संगीत1 के बारे में हमारे जैसे आम लोगों की
धारणायें आज भी एक तिलिस्मी महल में कैद है। संगीत के उद्गम की कुछ कल्पकथायें
महादेव की जटा घूमती रहती हैं। इससे ही समझा जा सकता है कि आज से सवासौ, डेढ़सौ साल
पहले कैसी भीषण परिस्थिति थी। रागरागिणी की संख्या की बात करो तो ‘खरबों/असंख्य’,
प्रामाणिकरण की बात करो तो ‘घरानों की रहस्यमय विशिष्टतायें’, श्रेणीगत समता की
बात करो तो ‘श्रुतियों का भेद’, समयसीमा की बात हो तो ‘अनहदनाद के ब्रह्म तक
विस्तृत होने’ की कहानियाँ… जबकि बुनियादी बात यह थी कि उन्नीसवीं की सदी का अन्त
होते होते शास्त्रीय संगीत, युग के साथ कदम न मिला पाने के कारण जनता से दूर और
गतिहीन होती जा रही थी।
किस ने, कब, कहाँ पहली बार देश की संगीत को नई सदी की रोशनी
मे जाँचने का प्रयास शुरू किया था, कितना आगे बढ़ा था वह पहला कदम, यह मालूम नहीं
है। लेकिन सांस्कृतिक परम्परा के सभी क्षेत्रों में जो एक राष्ट्रवादी-तर्कवादी2
पुनराविष्कार प्रक्रिया शुरू हुआ था उन्नीसवीं सदी में – संगीत के क्षेत्र
में भी शायद उसी समय शुरू हुआ होगा।
कुछ बहुचर्चित नाम व कामों के आधार पर मैंने निम्नलिखित शृंखला
बनाई है - इसे संगीत के तर्कवादी पुनराविष्कार व पुनर्निर्माण को समझने का
ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति कह सकते हैं। (वैसे काम एवं नाम के लिहाज से भारतीय संगीत
के दो महापुरुष – पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर एवं पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे –
में पलुस्कर का नाम पहले आना चाहिये। उनका क्रांतिकारी कदम, संगीत विद्यालय की
स्थापना एवं अन्य सम्बन्धित काम 1901 में ही किया गया था जबकि भातखण्डे की कालजयी
कृति 1909 में आई थी, फिर भी ऐतिहासिक मुहुर्तों का सिलसिला बनाते हुये उनके काम
का जिक्र मैंने आगे किया है।)
1 – रागरागिणियों के प्रामाणिक ठाटों का निर्द्धारण
सन 1960 कोल्हापुर, महाराष्ट्र में जन्मे थे विष्णु नारायण
भातखंडे। पेशे से वकील थे। सफल थे अपने पेशे में। भारत की शास्त्रीय संगीत (उत्तर
भारतीय एवं कर्णाटकी, दोनों) या मार्ग संगीत पर अध्ययन का नशा शुरू से ही था।
पत्नी एवं पुत्री असामयिक निधन के बाद निकल गये भारत-भ्रमण पर। वकालत में इतने
दिनों तक कमाये गये रुपये काम आ गया। एक एक घरानों के जीवित विशारदों से उन्होने
मुलाकात किया। मुलाकात आसान नहीं था। अधिकांश उस्ताद, गुरु या विशारद अपने अपने
अहंकार में खोये थे। मिलने को आये इस आदमी के प्रति अपना क्रोध जाहिर करने में
उन्होने कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे कि यह आदमी बड़ा पाप करने निकला हो। असीम को नापने
निकला हो दर्जी के फीते से! कितनी स्पर्धा! संगीत को नापेगा! अभी शिव का तृतीय
नेत्र खुलेगा और यह नापाक रोषानल में जलकर राख हो जायेगा!… फिर भी भातखन्डे घूमते
रहे। कोई कुछ बोलना ही नहीं चाहे। फिर भी भातखन्डे लगे रहे। डायरी भर गया नोट्स से।
फिर लौट आये घर। पहले एक छोटा पुस्तक
रागों का परिचय देते हुये - ‘स्वरमालिका’। फिर मित्रों के सुझाव पर मराठी में लिखा
उन्होने अपना ‘मैगनम ओपस’ – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति। इस पुस्तक शृंखला के चौथे
खण्ड के प्रस्तावना में उन्होने लिखा:-
“ग्रंथ रचना आरम्भ करने से पूर्व नैपाल को छोड़ कर अन्य तमाम
प्रान्तों में प्रवास कर के वहाँ के गायक-वादकों से संगीत चर्चा करके तथा प्रवास
में जो भी उपयोगी ग्रंथ मुझे दिखाई दिये, वे सम्पादित करके मैंने उन सबका भली
प्रकार मनन किया है। इतना ही नहीं वरन अनेक ख्यातिप्राप्त गायकों के सन्निकट स्वयं
बैठकर उनसे ख्याल-ध्रुपद के हजार-पन्द्रह सौ गीत सीखे और उनके नोटेशन भी तैयार
किये।…
“सर्व प्रथम मैंने समाज में प्रचलित वर्तमान रागों का सूक्ष्मरूप
से निरीक्षण किया। उनमें मुझे ऐसा दिखाई दिया कि समाज में आज सवासौ-डेढ़सौ से अधिक
राग नहीं गाये जाते हैं। यह भी देखने में आया कि स्थूल दृष्टि से ये सारे राग
मुख्यत: निम्न तीन वर्गों में विभाजित करने योग्य हैं:-
जिन रागों में रे, ध तथा ग स्वर तीव्र रहते हैं।
जिन रागों में रे कोमल तथा ग, नि तीव्र रहते हैं।
जिन रागों में ग तथा नि कोमल रहते हैं।
यह भी मुझे दिखाई दिया कि प्रचार में कुछ रागों में
द्विरूपी स्वर आते हैं, परन्तु कुल मिलाकर उन रागों के चलन एवं रचना को देखते हुये
मेरी समझ से उनके पृथक वर्ग करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। ये वर्ग निश्चित
हो जाने के पश्चात इन तमाम रागों के वर्गीकरण के हेतु निम्नांकित दस मेल अथवा
थाटों को मैंने हिन्दुस्तानी संगीत की नींव मानना पसन्द किया:-
1) यमन 2) बिलावल 3) खमाज 4)
भैरव 5) पूर्वी
6) मारवा 7)
काफी 8) आसावरी 9) भैरवी 10)
तोड़ी
तोड़ी थाट में ग कोमल है तथा कुछ तोड़ी प्रकारों में ग, नि
कोमल है। अत: थाट को ग, नि प्रयुक्त वर्ग में ही लिया है। इस प्रकार से समस्त
रागों को इन दस थाटों में वर्गीकृत करके,……” (हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, चौथा
भाग, संगीत कार्यालय, हाथरस)
सोचा जा सकता है कि कितना बड़ा क्रांतिकारी काम था भातखण्डे
का यह वर्गीकरण।
कर्णाटकी संगीत में शायद लक्षण-गीतों की एक परम्परा थी।
रागों का लक्षण समझाने के लिये। थाटों की अवधारणा तक पहुँचने से पहले भातखण्डे ने
उन्ही लक्षण-गीतों से प्रेरित होकर प्रामाणिक सुरों के ‘विहार’ की रचना की मराठी
में। उस पुस्तिका को लिखने के क्रम में उन्हे एक और महत्वपूर्ण काम करना पड़ा। अपने
तरीके से स्वरलिपि लिखने की पद्धति को विकसित किया। (बाद के दिनों में धीरे धीरे
पूरे देश के लिये समान मान की लिपि व रचना-पद्धति स्वीकृत हुआ।)
ऐसा नहीं है कि रागरागिणियों के वर्गीकरण का प्रयास इसके
पहले नहीं हुआ। आरोह-अवरोह का चक्राकार विन्यास, भाव, और कई प्रकार से वर्गीकरण का
प्रयास हुआ था। लेकिन एक सप्तक में आरोह के न्यूनतम जितने भिन्न रूपों को थाट कहकर
चिन्हित किया जा सकता है उस आधार पर रागरागिणियों का वर्गीकरण पहली बार भातखण्डे
ने किया। अभी भी बहुत सारे लोग इस काम को हवा में उड़ा देते हैं। अभी हाल में
इन्टरनेट पर नज़र आया एक शख्स कह रहे हैं कि थाट से राग-रूप का थाह भी पाना सम्भव
