वर्ष 1908 में
लेनिन ने तत्कालीन संशोधनवादियों के खिलाफ संघर्ष करते हुये लिखा, “एंगेल्स ने
अपने और अपने प्रख्यात मित्र को सन्दर्भ में लेते हुये कहा था कि हमारा सिद्धांत
हठधर्म नहीं बल्कि कार्य का पथप्रदर्शक है । … इसकी अनदेखी कर … हम जमाने के
निर्दिष्ट व्यवहारिक कार्यभारों से, जो इतिहास के हर नये मोड़ पर बदल सकते हैं,
इसका [मार्क्सवाद का] सम्बन्ध मिटा देते हैं ।” [‘मेटिरियलिज्म
ऐन्ड इम्पिरिओ-क्रिटिसिज्म’]
अब आइये जरा अपने
अनुभवों से इस कथन का मिलान करें । जमीनी स्तर पर ट्रेड युनियन नेतृत्व में काम कर
रहे कुछ साथी हैं जो विचार कर रहे हैं कि सदस्यता कैसे बढ़ाई जाय । संभावित नये
सदस्यों की जो सूची उन्होने बनाई है उसमें कोई मुसलमान है, कोई दलित है, कोई
ब्राह्मण है, कोई यादव …। अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि किसके पास किसे भेजा
जाय ‘मगजधुलाई’ के लिये । मुसलमान के लिये एक मुसलमान, दलित के लिये एक दलित,
ब्राह्मण के लिये एक ब्राह्मण, यादव के लिये एक यादव ढूंढा जा रहा है । तभी कोई
गुस्से से फट पड़ा, “यही हमारी सोच है ? इतनी घटिया ? और हम खुद को मार्क्सवादी
कहते हैं !” तब एक दूसरा उसे समझाने लगा, “आप ख्वामखाह गुस्से में आ रहे हैं
कामरेड । सिद्धान्त की बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती है । लेकिन वे सिद्धान्त
हैं । हम सब यहाँ मार्क्सवादी हैं और उन सिद्धान्तों को जानते हैं । आप व्यवहार की
बात कीजिये । प्रैक्टिस में आइये । जो प्रैक्टिकल है हम वही कर रहे हैं ।… थोड़ा
प्रैगमैटिक तरीके से सोचो यार !”
सवाल यह है कि जो
व्यवहारिक है वह अगर ‘मार्क्सवादी’ सिद्धान्त का क्रियान्वयन नहीं है तो हम किसका
अचार डालें ? व्यवहार का या मार्क्सवाद का ? क्योंकि उपरोक्त बातचीत में दोनों
व्यक्ति मार्क्सवाद को भाववादी ढंग से समझते हुये व्यवहार
से अलग कर रहा है – एक ‘वाद’ का खम्भा पकड़कर तो दूसरा ‘व्यवहार’ का चादर खींच कर ।
और, किसने कह दिया
कि एक खास तरह के सामाजिक/सांस्कृतिक माहौल में पले बढ़े आदमी को आन्दोलन में ले
आने के लिये अनुरूप सामाजिक/सांस्कृतिक माहौल में पले बढ़े आदमी को भेजना
गैर-मार्क्सवादी आचरण है ?
गतिशील पदार्थ के
बने इस सृष्टि में कोई भी गति दिशाविहीन नहीं है । वो क्या कहते हैं, वेक्टर, वह
भौतिक परिमाण जिसकी मात्रा भी हो एवं दिशा भी ! हर कण, हर पदार्थ की गतिरेख एक
वेक्टर है । जीवन की गति भी दिशाविहीन नहीं होती है । कहने को हम कह जरूर देते हैं
– कोई अपने जीवन को लेकर खिलवाड़ कर रहा है देख कर, लक्ष्यविहीन कहते कहते
दिशाविहीन भी कह देते हैं । लेकिन इतिहास में किसी भी मनुष्य का जीवन दिशाविहीन
नहीं है, किसी न किसी ओर है - गौर करेंगे ।
लेनिन ने कहीं कहा
भी था कि देखो वो किधर जा रहा है । अगर एक व्यक्ति अपने सामाजिक/ सांस्कृतिक
कुन्ठाओं, कूपमन्डुकताओं के भीतर से मजदूर वर्ग के संगठन में, आन्दोलनों में
हिस्सा लेने के लिये आ रहा है और दूसरा उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाने के लिये उसके
घर जा रहा है तो इसमें दोनों की दिशा पूंजी के खिलाफ मजदूरवर्ग की एकता को बढ़ाने
की ओर है, और यह जमाने के निर्दिष्ट व्यवहारिक कार्यभारों को पूरा करने के लिये
मार्क्सवाद के प्रयोग का छोटा सा उदाहरण है ।
2
लेनिन ने
मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी सारतत्व की रक्षा की, कि यह मताग्रह या हठधर्म नहीं
बल्कि कार्य का पथप्रदर्शक है । उसी पथप्रदर्शन पर उन्होने रूस में समाजवादी
क्रान्ति की सफलता के लिये रूसी मेहनतकशों की पार्टी की अगुआई की । क्रान्ति को
सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिये उन्हे निरन्तर, आजीवन, मार्क्सवाद के
क्रान्तिकारी सारतत्व को बचाने के लिये वैचारिक संघर्ष करना पड़ा । लेकिन
क्रान्तिकारी सारतत्व की रक्षा सिर्फ मार्क्स और एंगेल्स के कथन को दोहराने से तो
