका है। एक
नये पुनर्मुद्रण की आवश्यकता के लिये मैं जर्मन साम्राज्यवादी सरकार की कृपादृष्टि
का आभारी हूँ, जिन्होने इस रचना पर रोक लगाकर इसकी बिक्री को तेज कर दी – यही वह रोज
करती हैं – और मैं इस अवसर को ग्रहण कर उन्हे आदरभाव सहित धन्यवाद दे रहा हूँ।5
नये संस्करण के लिये
मैंने पाठ का पुनरीक्षण किया है, कुछेक नये संयोजन किये हैं और नई टिप्पणियाँ जोड़ी
हैं तथा पहले भाग6 में एक छोटी आर्थिक गलती की सुधार की है, जो दुर्भाग्य
से मेरे विरोधी डा॰ मुलबर्गर खोजने में असफल रहे।
इस पुनरीक्षण के दौरान
मेरे सामने यह तथ्य उभर कर आई कि पिछले चौदह वर्षों में अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक वर्ग
का आन्दोलन कितनी विराट प्रगति कर चुका है। उस समय तक यह एक तथ्य था कि “बीस वर्षों
से लातीनी भाषायें बोलने वाले श्रमिकों के पास प्रुधों की रचनाओं के अलावा कोई दूसरा
मानसिक खुराक नहीं है”7, और जरूरत पड़ने पर उस समय “अराजकतावाद” के जनक बाकुनिन
द्वारा प्रस्तुत प्रुधोंवाद का और भी ज्यादा एक-तरफा संस्करण मौजूद था; बाकुनिन प्रुधों
को “हम सभी का स्कूलशिक्षक” हम सभी के लिये हमारे गुरू [फ्रांसिसी में] मानते
थे। हालाँकि फ्रांस में प्रुधोंवादी श्रमिकों के बीच एक छोटे से ही संप्रदाय के रूप
में थे। लेकिन उस समय तक वे ही थे जिनका एक निर्दिष्ट सुत्रबद्ध कार्यक्रम था और जो,
पैरिस कम्यून में आर्थिक क्षेत्र में नेतृत्व का बागडोर सम्हालने में सक्षम थे। बेल्जियम
में, प्रुधोंवाद ने वालून श्रमिकों [बेल्जियम के अन्तर्गत वालोनिया के श्रमिकों – अनु॰]
के बीच निर्विरोध राज किया, और स्पेन व इटली में, कुछेक अपवादों को छोड़कर श्रमिक वर्ग
के आन्दोलन में जो कुछ भी अराजकतावादी नहीं था वह निश्चित तौर पर प्रुधोंवादी था। और
आज? फ्रांस में श्रमिकों ने पूरी तरह प्रुधों को त्याग दिया है। प्रुधों के समर्थक
अब सिर्फ उग्र-सुधारवादी पूंजीवादी एवं टुटपूंजियों में मौजूद हैं, जो प्रुधोंवादी
के रूप में खुद को “समाजवादी” भी कहते हैं, लेकिन उनके खिलाफ सबसे अधिक ऊर्जावान संघर्ष
समाजवादी श्रमिक ही चलाते हैं। बेल्जियम में, फ्लेमिंगों [फ्लेमिंग या फ्लेमिश – बेल्जियम
का एक जनसमुदाय – अनु॰] ने वालूनों को आन्दोलन के नेतृत्व से हटा दिया है, प्रुधोंवाद
को निकाल फेंका है एवं आन्दोलन के स्तर को वे काफी ऊँचाई तक ले गये हैं। इटली की तरह
स्पेन में भी, सत्तर के दशक के अराजकतावाद का ज्वार उतर चुका है और उतरने में प्रुधोंवाद
के अवशेषों को भी बहा ले गया है। इटली में एक नई पार्टी स्पष्टीकरण एवं गठन की प्रक्रिया
में है, जबकि स्पेन में, नुयेवा फेदरसिओन माद्रिलेना8 के नाम से एक छोटा
केन्द्र, जो अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद के प्रति एकनिष्ठ रहा है, मजबूत पार्टी
बन चुका है। यह पार्टी, प्रजातंत्री संवाद-माध्यमों से ही पता चलता है, श्रमिकों के
बीच से पुंजीवादी प्रजातंत्रियों के प्रभाव को जितना ज्यादा असरदार ढंग से खत्म कर
रही है, उतने इनके शोर मचाने वाले पूर्ववर्ती अराजकतावादी कभी नहीं कर पाये थे। लातीनी श्रमिकों में प्रुधों की भूली गई रचनाओं की जगह पूंजी, कम्युनिस्ट
घोषणापत्र एवं मार्क्सवादी धारा के अन्य कई रचनाओं ने ले ली है तथा मार्क्स की मुख्य मांग – निरंकुश राजनीतिक सत्ता तक पहुँचे हुये सर्वहारा द्वारा उत्पादन के सभी साधनों का समाज के लिये जब्ती – लातीनी देशों के भी पूरे क्रांतिकारी श्रमिक वर्ग की मांग है।
अगर प्रुधोंवाद लातीनी देशों के श्रमिकों
के बीच से भी अन्तिम रूप से विस्थापित हो चुका है, अगर अपने वास्तविक गन्तव्य के अनुरूप
यह अब सिर्फ फ्रांसीसी, स्पेनीय, इतालवी एवं बेल्जियाई पूंजीवादी उग्र-सुधारवादियों
की पूंजीवादी एवं टुट्पूंजियई आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बन कर रह गया है तो फिर इसकी
तरफ लौटा ही क्यों जाय? इन आलेखों का पुनर्मुद्रण कर एक मरे हुये विरोधी
से क्यूँ लड़ें?