नहीं है। कौन कहता है भाई कि सम्भव है? भातखण्डे ने कहा है? भाव का थाह, प्राण का
थाह सचमुच नहीं मिलता है। लेकिन हड्डियों का थाह तो मिलता है! और उस समय यही
सर्वाधिक क्रांतिकारी काम था। सात स्वरों के सप्तक में सा और पा स्थिर; बाकी बचे
पाँच में से मा की कड़ी और शुद्ध तथा रे, गा, धा, नि का कोमल और शुद्ध – दस स्वर,
दस रूप। जितनी भी हो राग व रागिणियाँ, उनके दस अमूर्त वर्ग या श्रेणी का निर्माण।
बाँध दिया उन्होने। ऐसा बाँधा कि पूरा भारत मान लिया वह
बंधन। गायक हैं आप? वादक? जौनपूरी साध रहे हो उस्ताद? साधो! शायद तुम्हारे मन
तस्वीरें उभर रही हैं… शरदॠतु में छोटे कस्बे के रास्ते को जब तुम सुबह स्कूल जाने
के लिये पार करते थे, रामतीरथ की दुकान पर जलेबियों का गंध भुला देता था संस्कृत
शिक्षक की पिटाई… दो पैसे की जलेबी खरीद कर बैठ जाते थे आम के बगीचे में… धूप चढ़ती
थी धीरे धीरे, पत्तों की ओट से छन कर आती थी रोशनी… गाओ, बजाओ, जी भर कर याद करो
उस सुबह की आनन्द भरी वेदना! तुम्हे बिल्कुल याद रखने की जरूरत नहीं कि जौनपुरी का
थाट क्या है। लेकिन भाव के विस्तार में कहीं आसावरी का कोई अंग छू जाने का मन करे
तो बाद में सोच लेना कि थाट जौनपुरी का भी तो आसावरी ही है।
तो क्या थाट की अवधारणा संगीत की स्वाभाविक गति को अवरुद्ध
करता है? कमल की कलियों को नारियल की रस्सियों से बाँधने की कोशिश करता है? सीताजी
के दिये हुये मोतियों की माला में से मोती तोड़ कर दाँतों से चबा कर देखना कि खाने
की चीज तो नहीं – जैसी हास्यास्पद कोई बात हुई?
या तर्क की राह पर एक बड़ी मुक्ति को सम्भावित किया गया? यही
सवाल है। आधुनिक युग के साथ तथा भारत के राष्ट्रीय अभ्युदय के साथ भारत की
सांस्कृतिक परम्परा को जोड़ने की सही दिशा का एक निर्णय है यहाँ – भातखण्डे के काम
में।
मदुरई स्थित मीनाक्षी मन्दिर के अन्दर एक खम्भा है जो
वस्तुत: बाईस पतले खम्भों का एक गुच्छा है। पतले खम्भों के बीच में खाली जगह है।
कोई पतली सी चीज से अलग अलग बजाने पर बाइस भिन्न स्वर उत्पन्न होते हैं। लोग कहते
है कि वे बाइस श्रुतियाँ हैं। है न अद्भुत? इतनी जटिल एक ट्युनिंग फॉर्क, वह भी
पत्थर की बनी और एक सप्तक के बाइस स्वरों के लिये! सदियों पहले बनाई गई!
भारत की शास्त्रीय संगीत परम्परा का जो विपुल वैभव है, सदियों
से उस परम्परा के जीवित रहने का जो अनन्य फल है रागरागिणियों का प्रतिष्ठित
सामाजिक सम्बन्ध (लगभग सामाजिक अवचेतन का अंग बन चुका उनका, दिन-रात के प्रहरों के
अनुसार सुर व भावजनित सूक्ष्म भेद), अनहद नाद की कल्पना की जो गूंज प्राच्य की
विश्वदृष्टि पर भी एक खास रंग चढ़ा रखा है इतने वर्षों से… इन सभी बातों को छोटा कर
के आँकने का आरोप अगर कोई करता है तो वह पागल का प्रलाप होगा।
2 – संगीत सम्मेलनों का आयोजन
थाट के आधार पर रागरागिणियों के वर्गीकरण के बाद दूसरा
महत्वपूर्ण काम या जिसे कहा जाता है दूसरा ऐतिहासिक मुहुर्त था संगीत सम्मेलनों का
आयोजन। तथाकथित शुद्धता के तिलिस्म से संगीत को बाहर निकालने का, घरानाओं के
exclusivity को तोड़ने का एवं शास्त्रीय संगीत के एक लोकप्रिय (विशारदों की भाषा
में चटकीला और सस्ता) लघु रुप का जो विकास हुआ था उसके प्राण3 को जीवित
रखने का कदम था यह, संगीत सम्मेलनों का आयोजन।
इस काम में भी भातखण्डे साहब ने राह दिखाया। हालाँकि
जालन्धर का हरिबल्लभ संगीत सम्मेलन का दावा है कि उनका सम्मेलन सबसे पुराना है –
सन 1875 से शुरू हुआ है। हो सकता है। पर जिस उद्देश्य की बात कर रहा हूँ उस
उद्देश्य के साथ सम्मेलन बीसवीं सदी के दूसरे दशक से शुरू हुआ था। क्योंकि
भातखण्डे साहब को तब तक इस काम में सफलता हासिल होना सम्भव नही था जब तक वह खुद
संगीत पर अपने ऐतिहासिक शोध के कारण संगीत-समाज में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते। हुआ
यूँ कि बड़ौदा के महाराजा (भारतीय कला, शिक्षा, पुस्तकालय आदि के आधुनिकीकरण को
प्रोत्साहित करने वाले संरक्षक के तौर पर
यह प्रसिद्ध हैं) के बुलावे पर भातखण्डे (एवं शायद विष्णु दिगम्बर पलुस्कर भी)
वहाँ एक संगीत विद्यालय की स्थापना के लिये सन 1916 में गये। उसी विद्यालय की
तैयारी के क्रम में भातखन्डे ने संगीत सम्मेलन का प्रस्ताव दिया। इसी तरह बड़ौदा
में आयोजित हुआ ऐतिहासिक पहला अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन। इस सम्मेलन में पूरे देश
से 400 से अधिक प्रतिभागी संगीतज्ञ आये थे। कार्यक्रम की शुरुआत में भातखण्डे ने
एक दीर्घ सारगर्भित भाषण दिया जो बाद में A SHORT HISTORICAL
SURVEY OF THE MUSIC
OF UPPER INDIA के नाम से प्रकाशित हुआ। इस भाषण के शुरु का एक पैराग्राफ
थोड़ा लम्बा होते हुये भी मैं उद्धृत करना चाहुंगा क्योंकि राष्ट्रवादी-तर्कवादी
जिस पुनराविष्कार की मैं बात कर रहा हूँ उसका स्पष्ट परोक्ष जिक्र इस पैराग्राफ
में है:-
“A satisfactory feature of the Renaissance
of Indian culture and Indian ideals, which characterises the intellectual activity in
India of the present day, is the attention that
is paid to the revival of our ancient music. The keen interest evinced by the present generation in the preservation and
further progress of this national heirloom has materialised
itself broadly speaking, in two different aspects. On the one hand, one notices the movement of learned scholars
from all parts of India meeting in national conferences
with a view to focus attention on and co-ordinate the results of research grappling with the technical side of the
question; su;h as for instance, the working out of
a system of uniform and adequate notation; the systematising of the ragas at
present sung in the northern part of the country,
so as to make the same easy of instruction and
assimilation, and so forth. On the other hand, one welcomes the growth of
numerous music clubs and schools of music,- and
with it the facilities offered for a serious and
thorough-going study of the art,-and its gradual introduction into our
homesteads.