नहीं हो जाता है । कार्ल मार्क्स के जीवन और विचारों पर लिखते हुये लेनिन ने कहा
कि “समग्रता में मार्क्स के विचार ही, जो दुनिया के सभी सभ्य देशों के
मज़दूरवर्ग-आन्दोलन के सिद्धांत एवं कार्यक्रम है, आधुनिक भौतिकतावाद एवं आधुनिक
वैज्ञानिक समाजवाद हैं” । लेकिन, लेनिन के समय में वैचारिक तौर पर मार्क्सवादी
सिद्धांत भी और विश्व का मज़दूरवर्ग आन्दोलन भी दुश्मनों से घिर चुके थे । दुनिया
के साम्यवादी, समाजवादी व मज़दूर पार्टियों का वैश्विक मंच द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय
संशोधनवादियों का गढ़ बन चुका था, योरप के समाजवादी पार्टियों का बड़ा हिस्सा
‘युद्धकालीन राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर शासकीय युद्ध-कार्रवाईयों का साथ देने लगा था
एवं खुद रूस में, संशोधनवाद के नये नये किस्म व साथ में अति-वामपंथ भी, मार्क्सवाद
पर हमले बोल रहे थे । कितना दर्दनाक रहा होगा लेनिन के लिये वह क्षण जब उन्हे
प्लेखानोव (जिन्हे वह शिक्षक का दर्जा देते थे) या मैक्सिम गोर्की (विश्व भर में
मज़दूरवर्ग के सबसे प्रिय लेखक) के खिलाफ लड़ना पड़ा, या आगे चल कर नवोदित
सोवियत राष्ट्र को बचाने के लिये क्रॉन्साड्ट वगावत को कठोर हाथों से कुचलने का आदेश
देना पड़ा
!
बीसवीं सदी का
पहला दशक और खास कर 1905 का वर्ष विज्ञान के इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है तथा,
फलस्वरूप, इतिहास में विज्ञान (जे॰डी॰बर्नाल के ग्रंथ का शीर्षक उधार लेते हुये)
की भूमिका को भी उजागर करता है । वर्ष 1905 में अलबर्ट आइनस्टाइन का ‘सापेक्षता का
विशेष सिद्धांत’ प्रकाशित हुआ । बीसवीं सदी की शुरुआत के एन पहले परमाणु के भीतर
के कणों, खास कर इलेक्ट्रॉन की खोज हो चुकी थी । रेडियोधर्मी क्षय को कणों के
विकीरण ले रूप में परखा गया ठीक सदी की शुरुआत पर । दूसरी ओर, इसी अवधि में,
मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी सुदूर-प्रभावी काम, एक तरफ सिगमन्ड फ्रॉयड के स्वप्न
व यौनता सम्बन्धी प्रतिपादनों के रूप में तो दूसरी तरफ इवान पावलोव के शास्त्रीय
अनुबन्धन व अन्य सिद्धान्तों के रूप में हुये ।
ये सभी काम
दार्शनिक भौतिकतावाद को ही पुख्ता कर रहे थे पर आम बौद्धिक बहसों में इनका
इस्तेमाल उल्टा किया जा रहा था । जैसे:-
-
‘मैटर तो अब रहा नहीं’
-
‘तो मार्क्सवाद तो स्वीकारता है कि हमारी
सोच के परे भी चीजें हैं – यानि इम्मैनुवल कान्ट वाला थिंग-इन-इट्सेल्फ हो गया’
-
‘मैटर नहीं, इनर्जी (भौत-पदार्थ नहीं
ऊर्जा) ही महाविश्व का मूल है’
-
‘और फिर ऊर्जा भी तो अक्षय नहीं रहा, वह
कहाँ गया विकीर्ण होकर, यानि जगत एक नहीं है’
-
‘तो फिर, शाश्वत सत्य तो कुछ भी नहीं,
पदार्थ भी नहीं, उसकी गतिशीलता भी नहीं’
-
‘हमारी
नज़र, हमारा ध्यान, हमारे अनुभव, हमारे सेन्स-डाटा कुछ भी विश्वसनीय नहीं, भौतिकता
को समझने में अक्षम क्योंकि उसी गतिशील जगत के हम हिस्सा हैं’
वगैरह, वगैरह ।
ऐसी स्थिति में इन
हमलों, या इन हमलों से अधिक विज्ञान के नये आविष्कारों के आलोक में मार्क्सवादी
दर्शन, द्वन्दात्मक भौतिकतावाद को खड़ा करना जरूरी था । इसी काम को लेनिन ने किया
जो हमें ‘मेटिरियलिज्म ऐन्ड इम्पिरियो-क्रिटिसिज्म’ नाम के पुस्तक एवं कई लेखों
में देखने को मिलता है ।
लेनिन द्वारा किये
गये इस दार्शनिक प्रतिपादन, अर्थनीति में पूंजीवाद के चरमावस्था के रूप में
साम्राज्यवाद (एवं उसके आर्थिक सारतत्व के रूप में इजारेदार पूंजी) की पहचान तथा
राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक पिछड़े हुये देश को समाजवादी क्रान्ति की ओर अग्रसर
करने रणनीतिक व कार्यनीतिक सिद्धान्त के कारण ही उनके समय के उपरांत दुनिया का
मज़दूरवर्ग अपने क्रांतिकारी सिद्धान्त को मार्क्सवाद-लेनिनवाद का नाम से जानने लगा
।
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