पहला कारण तो यह कि ये आलेख, सिर्फ
प्रुधों एवं उनके जर्मन नुमाइन्दों के विरुद्ध वाद-विवाद तक में सीमित नहीं हैं। मार्क्स
और मेरे बीच मौजूद श्रम के विभाजन के फलस्वरूप, संवाद-सामयिकों में और उसी कारण से,
खास कर विरोधी नजरियों खिलाफ लड़ाई में, हमारा
नजरिया प्रस्तुत करते रहने का जिम्मा मेरे उपर पड़ा ताकि मार्क्स को अपने महान मुख्य
कार्य के विशद में जाने का समय मिले। इस जिम्मेदारी ने मेरे लिये, हमारे नजरिये को
अधिकांशत:, दूसरे नजरियों के विरुद्ध में वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक
कर दिया। यहाँ भी। लेकिन, पहले एवं तीसरे भाग में, आवास के प्रश्न पर सिर्फ प्रुधोंवादी
धारणा की आलोचना नहीं बल्कि हमारी अपनी धारणा की भी प्रस्तुति है।
दूसरी बात, योरोपीय श्रमिक वर्ग के
आन्दोलन के इतिहास में प्रुधों ने कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसलिये
बिना आगे कोई हलचल मचाये वह विस्मृत हो जायें यह संभव नहीं। सैद्धांतिक तौर पर खंडित
किये जाने एवं व्यवहारिक तौर पर त्याग दिये जाने के बाद भी उनमें ऐतिहासिक दिलचस्पी
बनी रहेगी। जिसमें भी आधुनिक समाजवाद के विशद में जाने की रुचि होगी उसे आन्दोलन के
“परास्त किये गये दृष्टिकोणों” से परिचित होना होगा। मार्क्स रचित दर्शन की दरिद्रता
का प्रकाशन, प्रुधों द्वारा की गई, सामाजिक
सुधार के व्यवहारिक
प्रस्तावों की प्रस्तुति के अनेकों वर्ष पहले हुआ था।9 इस पुस्तक में मार्क्स ने सिर्फ प्रुधों के विनिमय
बैंक का भ्रुण-रूप आविष्कार किया था एवं उसकी आलोचना की थी। इस पहलु से देखा जाय तो
वर्तमान पुस्तिका उनके पुस्तक का अनुपूरण कर रही है - पर खेद की बात है कि बहुत अधूरेपन
के साथ। मार्क्स खुद इस काम को काफी बेहतर और काफी अधिक विश्वासप्रद ढंग से किये होते।
और अन्तिम बात, पूंजीवादी
एवं टुटपूंजिया समाजवाद के प्रतिनिधि अभी भी जर्मनी में मजबूती के साथ हैं। एक तरफ
उनके प्रतिनिधि हैं आराम-कुर्सी वाले समाजवादी10 और तमाम किस्म के परोपकारवादी
जिनमें श्रमिकों को उनके घरों के मालिक में बदलने की ईच्छा अभी भी बड़ी भूमिका निभा
रही है और इस कारण से उनके लिये मेरा काम अभी भी उपयुक्त है। दूसरी तरफ, एक खास टुटपूंजिया
समाजवाद को सामाजिक-जनवादी पार्टी के अन्दर ही, यहाँ तक कि राइखस्टैग गुट के कतारों
में प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। यह यूँ काम करता है – आधुनिक समाजवाद के मौलिक विचार
एवं उत्पादन के सारे साधनों का सामाजिक सम्पत्ति में रूपांतरण की मांग न्यायसंगत मानी
तो जाती है लेकिन दूर, और सारे व्यवहारिक उद्देश्यों के मद्देनजर, अज्ञेय भविष्य के
लिये। इसलिये, बात होती है कि वर्तमान में महज सामाजिक पैबन्दबाजी पर भरोसा किया जाय
और परिस्थिति के अनुसार, “मेहनतकश वर्ग के उत्थान” के रूप में जाने जाने वाले सबसे
अधिक प्रतिक्रियावादी प्रयासों के प्रति भी हमदर्दी दिखानी पड़ सकती है। खास कर उस समय
जब जर्मनी में औद्योगिक विकास, गहरे जड़ धँसाये हुये टुटपूंजियेपन को बड़े पैमाने पर
उखाड़ फेंक रहा है, उपरोक्त प्रवृत्ति का अस्तित्व अनिवार्य है क्योंकि जर्मनी सर्वोत्कृष्ट
टुटपूंजियेपन की जमीन है। वैसे, समाजवाद-विरोधी कानून11, पुलिस और न्यायाधीशों
के विरुद्ध पिछले आठ वर्षों के संघर्ष की परीक्षा में हमारे श्रमिक जितने भव्य ढंग
से सफल हुये हैं उनकी अद्भुत व्यवहारिक बुद्धि को देखते हुये उपरोक्त प्रवृत्ति नितान्त
हानिरहित है। लेकिन यह समझना जरूरी है कि ऐसी प्रवृत्ति मौजूद है। और अगर यह प्रवृत्ति
आगे चलकर सशक्त आकार एवं अधिक परिभाषित रूप ले लेता है, जैसा की जरूरी है और वांछनीय
भी, तब इसे अपने कार्यक्रम को सुत्रबद्ध करने के लिये पीछे, अपने पूर्ववर्त्तियों के
पास जाना पड़ेगा, और ऐसा करते समय प्रुधों की अनदेखी करने में यह शायद ही सक्षम हो।