Both these aspects are complementary of each other,
neither is complete without the other.
The learned but. dry-as-dust disquisitions of our theorists would be fruitless waste of time if they did not succeed in
evoking some interest on the part of the public in
the art; while the Gayan Samaj would be a deplorably shaky superstructure
without the firm foundation of the science.”
बाद में तो देश के विभिन्न शहरों में इस तरह का संगीत
सम्मेलन अत्यन्त लोकप्रिय हो उठा। स्वतंत्रता के बाद ऑल इन्डिया रेडिओ या आकाशवाणी
द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलनों को एक विशेष महत्व कायम हुआ संगीत जगत में। देश के अन्य शहरों में बड़े संगीत सम्मेलनों में
तो गेटपास आदि की व्यवस्था होती थी, पर पटना ने एक खास मुकाम बनाया। दुर्गापूजा से
कालीपूजा तक की अवधि में दर्जनों सांगीतिक आयोजन, सम्मेलन नहीं तो उससे कम भी
नहीं! गेटपास यहाँ भी होते थे पर सड़क पर या कॉलेज ग्राउंड या पार्कों में पंडाल
लगाकर कार्यक्रम होता था रातभर एवं हजारों श्रोता उस पंडाल के घेरे के बाहर मैदान
में बैठकर या खड़े, संगीतज्ञों को सुनते थे, देखते थे। जनता के साथ रिश्ता बनाने के
इस संघर्ष में, जनता का प्यार बटोरने की व्यग्रता में कई कलाकार (जैसा कि सुनने को
मिलता था) अपनी फीस तक नहीं लेते थे। बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत हाथ में खल्ली
थमाकर किया जाता है। एक महत्वपूर्ण पर्व होता है वह परिवार का। तो संगीत का श्रोता
बनने की शुरुआत को अगर ‘कान में खल्ली’ कहा जाय तो वह पर्व तो हमारा भी पटना के ही
स्टेशन गोलम्बर, चिल्ड्रेन्स पार्क, बीणा सिनेमा परिसर, सचिवालय परिसर, गोविन्द
मित्रा रोड, सब्जीबाग मोड़, पटना कॉलेजियेट, स्टेट बैंक - महेन्द्रु परिसर, गांधी
मैदान आदि में बिताई गई रातों में हुआ है। किस किस को सुनने व देखने का सौभाग्य
हुआ उन्हे याद करने में भी पटना की जनता के प्रति कृतज्ञता से सर झुक जाता है।
संगीत सम्मेलनों/आयोजनों में बजती हुई तालियाँ एवं ‘जनता की
मांग’ अगर भारतीय संगीत के यात्रापथ में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक कारक के रूप में
विशारदों के भौंहों के सिकुड़न के आगे नहीं जा पाता तो शायद हम शास्त्रीय
संगीतज्ञों को अपने बीच इतना अपनेपन के साथ नहीं पाते।
3 – संगीत विद्यालय की स्थापना
महान
संगीतज्ञ हमें गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से ही मिले हैं। आज भी, बाहरी रूपों
में सन्तुष्ट न रह कर अगर संगीत की गहरी सच्चाई का सामना करना ध्येय हो तो गुरु के
पास गन्डा बाँधना पड़ेगा। रविशंकर, अली अकबर हों या आमीर खाँ और भीमसेन जोशी – एवं
उनके गुरु भी – इसी परम्परा में संगीत के शिखरों का निर्माण किया (दक्षिण के संगीत
के श्रोता क्षमा करेंगे कि चूंकि दक्षिण भारतीय संगीत इतना कम सुनने और समझने को
मिला, सुब्बुलक्ष्मी या बालमुरलीकृष्ण जैसे किम्बदंतियों का नाम जानते हुये भी
नहीं ले रहा हूँ)। लेकिन यह भी सच है कि उन्निसवीं सदी के अन्त तक जैसे जैसे संगीत
की दुनिया क्षय के तिलिस्म में कैद होता जा रहा था, बुरे गुरु एवं बुरे शिष्य
दोनों पैदा हो रहे थे। जिनके कारण इस तरह की बातें चल निकली कि ‘संगीत सीखना हो तो
गुरुजी के हुक्के को फूंक फूँक कर लहकाते रहो साल दर साल, पैर दबाते रहो… तब कहीँ
उनका आशीर्वाद मिलेगा’ वगैरह।
फिर सब को उस्ताद बनना भी तो नहीं रहता है। कोई थोड़ा सा
सीखना चाहता है, कला को समझने के लिये, फुरसत में अपनी खुशी से कुछ गाने बजाने के
लिये। किसी के पास ज्यादा वक्त नहीं है – कुल तीन साल, फिर पिताजी रिटायर करेंगे,
परिवार का बोझ उसके कंधों पर आ जायेगा। किसी के पास पैसे भी नहीं है!
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर, महान
गायक एवं संगीतज्ञ ने सन 1901 के 5 मई को लाहौर
में स्थापित किया देश का पहला संगीत विद्यालय – गन्धर्व महाविद्यालय।
स्वतंत्रता के उपरांत यह महाविद्यालय मुम्बई में स्थानान्तरित हो गया।
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के महान कामों का जिक्र अलग
से होना चाहिये। श्रोतावर्ग को सम्मोहित करने वाले एक महान गवैया थे वह। तत्कालीन
रिवाज के अनुसार मेरज के राजा उनके संरक्षक भी बने। लेकिन वह राष्ट्रवादी थे, जनता
के करीब संगीत को ले जाना चाहते थे। राजा-रजवाड़ों से डरते भी नहीं थे। अपने गायन
कार्यक्रम में उन्होने राजाओं या अंग्रेज अतिथियों का सिगरेट पीना बन्द करवा दिया।
सौराष्ट्र गये तो अपना खर्चा उठाने के लिये अपने गायन कॉन्सर्ट का आयोजन किया बिना
किसी रजवाड़े के संरक्षण के। कॉन्सर्ट का आनन्द लेने के लिये टिकट के व्यवस्था की
शुरुआत की और जनता पर भरोसा किया। लाहौर में गन्धर्व महाविद्यालय के लिये किसी
राजा से मदद नहीं ली, सिर्फ अपने कॉन्सर्ट में मिले पैसे एवं जन-अनुदानों पर चलाते
रहे। अपनी नोटेशन पद्धति विकसित की, पाठ्यक्रम तैयार किया। बाद के दिनों के के कई
बड़े संगीत-महारथी उस महाविद्यालय के छात्र रहे। संगीत स्वरलिपि की रचना की एवं 70
से अधिक पुस्तकों - संगीत परिचय, गायनविधि एवं विभिन्न वाद्ययंत्रों पर – की रचना
की। विख्यात रामधुन, ‘रघुपति राघव राजाराम’ उन्ही की रचना है। कांग्रेस के
अधिवेशनों में उनका ‘वन्देमातरम’ एवं अन्य राष्ट्रवादी गीतों का गायन एक अनन्य
अनुभव होता था। ऑल इन्डिया गन्धर्व महाविद्यालय मंडल आज अपनी शाखाओं के साथ उनके
कामों के विरासत को आगे बढ़ा रहा है। इस संस्था के वेबसाइट पर अंकित है पलुस्कर की वाणी:-
“सभी को अल्प शुल्क में उच्च संगीत शिक्षा आसानी से प्राप्त
होने के लिये विद्यालयों की स्थापना करना तथा निर्व्यसनी, अनुशासनपर और सच्ची
निष्ठा से काम करने वाले संगीत कलाकार-शिक्षकों का निर्माण करना, यह मेरा एकमात्र
ध्येय था।
“इसके लिये ही आजतक मैंने कष्ट उठाये, और अन्तिम क्षणों तक
उठाता रहूंगा।”
भातखण्डे की सारी किताबें इस महाविद्यालय की स्थापना के
बरसों बाद प्रकाशित हुई, इस लिहाज से ऐतिहासिक कालक्रम में इस घटना का जिक्र पहले
होना चाहिये! लेकिन जैसा कि शुरु में कह चुका हूँ कि मैं इस निबन्ध में
ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति का प्रयोग कर रहा हूँ। विद्यालय या महाविद्यालय की
स्थापना मानकीकरण (रागों का वर्गीकरण), मानकीकरण पर सामान्य सहमति (संगीत सम्मेलन)
के बाद तीसरा ऐतिहासिक मुहुर्त है। इसीलिये इसका जिक्र अब कर रहा हूँ।
आज संगीत महाविद्यालय बहुत सारे हैं। उनके स्तरों में भी
गिरावट आया है। थोड़ी सी पढ़ाई और परीक्षा पर डिप्लोमा एवं स्नातक की डिग्री के
सर्टिफिकेट आसानी से मिल जाते हैं। पत्राचार पर भी कोर्स चल रहे हैं। पर जब
पलुस्करजी ने महाविद्यालय स्थापित किया उस समय वह एक क्रांतिकारी कदम था और बहुतों
के लिये सोचना भी मुश्किल था।
4 – लोकसंगीत एवं शास्त्रीय
संगीत के बीच के सम्बन्धों का पुनराविष्कार
मैंने भरसक ढूँढ़ा लेकिन इस दिशा से अतीत को खंगालने का कोई
काम 1920, 30 या 40 के दशक में होने का सबूत नहीं मिला। एक सिद्धांत के रूप में
शायद जिक्र हुआ होगा पुस्तकों में लेकिन शोध की शुरुआत नहीं हुई। शायद वह काम
निरर्थक भी होता क्योंकि दो हजार से अधिक वर्ष पहले से (जैसा कि प्राचीन ग्रंथों
का रचनाकाल तय करनेवाले विद्वान बताते हैं) जो संगीत अपने लोकायत जड़ों से खुद को
अलग कर एक विशद शास्त्र के रूप में विकसित हो रहा था, उसके जड़ों को दोबारा ढूंढ़ा
नहीं जा सकता था। शास्त्रीय संगीत का पुनर्जीवन नये तौर पर जनता से जुड़ने एवं
लोकसंगीत के साथ जुड़ने के माध्यम से ही हो सकता था। वही हुआ। विष्णु दिगम्बर
पलुस्कर से कुमार गन्धर्व तक एवं उसके बाद भी, बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ बार बार यही
करते रहे। हाँ, ऐसा जरूर प्रतीत होता है कि शास्त्रीय गायन, गायकी एवं उसके
विभिन्न अलंकारों को सरल रूप में जनता तक पहुँचाने के लिये शुरुआती दौर के
राष्ट्रवादी संगीतज्ञ, विभिन्न लघु शास्त्रीय रूपों में से भजन को प्रधान माध्यम
के रूप में इस्तेमाल किया – नये नये भजन भी रचे या सुर में बांधे गये; बाद के
संगीतज्ञ ठुमरी, दादरा और फिर कजरी, होरी आदि सभी रूपों को लेकर जनता के बीच
पहुँचे। रागों के भाव के प्रसार में सचेत रूप से लोकगीत के पास पहुँच जाना आज बहुत
स्वाभाविक लगता है। यह काम किया गया, कई दशकों में।
लेकिन फिर भी, यह तो कहना ही पड़ेगा कि शोध की एक धारा के
रूप में शास्त्रीय संगीत के साथ इस विशाल देश के अलग अलग प्रान्तों या क्षेत्रों
के लोकसंगीत के सम्बन्धों के पुनराविष्कार पर जो काम संभावित था, आज भी संभावित
है, वह नहीं हुआ। कुछेक किताबें या लेख जरूर मिलेंगे जहाँ तहाँ, कुछेक राग,
लोकधुनों के साथ जिनका रिश्ता अभी भी स्पष्ट एवं श्रुतिगोचर है, उन पर चर्चा करते
हुये विडियो मिल जायेंगे लेकिन एक सांस्कृतिक टास्क के रूप केन्द्रीय या राज्य
सरकार के स्तर पर इसे लिया नहीं गया। इस क्रम में ढूँढ़ते हुये दक्षिणी संगीत के
विद्वान Dr.
S.A.K.Durga का एक निबन्ध http://www.indianfolklore.org/journals/index.php/Music के साइट पर मिला - Transformation of Folk tunes into Ragas of
Classical Music । यह जानकर भी तकलीफ हुई कि इनके इस निबन्ध के बारे में जानकारी मिलने के
ठीक तीन दिन पहले, 20 नवम्बर 2016 को इनका निधन हो गया। निबन्ध का शीर्षक ही बताता
है कि कितनी गंभीरता के साथ इस दिशा में वह सोच रही थी। चुँकि वह सिर्फ संगीतज्ञ
ही नहीं, संगीत-वैज्ञानिक, एथ्नोमुजिकोलोजिस्ट थीं, इस छोटे से निबन्ध में भी अपने
वैज्ञानिक सोच का प्रमाण रखीं। लेख में उदाहरण के तौर पर उन्होने एक दक्षिणी राग
पर विचार किया है, उस हिस्से का उद्धरण हमें समझ में नहीं आयेगा। लोकगीत/धुन को
राग में बदलने की प्रक्रिया को एवं उसे विश्लेषित करने की पद्धति को कितनी
स्पष्टता के साथ वह समझती थीं यह गौर करने लायक है।
The transformation process of a folk tune
into a raga of Indian Music is a smooth transition with the
expansion of the folk tune by:
1. The extension of the range by having a
minimum of one octave.
2. Framing a scale for the tune within the
octave.
3. Codification of rules for the
elaboration of the melody within the framework of the scale.
4. A name for each scale for its identity
of the Raga.
5. Melodic pattern with certain type of gamaka within the framework of the
same scale will also give the identity are called allied ragas. …
5 – लोकसंगीत का संग्रह-कार्य एवं शोध
भारत सरकार की संस्था सेन्टर फॉर इन्डियन लैंग्वेजेज के
पोर्टल पर लोकसंस्कृति पर शोधकार्य के विशेषज्ञ जवाहरलाल हांडु का एक सुन्दर, विशद
निबन्ध है लोक लोकसंस्कृति के विभिन्न पहलुओं के बारे में। उसमें वह लोकसंस्कृति
के अध्येताओं, अध्ययन व शोधकार्य को तीन कालखण्डों में विभाजित करते हैं – मिशनरी
काल (जिसमें मिशनरियों के अलावे अंग्रेज सिविल सर्वेन्ट्स भी शामिल हैं),
राष्ट्रवादी काल एवं एकैडेमिक काल। (http://ccrtindia.gov.in/regionalmusic.php
Centre for Cultural Research and Training, Government of India)
इस काल विभाजन के सही या गलत होने पर यहाँ विचार करने की
जरूरत नहीं। क्योंकि सामान्य नजरों से भी तीन कालखण्ड तो दिखते ही हैं, नामकरण जो
भी किया जाय। फिलहाल, यह कहना चाहता हूँ की लोकगीतों के अध्ययन व शोधकार्य के भी
वे ही कालखण्ड होंगे। लेकिन उन गीतों का सांगीतिक पक्ष – धुनें, गायन पद्धति,
वाद्ययंत्रों का प्रकार, वादन पद्धति – पर अध्ययन स्वाभाविक तौर पर थोड़ा बाद में
शुरू हुआ होगा एवं तकनीकी प्रगति के बाद यानि छायांकन, फिल्मांकन, विडियो/ऑडिओ
रेकॉर्डिंग आदि सुविधाओं के विकास के बाद तेजी से आगे बढ़ा होगा।
जितना यह क्षेत्र आगे बढ़ा, विभिन्न क्षेत्रों के गीतों,
धुनों व वाद्यों के बारे में जानकारी मिलने लगीं, शास्त्रीय संगीत विशारद, गायक और
वादकों ने क्या कोशिश कीं कि उन धुनों व बोलों में से कुछ और अधिक को अपने गायन,
वादन में शामिल किया जाय? या वे पहले से चले आ रहे बोलों व धुनों के शास्त्रीय
विस्तार में ही सिमटे रहे?