“आवास के प्रश्न” पर
बड़े-पूंजीवादी एवं टुटपूंजिये, दोनों के समाधान का सार है कि श्रमिकों को अपने घर का
मालिक होना चाहिये। हालाँकि, पिछले बीस वर्षों के दौरान हुये जर्मनी के उद्योगिक विकास
ने इस बिन्दु को बहुत अजीब रोशनी में दर्शाया है। किसी दूसरे देश में इतने अधिक ऐसे
मजदूर नहीं हैं जो न सिर्फ अपने घरों के मालिक हैं बल्कि जिनके पास एक बगीचा या खेत
भी है। इनके अलावे बहुत सारे ऐसे हैं जो किरायेदार के रूप में आवास एवं बगीचा या खेत
रखे हुये हैं और जिन पर उनका अधिकार खासी सुरक्षित है। मोटे तौर पर जर्मनी के नये बड़े
उद्योग का आधार बनता है ग्रामीण घरेलू उद्योग के साथ संयुक्त बागवानी या लघु कृषि।
पश्चिम तरफ, अधिकांश श्रमिक अपनी घर-गृहस्थी के मालिक हैं, पूरब तरफ वे मुख्यत: किरायेदार
हैं। घरेलू उद्योग के साथ बागवानी एवं कृषि का, और फलस्वरूप सुरक्षित घर का यह योग
हमें न सिर्फ उन जगहों पर मिलता है जहाँ हाथ की बुनाई अभी भी यांत्रिक करघा के खिलाफ
लड़ रही है – जैसे निचले राइनलैन्ड में और वेस्टफैलिया में, सैक्सन एर्ज्गेबिर्ग में
और साइलेशिया में – बल्कि वहाँ भी जहाँ किसी न किसी किस्म का घरेलू उद्योग ग्रामीण
धंधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है – जैसे, थुरिंगियाई जंगल या रोन इलाका। तम्बाकु
एकाधिकार पर बातचीत के समय इसका खुलासा हुआ था कि सिगार बनाने का काम भी कितना व्यापक
तौर पर ग्रामीण घरेलू उद्योग के तौर पर किया जा रहा था। जहाँ कहीं भी छोटे किसानों
में विपत्ति फैलती है – जैसा कि, मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले आइफेल इलाके में हुआ
था12 - पूंजीवादी संवाद-माध्यम तत्काल आवाज उठाते हैं कि कोई उपयुक्त घरेलू
उद्योग ही एकमात्र इलाज है। और सच पूछा जाय तो जर्मन बटाईदार किसानों की बढ़ती दुर्दशा
एवं जर्मन उद्योग की सामान्य परिस्थिति, ग्रामीण घरेलू उद्योग को निरंतर विस्तार की
ओर प्रवृत्त करता है। यह परिघटना जर्मनी की विशेषता है। फ्रांस में इसके अनुरूप अगर
कुछ मिलता है तो नितान्त अपवाद के रूप में, जैसे रेशम की खेती के इलाकों में। इंग्लैंड
में, जहाँ छोटे किसान नहीं हैं, ग्रामीण घरेलू उद्योग, खेतिहर दिहाड़ी-मजदूरों के बीवीयों
और बच्चों के काम पर टिके हुये हैं। सिर्फ आयरलैंड में हम जर्मनी की तरह, पाते हैं
कि परिधान बनाने के ग्रामीण घरेलू उद्योग वास्तविक किसान परिवारों द्वारा चलाये जा
रहे हैं। बेशक, हमारा सरोकार यहाँ रूस एवं उन अन्य देशों से नहीं है जिनका प्रतिनिधित्व
औद्योगिक विश्व-बाज़ार में नहीं है।
इस तरह, जहाँ तक उद्योग
का सवाल है, जर्मनी के बड़े हिस्सों में मौजूदा स्थिति पहली नजर में वैसी ही है जैसी
मशिनरियों की शुरूआत के समय थी। लेकिन यह सिर्फ पहली नजर की बात है। पहले के ग्रामीण
घरेलू उद्योग और साथ में बागवानी और खेती, कम से कम उन देशों में जहाँ उद्योगों का
विकास हो रहा था, श्रमिक वर्ग के लिये सहनीय एवं जहाँ तहाँ, बल्कि आरामदायक भौतिक स्थिति
के आधार थे। जबकि साथ ही साथ, इस वर्ग के बौद्धिक एवं राजनीतिक महत्वहीनता के भी आधार
थे। हाथ से बने उत्पाद एवं इनकी लागत, बाजार में इनकी कीमत को निर्धारित करते थे, और
आज की तूलना में श्रम की नगण्य उत्पादकता के कारण, बिक्री के बाजार नियम के तौर पर
आपुर्ति से अधिक तेजी से बढ़ते थे। पिछली सदी के बीच तक यह इंग्लैंड के लिये भी सच था
और अंशत: फ्रांस के लिये भी – खासकर कपड़ा उद्योग में। लेकिन जर्मनी जो उस समय तीस वर्षीय
युद्ध13 के विध्वंस से बस उबर रहा था और अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में
आगे बढ़ने का रास्ता बना रहा था, स्थिति बिल्कुल भिन्न थी। एकमात्र घरेलू उद्योग, लिनेन