साथ ही, पहले किसी और सन्दर्भवश चर्चा किये जाने के बावजूद
फिर यहाँ कहना चाहूंगा कि बिहार में लोकगीतों (धुनों, गायन पद्धति, वाद्यों आदि की
रेकॉर्डिंग सहित) पर अध्ययन अभी भी कमजोर है, और दिन बीतने के साथ साथ यह और अधिक
कठिन होता जा रहा है क्योंकि कुछेक गीत लुप्त हो रहे हैं एवं कुछेक गीतों को
भोंड़ा बाजारीकरण लगभग खा गया है।
6 – नये संगीत की रचना
यह एक विशाल क्षेत्र है एवं इसके कई आयाम हैं। इस क्षेत्र
में काम चौथे एवं पाँचवें ऐतिहासिक मुहुर्त के काफी पहले से जारी है। फिर भी इस
काम को मैं छठे मुहूर्त के रूप में रख रहा हूँ। इसकी चार धारायेँ परिलक्षित होती
हैं – (क) शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने एवं जनता की भावनाओं तक पहुँचाने के
लिये रचे गये भजन व अन्य लघु शास्त्रीय गीत, (ख) थियेटर एवं बाद में सिनेमा के
गीत, (ग) सुगम संगीत – आधुनिक गीत (यह शब्द बंगला में चलता है, हिन्दी क्षेत्र में
गैर-फिल्मी एक शब्द चल पड़ा है जो अटपटा है), (घ) स्वदेशी गीत, देशप्रेम के गीत, आन्दोलनों
के गीत, जनवादी गीत, लोकगीतों में नये बोल। इन चारों से अलग, भारतीय संगीत के
विकास का एक और पहलू इसी मुहुर्त के साथ मैं गिनाना चाहूंगा और वह है वाद्यवृन्द
या ऑर्केस्ट्रा; सृजन की एक बिल्कुल नई, फॉर्म में योरोप से आयातित धारा।
इन सभी धाराओं का प्रभाव एक दूसरे पर पड़ते रहा है एवं इनके
विकास के प्रमुख कारकों में स्वाधीनता-संग्राम, क्रांतिकारी जनाआन्दोलनों का विकास
तथा (अत्यन्त महत्वपूर्ण) श्राव्य/दृश्य प्रौद्योगिकी का चमत्कारिक विकास।
इनमें सबसे पहली धारा थियेटरी संगीत और आन्दोलन के गीतों की
ही है। और भाषाओं को तो नहीं जानता हूँ पर उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही बंगला
थियेटर में रचे जाने लगे नये गीत जो रागाश्रयी भी होते थे (कीर्तन सहित) एवं
योरोपीय धुनों पर आधारित भी होते थे। शायद थोड़े ही दिनों के अन्दर भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र के नाटक हिन्दी क्षेत्र में खेले जाने लगे एवं उनके क्रान्तिकारी गीत
जनता के बीच आने लगे।
साथ ही, पार्श्वसंगीत के तौर पर कुछेक विलायती वाद्ययत्रों
के साथ अधिक से अधिक भारतीय वाद्यों, तालवाद्यों को एकत्र कर तैयार किया गया
भारतीय वाद्यवृन्द एवं वृन्दगान की नई सम्भावना। ढोल, खोल, मृदंग, करताल, पखवाज,
एस्राज, सारंगी आदि यंत्रों का कॉन्सर्ट शायद पहले भी होता था पर थियेटर की जरुरत
ने वृन्द-संगीत को भी नया मात्रा दिया।
दूसरी ओर, इसके साक्ष्य हैं कि 1857 में हुये प्रथम
स्वाधीनता-संग्राम में पूरे प्रभावित क्षेत्र में खड़िबोली हिन्दी, राजस्थानी एवं
अन्य बोलियों में नये गीत रचे गये एवं खूब गाये गये। दुखद है कि वे गीत किन धुनों
में गाये गये यह हम आज नहीं जान पायेंगे।
एक तरफ शास्त्रीय संगीत के नये लोकप्रिय रूप तो दूसरी ओर
थियेटरी संगीत (जिसमें योरोपीय धुनों के पुट भी थे), साथ में नव-आविष्कृत लोक व
ग्राम्य गीतों शहरी मध्यवर्ग में स्वीकृति, इस तीन-तरफा सांगीतिक परिप्रेक्ष्य में
उभर कर आये स्वदेशी गीत, देशप्रेम के गीत। खास कर बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर से
कुछ वरिष्ठ तो कुछ कनिष्ठ, गीतकार-सह-सुरकार-सह-गायकों की एक पीढ़ी आई जिनमें
द्विजेन्द्र लाल राय, काजी नज़रुल इसलाम, अतुल प्रसाद सेन आदि के नाम प्रमुख
हैं।
इसी समय पहला ग्रामोफोन आया 78
आरपीएम का रेकॉर्ड लेकर। तीन मिनट तक बजता है। तीन मिनट के अन्दर किसी राग या
रागिनी का चलन, लघु संगीत में भी, कभी ‘पाप’ समझा जाता होगा। लेकिन उपाय नहीं रहा।
कथासाहित्यिक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के बारे में कहा जाता
है कि जब उनके किसी मित्र ने उनसे किसी शास्त्रीय गवैये की तारीफ की तो उन्होने
पूछा, “कह रहे हो बड़ा गवैया है, रुकना तो आता होगा उसे?” रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी
बहुत चिढ़ते थे कुछ शास्त्रीय गायकों की, निरर्थक पुनरावृत्ति के साथ गायन को लम्बा
खींचते जाने की इस आदत से। ग्रामोफोन यानि कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार ने एक हद तक
इस आदत में सुधार ला दिया। पहले तो किसी राग का परिचय तीन मिनट के अन्दर देने का
अभ्यास और फिर 33 आरपीएम का रेकॉर्ड आने पर 20 मिनट में राग की अभिव्यक्ति। यह
पाबन्दी सिर्फ रेकॉर्डिंग के लिये थी पर सामान्य गायन/वादन पर भी इसका असर पड़ा।
पुनरावृत्तियाँ कम हुई। बेहतर, कल्पनाशील, सृजनात्मक गायक/वादकों को ज्यादा अवसर
मिलने लगा।
इस समय के थोड़ा पहले से ही एक महत्वपूर्ण कार्य चल रहा था
बड़े कलावन्तों के गायन को स्वरलिपि में उतारने की कोशिश एवं प्रकाशन।
आ गया सिनेमा, टॉकी, साउन्ड-रेकॉर्डिंग। साथ ही साथ एक नई
चुनौती आई गीतों की दुनिया में। ऐसा नहीं कि यह चुनौती थियेटर में नहीं थी। लेकिन
सिनेमा ने इस चुनौती को अधिक गहराई दिया। यह चुनौती थी गीतकारों के लिये। एकतरफ
सिनेमा के गीत मांगते थे acute incidentality या
तात्क्षणिक घटना-निर्भरता। दूसरी ओर गीतकारों का कवि-हृदय उन्हे खींचता था शाश्वत
मानवीय भावों की अभिव्यक्ति की ओर। इन दोनों के टकराव व सही मिश्रण से ही पैदा हुई
नई चीज, सिनेमा के गीत एवं सिनेमा से अलग नये गीत (हिन्दी में सुगम संगीत एवं
बंगला में आधुनिक गान)।
इनमें खास कर सिनेमा के गीत पूरी तरह से संगीत निर्देशक की
अवधारणा पर निर्भर था। गायक एवं हर एक संगतकार/वादक को अपने निजस्व को अलग रखकर या
संगीत निर्देशक के निर्देशानुसार काट छाँट कर सामने बोर्ड में लिखित स्वरलिपि या
नोटेशन्स, समय के निर्धारित स्लॉट के अनुसार गाना/बजाना पड़ा (आज जैसे डिजिटल