की बुनाई, जो विश्व-बाजार के लिये उत्पादन कर रहा था, इतना अधिक करों के बोझ एवं सामंती
बकायों से दबा हुआ था कि किसान बुनकरों को यह, बाकी किसानों के बहुत निचले स्तर से
ऊपर नहीं उठाया। जबकि ग्रामीण औद्योगिक श्रमिक उसी समय एक दूरी तक आश्वस्त जीवन जी
रहे थे।
मशीनरी की शुरूआत होते
ही यह सबकुछ बदल गया। कीमतें अब मशीन से बने उत्पादों के द्वारा तय होने लगीं और घरेलू
औद्योगिक श्रमिक की मजदूरी इस कीमत के साथ गिरने लगी। लेकिन, श्रमिकों को या तो यह
स्वीकार करना था या नहीं तो दूसरा काम देखना था, जो वह बिना सर्वहारा बने, यानि, बिना
अपना, मालिकाना वाला या किराये का छोटा सा आवास, बगीचा या खेत खोये, कर नहीं सकता था।
बिरले ही वह ऐसा करने को तैयार होता था। और इस तरह, पुराने ग्रामीण, हाथ के बुनकरों
की बागवानी और खेती के कारण यंत्र-करघा के खिलाफ हस्त-करघा की लड़ाई जर्मनी में हर जगह
इतनी लम्बी अवधि तक चली और अभी भी वह लड़ाई अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुँची है। इस संघर्ष
में यह पहली बार, खास कर इंग्लैंड में प्रदर्शित हुआ, कि वह परिस्थिति जो पहले श्रमिक
के लिये तुलनात्मक समृद्धि का कारण बनी थी – यह यथार्थ कि वह अपने उत्पादन के साधनों
का मालिक था – अब एक बाधा और दुर्भाग्य बन गई थी। उद्योग में यंत्र-करघा ने उसके हस्त-करघा
को पराजित कर दिया और कृषि में बड़े पैमाने की खेती ने उसके छोटे पैमाने की खेती को
पीछे छोड़ दिया। फिर भी, जब एक तरफ अनेकों का सामाजिक श्रम, मशीनरी एवं विज्ञान का उपयोग,
उत्पादन के दोनों क्षेत्र का सामाजिक नियम बन गया, वह अपना छोटा सा आवास, बगीचा, खेत
और हस्त-करघा के द्वारा व्यक्तिगत उत्पादन एवं हाथ के श्रम की पुरानी पद्धति से बँधा
हुआ था। आवास एवं बगीचा पर अधिकार का मोल अब घूमने-फिरने की पूरी आजादी से बहुत कम
था। कोई कारखाना श्रमिक किसी ग्रामीण हस्त-बुनकर से, जो धीरे धीरे लेकिन निश्चित तौर
पर भूखे मरने की स्थिति की ओर जा रहा था, जगह की अदला-बदली नहीं चाहता।
विश्व-बाजार में जर्मनी
का आविर्भाव विलम्ब से हुआ। हमारे देश में बड़े पैमाने के उद्योग की शुरूआत चालीस के
दशक में हुई। सन 1848 की क्रांति से इसे पहला चढ़ाव मिला। पूरी तरह विकसित होने में
यह तब सक्षम हुआ जब सन 1866 एवं 1870 की क्रांतियों14 ने इसके मार्ग के
सबसे खराब राजनीतिक बाधाओं को हटा दिया। लेकिन तब विश्व-बाजार इसे बड़े पैमाने पर पहले
से अधिकृत मिला। आम उपभोग के सामानों की आपुर्ति इंग्लैंड द्वारा की जा रही थी और मनोहर
विलासिता के सामानों की आपुर्ति फ्रांस द्वारा की जा रही थी। पहले वाले को कीमतों में
और बाद वाले को गुणवत्ता में जर्मनी मात नहीं दे सकती थी। इसलिये, फिलहाल के लिये जर्मनी
के पास अपने उत्पादन के पिटे हुये रास्ते पर ही चलने के अलावा कुछ बचा नहीं था। विश्व-बाजार
में ऐसे सामान लेकर पहुँचो जो अंग्रेजों के लिये ज्यादा ही तुच्छ हो और फ्रांसीसियों
के लिये ज्यादा ही घटिया हो। हालाँकि, धोखे की पसंदीदा जर्मन रीति - कि पहले अच्छे
नमूने भेजो और बाद में रद्दी सामान – को तुरन्त विश्व-बाजार में पर्याप्त कठोर सजा
मिला और अन्तत: इस रीति को त्यागना पड़ा। दूसरी ओर, अति-उत्पादन की प्रतिस्पर्धा ने
आदरणीय अंग्रेजों को भी गुणवत्ता में खराबी लाने को मजबूर किया और इस तरह उन्होने जर्मनों
को, जो गुणबत्ता में खराबी के मामले में अतुलनीय हैं, एक बढ़त दे दिया। और इस तरह हम
अन्तत: बड़े पैमाने के उद्योग हासिल किये और हमें विश्व-बाजार में एक भूमिका निभाने
को मिला। लेकिन हमारे बड़े पैमाने के उद्योग लगभग पूरी तरह सिर्फ घरेलू बाजार
के लिये काम करते हैं (सिर्फ अपवाद के रूप में लौह उद्योग को छोड़ कर, जो घरेलू मांग
की सीमाओं से बहुत अधिक उत्पादन करता है), और हमारे निर्यात का बहुतायत, बहुत बड़ी संख्या
में छोटे सामानों का होता है, जिसके लिये बड़े पैमाने का उद्योग अधिक से अधिक, आवश्यक
अर्द्ध-निर्मित वस्तुयें मुहैया कराते हैं, जबकि निर्यात के लिये जो छोटे सामान होते
हैं उसकी आपुर्ति मुख्यत: ग्रामीण घरेलू उद्योग द्वारा की जाती है।
और यहाँ, आधुनिक श्रमिक
पर आवास और जमीन के मालिकाने का “आशीर्वाद” इसकी पूरी महिमा में देखी जा सकती है। आयरलैंड
के घरेलू उद्योगों को छोड़ कर, - वह भी शायद - कहीं भी इतनी शर्मनाक कम मजदूरी नहीं
मिलती हैं जितनी जर्मनी के घरेलू उद्योगों में। परिवार अपने छोटे से बगीचे या खेत से
जो भी अर्जित करता है, प्रतिस्पर्धा के कारण, पूंजीपति को उतनी रकम श्रमशक्ति की कीमत
से काट लेने की छूट मिल जाती है। भाग की दर पर कोई भी मजदूरी स्वीकार करने केलिये श्रमिक
मजबूर किये जाते हैं, अन्यथा उन्हे कुछ भी नहीं मिलेगा और सिर्फ उनकी खेती के उत्पादों
पर वे जी नहीं पायेंगे। जबकि दूसरी ओर, ठीक यही खेती और जमीन का मालिकाना उनकी मजबूरी
का कारण है क्योंकि यह उन्हे जगह से बांधे रखता है और आसपास कोई दूसरा रोजगार ढूढ़ने
से रोकता है। यही वह कारण है जो विश्व-बाजार में जर्मनी की प्रतिस्पर्धा की क्षमता
बहुत सारे छोटे छोटे सामानों के क्षेत्र में बनी रहती है। पूरा मुनाफा सामान्य मजदूरी
में कटौती कर बनाया जाता है और पूरा अतिरिक्त मूल्य खरीद्दार को तोहफे में दिया जा
सकता है। जर्मनी से निर्यात होने वाले सामानों का असाधारण रूप से सस्ता होने का
राज यही है।
किसी भी दूसरे कारण से
अधिक यही वह परिस्थिति है जो उद्योग के दूसरे क्षेत्रों में भी जर्मन श्रमिकों की मजदूरी
एवं जीने के शर्तों को पश्चिमी योरोपीय देशों के स्तरों के बनिस्बत नीचे किये रखती
है। परम्परागत तौर पर श्रमशक्ति के मूल्य से काफी नीचे रखी गई श्रम की ऐसी कीमतों का
पूरा भार, शहरी मजदूरों की और यहाँ तक कि महानगरों के मजदूरों की मजदूरी को भी, श्रमशक्ति
के मूल्य से नीचे दबाये रखता है। यह इसलिये और भी होता है क्योंकि शहरों में भी, नितान्त
कम मजदूरी के भुगतान वाले घरेलू उद्योग ने पुरानी दस्तकारी की जगह ले ली है। फलस्वरूप,
यहाँ भी वह, मजदूरी के सामान्य स्तर को नीचे दबाये रखती है।
यहाँ हम स्पष्टत: देख
पाते हैं कि कृषि और उद्योग का मेल, आवास, बगीचा एवं खेत का मालिकाना, रहने की जगह
की गारंटी, जो पूर्व के ऐतिहासिक चरण में सापेक्ष तौर पर श्रमिकों की भलाई का आधार
हुआ करता था, आज, बड़े पैमाने के उद्योग के शासनाधीन, न सिर्फ श्रमिकों के लिये भयानक
जंजीर बनती जा रही है, बल्कि पूरे श्रमिक वर्ग के लिये सबसे बड़ा दुर्भाग्य, मजदूरी
को सामान्य स्तर के अभूतपूर्व नीचे दबाये रखने का आधार बनता जा रहा है – वह भी, उद्यमों
की अलग अलग शाखाओं और जिलों में नहीं बल्कि पूरे देश में। कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े
पूंजीपति वर्ग एवं टुटपूंजिया वर्ग, जो मजदूरी की इस अस्वाभाविक कटौती पर जिन्दा रहते
और धनवान बनते हैं, ग्रामीण उद्योग एवं अपने घर का मालिकानावाले श्रमिकों को लेकर इतने
उत्साहित हैं, और वे नये घरेलू उद्योगों की शुरूआत को तमाम ग्रामीण विपत्तियों का एकमात्र
इलाज मानते हैं।
यह वस्तुस्थिति का एक
पहलू है। लेकिन इसका विपरीत पहलू भी है। घरेलू उद्योग जर्मन निर्यात व्यापार एवं फलस्वरूप
बड़े पैमाने के पूरे उद्योग का प्रशस्त आधार बन चुका है। इसके चलते यह जर्मनी के व्यापक
इलाकों में फैला हुआ है और हर दिन और ज्यादा फैल रहा है। छोटे किसान की बर्बादी तो
अनिवार्य थी ही। उसके अपने उपभोग के लिये उसका जो औद्योगिक घरेलू श्रम था, सस्ते बने-बनाये
परिधान एवं मशीन से बने उत्पाद उसे ध्वस्त कर चुके थे। उसी तरह उसका पशुपालन, एवं नतीजे
के तौर पर उसका खाद उत्पादन, मार्क व्यवस्था15 – सहाधिकार मार्क एवं फसल