साउन्ड सिस्टेम्स की एडिटिंग भी सम्भव नहीं थी शुरू के दिनों में)।
7 – बंगला में गीत लेखन की परम्परा एवं रवीन्द्रनाथ ठाकुर
यह निबन्ध संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रवादी-तर्कवादी
पुनराविष्कार एवं नवनिर्माण के काम को ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति के अनुसार देखने की
एक कोशिश है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर चर्चा किये बिना यह निबन्ध अधुरी रह जायेगी
क्योंकि खुद एक महान गीतकार व संगीतकार होने के अलावे संगीत पर इतने अधिक
आलोचनात्मक लेखन शायद ही किसी ने किया।
लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर चर्चा से पहले बंगला
भाषा/साहित्य की उस परम्परा पर थोड़ी बातें जरूरी है जो हिन्दी से अलग है।
हिन्दी के लोकप्रिय गीतों की दुनियाँ में फिल्मी गीतों का
बड़ा महत्व है। शैलेन्द्र, साहिर एवं कई अन्य बड़े गीतकारों ने गीतों के शब्द में जो
परिष्कार एवं सामाजिक चेतना के पुट लाये वह अद्भुत है (इसमें कोई शक नहीं कि वे
हिन्दी/उर्दु के बड़े कवियों/शायरों की परम्परा में ही बने)। आज भी हिन्दी फिल्में
मूलत: म्युजिकल्स हैं – गीत पहले रिलीज होती हैं फिल्मों का आकर्षण बढ़ाने के लिये
और बाद में भी गीत ही याद दिलाती है फिल्म की (अब वो अच्छे या बुरे हों यह अलग
विषय है)। गैर-फिल्मी, सुगम संगीत एवं आज के एलबम्स, बस नये गायकों के लिये फिल्म
में ब्रेक मिलने या ब्रेक मिल चुके गायक के लिये बाजार में उपस्थिति बढ़ाने के
रास्ते हैं सिर्फ।
जहाँ तक हिन्दी काव्य-जगत के नये गीतों का प्रश्न है वे
बहुत कम सुरों में संयोजित किये गये या कवि के काव्य-पाठ के अलावे अलग से गाये
गये। लोकप्रियता भी उनकी, काव्यप्रेमियों की दुनिया से बाहर नहीं बन पाई।
फिल्म से बाहर शायद सिर्फ गज़ल (एवं कुछ भजन और कव्वालियाँ)
ही हैं, जो पूरी तरह शहरी एवं लघु शास्त्रीय गायन का हिस्सा बन कर अपने शब्दों एवं
भावों की आधुनिकता पर टिका है।
जबकि दूसरी ओर, बंगला गीतों की दुनिया बिल्कुल अलग है। आज
भी वहाँ व्यक्ति गीतकार-संगीतकार-गायकों/गायिकाओं के गान, आधुनिक गान, बैन्ड के गान
और फिर वामपंथी आन्दोलनों में पैदा हुये संगीतकारों के जनगीत, नये गायक-रचनाकारों
के ‘जीवनमुखी’ गान आदि की लोकप्रियता फिल्मी गीतों से टक्कर लेते हैं। बस श्वेत-श्याम
फिल्मों के जमाने के कुछ अमर गीत, उत्तम-सौमित्र के फिल्मों के कुछ गीत एवं हाल के
जमाने के कुछ फिल्मी गीत (जिनकी लोकप्रियता इसलिये भी बढ़ी क्योंकि तुरन्त हिन्दी
फिल्मों में भी उन गीतों का हिन्दी व्हर्जन इस्तेमाल किया गया) आज भी लोग सुनते
हैं।
पिछले डेढ़सौ बरस में बंगला गीतों की दुनिया में शब्द और सुर
की प्रगति जो कुछ हुई वह प्रधानत: बड़े गीतकारों के सांगीतिक सृजन के माध्यम से ही
हुई। हर के अपने नाम से वे गीत जाने जाते हैं – द्विजेन्द्रगीति, रवीन्द्रसंगीत,
नज़रुलगीति, अतुलप्रसाद के गान, सजनीकान्त के गान आदि। शहरों और मुफस्सिलों में तो
लोकगीति भी व्यक्ति-गायकों के नाम के साथ जुड़ कर लोकप्रिय हुये। गाँवों में
स्वाभाविक तौर पर धार्मिक ग्रामीण गीतों की एक अलग परम्परा बनी रही (वे लोकगीति के
ही हिस्सा थे) पर व्यक्ति-गीतकारों के गान वहाँ की संस्कृति को भी काफी प्रभावित
किया।
बंगाल की इस विशिष्टता के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कहा, “बंगाल
में संगीत की नैसर्गिक विशेषता है गीत, अर्थात वाणी व सुर का अर्द्धनारीश्वर रूप।
बंगाल में हिन्दुस्तानी संगीत को विशेष परिणति मिलते मिलते एक नये सृजन की शुरूआत
हो चुकी है; यह सृजन प्राणमय है, गतिशील है, शौकिया ऐय्याश का नहीं है यह सृजन –
कलाविधाता का है”…
अठारहवीं एवं पूरी उन्नीसवीं सदी में गीत रचते रहे हैं
ख्यातिप्राप्त, स्वल्पख्यात, ख्याति से दूर कवि, गीतिकार, कवियाल, भक्त एवं
सन्न्यासी। इसीलिये रवीन्द्रनाथ तक पहुँचने eक पहले ही बंगला गीतों की दुनिया
में:-
परम्परागत कीर्तन
(व्यक्तिनाम से प्रचलित सहित), श्यामासंगीत (व्यक्तिनाम से ही मुख्यत:),
कवियाल-गान (कवियाल के नाम के साथ), भजन, बांग्ला टप्पा के अलावे पूरी तरह सुर के
ढाँचे में बैठाये गये रोमान्टिक गीत भी आ चुके थे एवं शास्त्रीय
परम्परा से लिये गये सुरविहार के तरीके (हालाँकि कीर्तन के कई अलंकार खास तौर पर
बंगाल का अपना है) के अलावे, एक तरफ लोकगीति-ग्राम्यगीति के धुन तो दूसरी तरफ
विलायती धुनों का भी इस्तेमाल शुरू हो चुका था।
7 – संगीत में तर्कवाद के सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की
भूमिका
रवीन्द्रनाथ ठाकुर विष्णु नारायण भातखन्डे से उम्र में एक
साल छोटे थे। कहाँ कोल्हापुर और कहाँ कलकत्ता। फिर भी जब विश्वभारती में संगीत
विभाग खोलने का फैसला लिया जाने लगा तब रवीन्द्रनाथ ने पहले प्राचार्य के रूप
भातखण्डे का नाम प्रस्तावित किया। हालाँकि भातखण्डे ने अपनी असमर्थता जताई।
तर्कवाद, राष्ट्रवाद आदि शब्दों का इस्तेमाल न करते हुये भी
इस दिशा में संगीत पर सबसे अधिक चिन्तन रवीन्द्रनाथ ही किया। गीत लेखन, सुर-योजना
आदि का तो उनका एक अलग सृजन-संसार है ही। मिसाल के तौर पर 7 जनवरी 1935 को उन्होने
धुर्जटी प्रसाद मुखोपाध्याय (एक अन्य महत्वपूर्ण संगीत-चिन्तक) को लिखा, “कई युगों
में सृजित जो भारतवर्ष की संगीत का महादेश है, उसे अस्वीकार करने पर खड़ा कहाँ
होउंगा? – मेरे शुरु के दिनों के रचित गीतों में हिन्दुस्तानी ध्रुव-पद्धति के
रागरागिणियों के गवाह, पूरे विशुद्ध सबूतों के साथ आगामी सदी के पुरातात्विकों के
जोरदार बहस-मुबाहिसे का इन्तजार कर रहे हैं। चाहने पर भी उस संगीत को मैं इन्कार