का बाध्यतापूर्वक चक्रीकरण – के विघटन से ध्वस्त हो चुके थे। यह बर्बादी छोटे किसान
को महाजन का शिकार बनाकर बलपूर्वक आधुनिक घरेलू उद्योग के हाथों में डाल देती है। आयरलैंड
के भूस्वामी के भूमि-किराये की तरह, जर्मनी के बंधकी का कारोबार करने वाले सूदखोर-महाजन
का व्याज, धरती के उपज से नहीं बल्कि औद्योगिक किसान की मजदूरी से ही चुकाये जा सकते
हैं। जो भी हो, घरेलू उद्योग के विस्तार से एक किसान-इलाके के बाद दूसरा किसान-इलाका
आज की औद्योगिक गतिविधि में घसीटा चला आ रहा है। घरेलू उद्योग के माध्यम से ग्रामीण
जिलों का यह क्रांतिकारी बदलाव ही जर्मनी के, इंग्लैंड और फ्रांस से ज्यादा प्रशस्त
इलाकों में औद्योगिक क्रांति को फैला रहा है। तुलनात्मक तौर पर हमारे उद्योग का नीचा
स्तर ही क्षेत्र में इसके विस्तार को अधिक जरूरी बनाता है। यही व्याख्या करता है कि
क्यों जर्मनी में क्रांतिकारी श्रमिक-वर्ग आन्दोलन, इंग्लैंड और फ्रांस के विपरीत,
शहरी केन्द्रों में सीमित रहने के बजाय, देश के बड़े भूभाग में इतनी तीव्रता से फैल
गया है। और यही, आन्दोलन के शांत, निश्चित और अप्रतिरोध्य प्रगति की भी व्याख्या करता
है। जर्मनी में यह पूरी तरह स्पष्ट है कि राजधानी और दूसरे बड़े शहरों में एक सफल विद्रोह
तभी सम्भव होगा छोटे शहर और ग्रामीण जिलों के बड़े हिस्से क्रांतिकारी बदलाव के लिये
परिपक्व हो जायेंगे। अगर सामान्य विकास की धारा पर बातें आगे बढ़ेंगी यह मान लिया जाय,
तो यह सच है कि हम कभी भी सन 1848 या 1871 की पैरिस के मजदूरों की तरह श्रमिक-वर्गीय
विजय हासिल नहीं कर पायेंगे, लेकिन यह भी सच है कि हमारा क्रांतिकारी राजधानी का पराजय
प्रतिक्रांतिकारी प्रदेशों के द्वारा नहीं होगा, जैसा पैरिस को दोनों ही बार भुगतना
पड़ा है। फ्रांस में आन्दोलन की शुरूआत हमेशा राजधानी में हुई है; जर्मनी में इसकी शुरुआत
बड़े पैमाने के उद्योग, यंत्र-उत्पादन एवं घरेलू उद्योग के क्षेत्रों में हुई है; राजधानी
पर बाद में विजय प्राप्त किया गया है। इसलिये, भविष्य में भी शायद, पहल फ्रांसीसी करेंगे
लेकिन निर्णायक संघर्ष जर्मनी में ही लड़ी जायेगी।
अब, यह ग्रामीण घरेलू
उद्योग एवं कारखाने, जो अपने विस्तार के कारण जर्मन उत्पादन की निर्णायक शाखा बन चुकी
है और जर्मन किसानों का ज्यादा से ज्यादा वैप्लवीकरण कर रही है, खुद ही बस आगे के क्रांतिकारी
बदलाव का प्रारंभिक चरण है। जैसा मार्क्स पहले ही साबित कर चुके हैं (पूंजी,
खण्ड I, तीसरा संस्करण, पृ॰ 484-9516) कि, विकास के एक निश्चित चरण में
इसके भी पतन की घंटी, मशीनरी एवं कारखाना-उत्पादन के चलते ही बजेगी। और वह घड़ी प्रतीत
होता है की आ चुकी है। लेकिन मशीनरी एवं कारखाना-उत्पादन के द्वारा ग्रामीण घरेलू उद्योग
एवं यंत्र-उत्पादन के विध्वंस का जर्मनी में अर्थ है दसियों लाख ग्रामीण उत्पादकों
की जीविका का विध्वंस, जर्मन छोटे किसानों की लगभग आधी आबादी का उजड़ जाना। न सिर्फ
घरेलू उद्योग का कारखाना-उत्पादन में रूपांतर, बल्कि किसानी की खेती का भी बड़े पैमाने
की पूंजीवादी कृषि में रूपांतर, छोटे भूसम्पत्ति का बड़े जायदादों में रूपांतर – किसानों
की कीमत पर पूंजी एवं बड़े भूस्वामित्व के पक्ष में औद्योगिक एवं कृषि क्रांति। अगर
पुरानी सामाजिक स्थितियों में रहते हुये इस रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरना जर्मनी
के भाग्य में है, तो प्रश्नातीत तौर पर यह एक मोड़ होगा। अगर किसी भी दूसरे देश का श्रमिक
वर्ग उस समय तक पहल न करे तो जर्मनी पहली चोट करेगी और “महिमान्वित सेना” के किसान
बेटे साहस के साथ सहायता के हाथ बढ़ायेंगे।
और इसके साथ पूंजीवादी
एवं टुटपूंजिया आदर्शलोक, जिसमें हर एक श्रमिक को उसके छोटे से आवास का मालिकाना देने
की, और इस तरह, उसे उसके खास पूंजीपति के साथ अर्द्ध-सामन्ती तरीके से जंजीरों में