नहीं कर सकता हूँ; उसी संगीत से मुझे प्रेरणा मिलती है यह बात जो नहीं जानते, वही
नहीं जानते कि हिन्दुस्तानी संगीत क्या है। हिन्दुस्तानी संगीत को रीति के शिकंजों
में बाँधकर जिन्होने अचल कर रखा है उन डिक्टेटरों को मैं नहीं मानता हूँ। जो कहते
हैं कि भारतीय संगीत की जो विराट भूमिका है उसके बाद फिर नये नये युगों के नये नये
सृजनों के आत्मभिव्यक्ति की कोई जगह नहीं – वहाँ सिर्फ हथकड़ी पहने हुये बन्दियों
का बार बार गोल गोल घूमते रहने का गलियारा है जिसे लांघा नहीं जा सकता… ऐसे
निन्दा-वचन के जयघोष जो स्पर्धा के साथ करते हैं उनका प्रतिवाद करने के लिये ही
मेरे जैसे बागियों का जन्म हुआ है”
यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिखे
व धुन में बांधे गये गीत एक ही दिन में रवीन्द्रसंगीत नहीं बन गये। फिर भी कही गई
क्योंकि कविगुरु ने खुद ही खुद के सामने जो चुनौती खड़ी की थी उसमें जीत मुश्किल
थी। फिर भी जीत मिली क्योंकि वह रवीन्द्रनाथ थे। अन्य किसी ने भी उस चुनौती को उस
तरह देखा नहीं।
बंगाल में संगीत काव्य का अनुचर नहीं सहचर था – भाव वाणी पर
निर्भर था। पश्चिमी हिन्द में संगीत था स्वतंत्र, वाणी पर निर्भर नहीं, खुद ही खुद
को अभिव्यक्त करने वाला। फिर भी एक क्षय की ओर जाते हुये समाज में दोनों की एकता
बन गई थी उनके विपरीतों की अतिशयता में। बंगाल के संगीत में भाव की अतिशयता के
कारण आँखों से आँसू रुकते नहीं थे। और पश्चिम के संगीत, या हिन्दुस्तानी शास्त्रीय
संगीत में भाव-शून्य गमक और अलंकारों की कलाबाजी में आँखों की कोई जरूरत ही नहीं
पड़ती थी। यानि दोनों परिस्थिति में श्रोता दृष्टि-शून्य या अंधा होता था।
इसी जगह पर खड़े होकर, बचपन में शास्त्रीय संगीत के परिवेश
में पाले गये, जवानी में आमजनता के संगीत समागमों के कुछ रूपों से आकर्षित एवं कुछ
रूपों की विकृति से चिन्तित, जमीन्दारी के परिदर्शन के दौरान ग्राम्यसंगीत/बाउलसंगीत
सुन विह्वल एवं सबसे महत्वपूर्ण बात कि संगीत को लेकर सोच की आधुनिक धारा के बारे
में वाकिफ-ए-हाल रवीन्द्रनाथ ने अपने गीत-लेखन के सृजनसुख की समीक्षा की। समीक्षा
के बाद कमसे कम दो नियम तो अपने उपर लागू कर डाला, यह स्पष्ट है। लागू करना सिर्फ
अपने लिये ही संभव था लेकिन दिशानिर्देश सब के लिये दे गये।
पहला, सुरों की गैरजरूरी कलाबाज़ी, कन्ठस्वर की गैरजरूरी नक्काशी
का इस्तेमाल नहीं किया जाय (गीत के धुनों के अलावे जहाँ शब्द-विहीन सिर्फ सुरों का
ही विहार है वहाँ के लिये भी यह मार्गदर्शन रहा) और गीतों की प्रस्तुति यानि
रूपायण, उच्चारण में (बेशक शब्दों में भी क्योंकि काव्यगुण का प्रश्न है) भावुकता
को कठोरता के साथ परिहार किया जाय।
कवि ने अपने तरीके से कहा, “शतदल पर एक पंखुड़ी भी अतिरिक्त
लगाना मंजूर नहीं। अपनी सम्पूर्णता में वह रुक पाया है इसीलिये वह असीम है।”
वस्तुत: संगीत से की गई यह पहली मांग भारतीय संगीत के लिये
नई नहीं थी। हाँ, बहुत दिनों के बाद एवं लोकायत भाषा में कही गई थी। गायन या वादन
के सभी क्षेत्र में, सभी अंश की प्रस्तुति (शब्दहीन अंश सहित) में भावचित्र के
सांगीतिक रूप का विकास ही एकमात्र लक्ष्य हो, गायक या वादक का कलाकौशल सिर्फ उसी
उद्देश्य को निवेदित हो, तार्किक यह सोच संगीत के पूरब और पश्चिम से निरपेक्ष तो
है ही आधुनिक और पुरातन से भी निरपेक्ष है। यह सर्वकालीन एवं विश्वजनीन सत्य है।
पूरी दुनिया सभी बड़े संगीतज्ञ, गायक, वादक या कम्पोजर जब सृजन के उन्माद में खो
जाते हैं, मन के भावचित्र के अलावा कुछ भी उनके ध्यान में नहीं रहता है। भारतीय
संगीत जगत के महान कलाकार इनसे अलग नहीं। कवि के समसामयिक दुनिया में भी कई ऐसे
गुणी कलाकार थे। कुछ के नाम तो कवि खुद ही लेते हैं। पर वह सामाजिक क्षय की त्वरित
हो रही गति को देख रहे थे। क्योंकि मनोरंजन की वाणिज्यिक दुनिया उस समय इस देश में
शुरूआती दौर में थी। इस काल-व्याधि एवं कविगुरु की दुश्चिन्ताओं के महत्व पर फिर
लौटूंगा अन्त में।
रवीन्द्रनाथ की दूसरी मांग थी असुन्दर एवं विद्रुप की संगीत
का सृजन। उन्होने कहा, “संगीत का काम है मन को उस कल्पनालोक में उत्तीर्ण कर देना
जहाँ रूप की पूर्णता है। वहाँ सृजन प्रकृति के सृजन की तरह होता है अर्थात रूप को
कुरूप होने में संकोच नहीं होता है; क्योंकि उसमें भी सत्य की शक्ति है – जैसे
रेगिस्तान का ऊँट, बारिश के पानी में मेंढक, जैसे रात के आसमान में चमगादड़, जैसे
रामायण की मंथरा, महाभारत की शकुनी, शेक्सपीयर का यागो।”
अब इन चीजों के लिये फिल्मों के बैकग्राउन्ड स्कोर में कुछ
विशेष वाद्यछन्द या तालवाद्य का इस्तेमाल, कुछ डरावने या रहस्यमय आविर्भाव के सुर
के टुकड़े तो हमने डालना सीख लिया है, लेकिन शास्त्रीय संगीत में, भावचित्र के
विस्तृत रूप में इन्हे स्थान देने का अर्थ होता है हार्मनि की अवधारणा,
काउन्टरपॉयेंट्स की अवधारणा का भारतीय प्रयोग।
संगीत के क्षेत्र में रवीन्द्रसंगीत के अलावे भी कवि का एक
सृजन-क्षेत्र था। उनके हर एक नाटक या नृत्यनाट्य के गीतों के धुनों के बाद
नेपथ्य-संगीत के सृजन में उनकी अकेली कितनी भूमिका रहती थी यह तो अध्ययन का विषय
है लेकिन पूरे ट्रैक के वारे में एक स्पष्ट दृष्टि तो रहती ही थी। फिल्मों की
दुनिया के साथ भी उनके सम्बन्ध थे।
सबसे बड़ी बात थी कि प्राच्य एवं पाश्चात्य की संगीत की
विशिष्टताओं के बारे में उनकी स्पष्ट राय के बावजूद वह समझ रहे थे कि युग के
परिप्रेक्ष्य में एक नया, नाटकीय अभिघात को व्यक्त करने में सक्षम संगीत की जरूरत।
विशाल रवीन्द्रसाहित्य में यह बात प्रत्यक्ष रूप से कहाँ व्यक्त है मैं नहीं जानता