बांध देने की बात है, बहुत ही भिन्न रंगरूप ग्रहण कर लेता है। इसके भौतिकीकरण में आवासों
के छोटे ग्रामीण मालिकों का औद्योगिक घरेलू श्रमिक में रूपांतर होता है; “सामाजिक उथलपुथल”
में खींच कर लाये जाने के कारण छोटे किसानों का पुराना अलगाव और उसके साथ उनकी राजनीतिक
महत्वहीनता भी खत्म हो जाते हैं; ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक क्रांति का विस्तार
होता है और फलस्वरूप, आबादी का सबसे स्थाई एवं रूढ़िवादी वर्ग का, क्रांतिकारियों के
पौधशाला में रूपांतर होता है; और इन तमाम बातों की परिणति के रूप में, घरेलू उद्योग
में लगे किसानों को मशीनरी उजाड़ देती है, जो उन्हे बलपूर्वक विद्रोह में जाने के लिये
मजबूर करता है।
पूंजीवादी-समाजवादी परोपकारियों
को अपने आदर्शों से निजी तौर पर आनन्दित होने की अनुमति हम तब तक आसानी से दे सकते
हैं जब तक वे पूंजीपति के रूप में, सामाजिक क्रांति की बड़ी भलाई के लिये अपने सार्वजनिक
काम, उल्टे रूप में सामाजिक विकास की उपरोक्त प्रक्रिया को लागू करते रहते हैं।
लन्दन, जनवरी 10,
1887
फ्रेडरिक
एंगेल्स
[पहली बार डेर सोज़्यलडेमोक्रैट,
अंक 3 एवं 4, जनवरी 15 एवं 22, 1887 एवं पुस्तक: एफ॰ एंगेल्स, ज़ुर वोह्नांग्सफ्राय्जे,
हॉटिनगेन-ज़ुरिख, 1887 में प्रकाशित]
________________
1- यह उन 5000 मिलियन
फ्रांक के हर्जाना का प्रसंग है जो फ्रांस को, फ्रांको-प्रुशियाई युद्ध के बाद 10 मई,
1871 को हुये फ्रांकफुर्ट शांति समझौते के शर्तों के तहत जर्मनी को देना पड़ा था। -
स॰र॰स॰
2- [ए॰ मुलबर्गर] “डाय
वोनांग्सफ्राय्जे”, डेर वोकस्टाट, अंक 10-13, 15, 19, फरवरी 3, 7, 10, 14,
21 एवं मार्च 6, 1872 – स॰र॰स॰
3- ई॰ सैक्स, डाय
वोनांग्शुस्टान्ड डेर अर्बेइटेन्डेन क्लासेन उन्ड इह्रे रिफॉर्म [श्रमिक वर्गों
के आवास की स्थिति और उनके सुधार], वियेना, 1869 - स॰र॰स॰
4- ए॰ मुलबर्गर, ज़ुर
वोनांग्सफ्राय्जे [आवास के प्रश्न के लिये] (ऐन्टवोर्ट ऐन फ्रिड़रिख एंगेल्स वॉन ए॰
मुलबर्गर), डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 - स॰र॰स॰
5- जर्मनी में समाजवादी
साहित्य के मुद्रण एवं वितरण पर पाबन्दी का प्रसंग है (एंगेल्स की रचना आवास का
प्रश्न भी उसमें शामिल था। अक्तूबर 1878 को पारित समाजवादी-विरोधी कानून के तहत
इस पाबन्दी को लागू किया गया था।
6- देखें रचना समग्र, खण्ड 23, पृ॰ 334 - स॰र॰स॰
7- वही, पृ॰ 369 - स॰र॰स॰
8- नुयेवा फेदरसियोन
माद्रिलेना (नया माद्रिद संघ) का गठन 8 जुलाई 1872 को ला इमैन्सिपैसिओन के सम्पादकीय
मंडल के सदस्यों द्वारा किया गया था। ये सदस्य माद्रिद फेडरेशन के अराजकतावादी बहुमत
के द्वारा निष्काषित किये गये थे। इन पर आरोप था कि ये अपने अखबार में स्पेन के गुप्त
एलायेंस फॉर सोश्यलिस्ट डेमोक्रैसी के कामकाजों का भंडाफोड़ कर रहे थे। इस संघ के गठन
में प्रधान भूमिका पॉल लाफार्ग ने निभाई थी। 15 अगस्त 1872 को पहले अन्तरराष्ट्रीय
के साधारण परिषद ने नया माद्रिद संघ को अन्तरराष्ट्रीय में शामिल कर लिया।
नया माद्रिद संघ स्पेन
में अराजकतावादी प्रभाव के प्रसार के खिलाफ लड़ा, वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय
बनाया तथा 1879 में स्पेनीय समाजवादी श्रमिक पार्टी की स्थापना में मदद किया।
9- सन 1848 की क्रांति
के दौरान प्रुधों ने सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों की कई ठोस परिकल्पनायें प्रस्तुत किये
थे। सामान्य शब्दावलियों में उन परिकल्पनाओं की व्याख्या पी॰ जे॰ प्रुधों रचित आइडिए
जेनेराले द ला रिवोल्युशॉन अ XIX-ए सियेक्ल [उन्नीसवीं सदी में क्रांति के सामान्य
विचार], पैरिस, 1851
10- आराम-कुर्सी समाजवाद
(कैथेडर्सोज़िअलिस्मस), जर्मन पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक धारा जो 19वीं
सदी की अन्तिम तिहाई में श्रमिक आन्दोलन का विकास तथा उसमें वैज्ञानिक समाजवाद के प्रसार
की प्रतिक्रिया के रूप में उभरी थी। इस धारा के प्रतिनिधि समाजवाद से प्रतिबद्धता के
छद्म में विश्वविद्यालयी व्याख्यान-मंचों से पूंजीवादी सुधारवाद का वकालत किया करते
थे। अन्य बातों के अलावा वे दावा करते थे कि राज्यसत्ता, खासकर जर्मन साम्राज्य, का
वर्गातीत चरित्र है और इसका इस्तेमाल सामाजिक सुधार के द्वारा श्रमिक वर्ग की स्थिति
बेहतर करने के लिये किया जा सकता है।
11- 21 अक्तूबर 1878
को राइखस्टैग में बहुमत के समर्थन के द्वारा बिसमार्क की सरकार ने, समाजवादी एवं श्रमिक-वर्ग
आन्दोलन से लड़ने के लिये समाजवाद-विरोधी कानून या समाजवादियों के विरुद्ध
आपवादिक कानून लागू किया था। इस कानून के द्वारा जर्मनी के सामाजिक-जनवादी पार्टी
का कानूनी दर्जा खत्म किया गया था, सामाजिक-जनवादी पार्टी के सारे संगठनों पर, श्रमिकों
के जनसंगठनों एवं समाजवादी व श्रमिकों के संवाद-माध्यमों पर रोक लगाये गये थे, समाजवादी
साहित्य की जब्ती का हुक्म दिया गया था एवं सामाजिक-जनवादियों का दमन किया गया था।
फिर भी, मार्क्स एवं एंगेल्स की सक्रिय सहायता से सामाजिक-जनवादी पार्टी ने अपनी कतारों
के अवसरवादी एवं “अति-वाम” तत्वों पर विजय प्राप्त किया। समाजवादी-विरोधी कानून के
लागू रहते हुये भी, अपने गैरकानूनी कामों को सभी कानूनी संभावनाओं के इस्तेमाल के साथ
सही ढंग से जोड़ते हुये पार्टी ने जनता के बीच अपना प्रभाव काफी बढ़ाया और फैलाया। 1
अक्तूबर 1890 को यह कानून निरस्त किया गया। इस पर एंगेल्स के मूल्यांकन जाननेk ए लिये
देखें उनका आलेख “बिसमार्क एवं जर्मन श्रमजीवियों की पार्टी”। (मा॰ए॰ रचना समग्र, खण्ड
24, पृ॰ 407-09)
12- आइफेल (प्रशिया का राइन प्रदेश), विशाल दलदल एवं
बंजर भूमि के साथ एक पहाड़ी क्षेत्र है। जलवायु कठोर है और मिट्टी बांझ। एंगेल्स सन
1882 की घटनाओं की ओर ध्यान खींचते हैं जब लगातार फसल की बर्बादी एवं कृषि-उपजों के
दामों में पूर्व में हुये गिरावट के कारण उस क्षेत्र में अकाल का प्रादुर्भाव हुआ था।
13- तीस वर्षीय युद्ध
(1618-48) – एक योरोपीय युद्ध जिसमें पोप, स्पेनीय एवं ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्गों
[एक जर्मन राजपरिवार जो 15वीं व 16वीं सदी में, पवित्र रोम साम्राज्य का ताज पहन कर
विभिन्न योरोपीय राज्यों के लिये शासक मुहैया करता था] एवं कैथलिक जर्मन राजकुमारगण
कैथलिकवाद के झंडेतले इकट्ठा हुये और प्रोटेस्टैन्ट देशों – बोहेमिया, डेनमार्क, स्विडेन,
नेदरलैन्डस के प्रजातंत्र एवं अन्य कई प्रोटेस्टैन्ट जर्मन राज्यों के खिलाफ लड़े। कैथलिक
फ्रांस के शासक हैब्सबर्गों के प्रतिस्पर्धी थे इसलिये उन्होने प्रोटेस्टैन्ट खेमे
का साथ दिया। जर्मनी ही मुख्य युद्धक्षेत्र
एवं लूट व क्षेत्रीय दावों का लक्ष्य था। सन 1648 में हुई वेस्टफैलिया की शांति ने
जर्मनी के राजनीतिक अंगविच्छेद पर मुहर लगाया।
जेना की लड़ाई (अक्तूबर 14, 1806) में नेपोलियॉन के नेतृत्वाधीन
फ्रांसिसी सेना ने प्रशियाई सेना को परास्त किया और इस तरह प्रशिया को आत्मसमर्पण के
लिये मजबूर किया।
14- सन 1866 में ऑस्ट्रिया
एवं प्रशिया के बीच हुये युद्ध एवं सन 1870-71 में फ्रांस एवं प्रशिया के बीच हुये
युद्ध का प्रसंग है। …
15- मार्क सिस्टम एक
सामाजिक संगठन है जो फ्रीमैन के छोटे समूहों द्वारा भूमि के सामान्य कार्यकाल और आम
खेती पर टिकी हुई है। राजनीतिक और आर्थिक दोनों रूप से मार्क एक स्वतंत्र समुदाय हुआ
करते थे, और इसके शुरुआती सदस्य नि:संदेह रक्तसम्बन्ध से रिश्तेदार रहे होंगे - विकिपिडिया
16- देखें, रचना समग्र, खण्ड 35, अध्याय XIII, 8 (इ) - स॰र॰स॰
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