हूँ लेकिन कवि की द्वन्दात्मक विचारपद्धति इसे सम्भावित करती है। ‘संगीत की
मुक्ति’ शीर्षक निबन्ध में कवि कहते हैं, “इस विश्वयात्रा की ताल में ताल मिलाकर न
चलने पर हमारे संगीत का भी अब उद्धार नहीं है।… समय के साथ मेल नहीं रख पाने से
बड़ी से बड़ी मजबूत चीजें भी टूट जाती है।… [शास्त्रीय संगीत की गिरती स्थिति बनाम
लोकसंगीत के स्थायित्व पर कुछ चर्चा के बाद] लेकिन हमारे देश का वर्तमान जीवन सिर्फ
ग्रामीण नहीं है। उसके उपर भी और एक, अधिक बड़ा लोक-स्तर जमा हो रहा है जिसके साथ
विश्व-जगत का सम्पर्क बन चुका है। अब तक चली आ रही प्रथा के अनुसार खोलियों के
अन्दर उस आधुनिक चित्त का अब गुजर नहीं होता है। नये नये अनुभवों के पथ पर वह चल
रहा है। अभी हम दो युगों के संधिस्थल पर हैं। हमारे जीवन की गति जिस तरफ है, जीवन
की नीति पूरी तरह उस तरफ की नहीं बनी है। दोनों में टक्कर चल रहा है। लेकिन जीत
उसी की होगी जो सचल होगा।”
इसके बाद उस निबन्ध में नये किस्म के गीतों की चलन,
मुहल्लों में हार्मोनियम बजाकर गाना सीखने की चलन, नई चलन वाले गीतों में विकृतियाँ
कभी कभी असहनीय हो जाने के बावजूद प्राण की चंचलता की प्राथमिक अभिव्यक्ति के रूप
में उन्हे स्वीकार कर लेने की बातें कही गई हैं। आगे कवि कहते हैं, “एक सवाल हमारे
मन में अभी भी रह गया है, उसका जबाब देना पड़ेगा। योरोपीय संगीत में जो हार्मनी
अर्थात स्वरसंगति है, हमारे संगीत में वह चलेगा या नहीं। पहले ही धक्के में लगता
है – ‘नहीं, वह हमारे गीतों में नहीं चलेगा, वह योरोपीय है’। लेकिन हार्मनी का
इस्तेमाल योरोपीय संगीत में होने के कारण अगर उसे सिर्फ योरोपीय मान लिया जाय तब
तो यह भी कहना पड़ेगा कि शरीर-विज्ञान के अनुसार जो शल्यचिकित्सा योरोप में किया
जाता है वह योरोपीय है, बंगालियों के शरीर पर वह किया जायगा तो गलती हो जायेगी।
हार्मनी अगर किसी देश का कृत्रिम सृजन होता तब तो कोई बात ही नहीं होती। पर यह
सत्य है, इस पर देशकाल की पाबन्दी नहीं है। इसके अभाव के कारण हमारे संगीत में जो
असम्पूर्णता है उसे अगर अस्वीकार करें तो कन्ठस्वर की ताकत या दम्भ की ताकत ही
अभिव्यक्त होगा।” फिर कवि किसी और को कहते हैं, “तुम जानते हो कि संगीत में मैं
निर्मम तरीके से आधुनिक हूँ, अर्थात जात बचाकर या आचार मान कर नहीं चलता हूँ।”
लेकिन आखरी बात, वह तर्क मान कर चलते हैं। उनका पूरा
सौन्दर्यशास्त्र ही, उनके अपने बनाये गये आत्मानुशासन की कसौटी पर, तर्क की कसौटी
पर जाँचे जाने के लिये हमेशा तैयार रहता है।
अन्त में
योरोपीय दर्शन व संगीत में तर्कवाद बनाम सौन्दर्यशास्त्र एक
महत्वपूर्ण विमर्श है। उस प्रसंग को मैं यहाँ छेड़ना नहीं चाह रहा हूँ। सिर्फ जिक्र
कर रहा हूँ क्योंकि इस विमर्श या बहस के शुरू होने का शायद एक वैश्विक मुहूर्त है।
समसामयिक समाजव्यवस्था व शासकीय संस्कृति का क्षय जब त्वरित होता है, तर्कहीनता व
तर्कविरोध का बोलबाला बढ़ने लगता है। व्यवस्था अपने अस्तित्व की तर्कहीनता को
जनमानस में तर्कसंगत दिखाने के लिये खड़ा करता है तर्कहीन सौन्दर्यशास्त्र एवं
संस्कृति का प्रचारतंत्र (हमारे देश में आज मनोरंजन की दुनिया इसी प्रचारतंत्र के
अधीन है)। तब जो संग्राम शुरू करते हैं इसके विरुद्ध, परिस्थिति का बदलाव चाहने
वाले लोग, उसी संग्राम का एक पहलु है सौन्दर्यशास्त्र (यानि तर्कहीन
सौन्दर्यशास्त्र) बनाम तर्कवाद का बहस। योरोप में इस बहस का समय था रेनेसाँ; भारत
में रवीन्द्रनाथ के समय से अधिक सही कुछ कल्पना करना सम्भव नहीं है।
भारत में मनोरंजन की वाणिज्यिक दुनिया का जन्म रवीन्द्रनाथ
के समय में हुआ था। आज वह एक सब कुछ लील जाने वाली मारक बीमारी है।
मुझे लगता है कि ‘सौन्दर्यशास्त्र बनाम तर्कवाद’ के बहस को
हमें आज आगे बढ़ाने की जरूरत है।
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1॰ भारतीय संगीत परम्परा कहने पर कर्णाटकी संगीत या दक्षिण
भारतीय शास्त्रीय संगीत को भी शामिल करना चाहिये। वह नहीं कर रहा हूँ क्योंकि
उत्तर भारतीय संगीत में आधुनिक सोच के आविर्भाव के बारे में जो भी दो-एक बातें
कथा-कहानी के तौर पर जानता हूँ, दक्षिण भारतीय संगीत के बारे में वह नहीं जानता।
ज्ञान की इस सीमा के बावजूद सामान्यत: संगीत शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। वैसे
विष्णु नारायण भातखण्डे (इस महान संगीतज्ञ व संगीत-विज्ञानी पर चर्चा आगे करूंगा)
ने सन 1916 में ही बड़ौदा में भाषण देते हुये, दक्षिणी या कर्णाटकी संगीत को अपने
शोध कार्य में शामिल नहीं करने के कारण के रूप में कहा था कि अपने संगीत की कला व विज्ञान
के संरक्षण एवं शोध में, जनता के बीच पहुँच बनाने में दक्षिणी संगीत एवं संगीतज्ञ
काफी आगे बढ़े हुये हैं। आज भी यह सच है। मेरे ही इस निबन्ध में यह स्पष्ट होगा
क्योंकि कई आगे बढ़े हुये शोध-क्षेत्र की चर्चा करते हुये मुझे दक्षिणी लेखकों को
ही उद्धृत करने पड़ेगा।
2॰ भारत के प्रसंग मे मैं इन दो नजरिये की एकता पर जोर दे
रहा हूँ; हालाँकि राष्ट्रवाद और तर्कवाद इन दो नजरिये की तीव्र आपसी बहस का अधिक
महत्वपूर्ण स्थान है हमारे सांस्कृतिक इतिहास में।
3॰ यह प्राण शास्त्रीय संगीत का ही था जो उसे लोकसंगीत के
सान्निध्य में लौट कर मिला था – सिर्फ कजरी, होरी या चैती नहीं बल्कि ठुमरी, दादरा
और टप्पा या अन्य रूप भी। बंगाल का कीर्तन भी तो शास्त्रीय संगीत का ही लघु रूप
है। इसीलिए इन सभी रूपों का विकास जनता के बीच ही हुआ था। बाईजी और नर्तकियाँ हों
या अखाड़े के भक्त, आम जनजीवन का अविच्छिन्न अंग था उनका जीवन धारण।
Courtesy: Pakhi magazine (Published in their March 2018 issue)