Saturday, September 26, 2020

बलदेव पालित

बिहार के बांग्ला साहित्यकारों में बलदेव पालित एक बिसरे हुये नाम हैं । एक शिक्षाविद के रूप में वह बेहतर जाने जाते हैं, दो-तीन विद्यालयों की स्थापना की कहानी उनके नाम के साथ जुड़ी है, पर वह भी क्यों – उनकी शख्सीयत की कौन सी परत उन्हे विद्यालयों की स्थापना के लिये प्रेरित की – यह भी कम जाना गया तथ्य है । हालाँकि पटना म्युजियम से कुछ वर्ष पहले एक एल्बमनुमा ग्रंथ प्रकाशित हुआ था, ‘पटना – ए मोनुमेन्टल हिस्ट्री’ के नाम से । लेखकद्वय थे विवेक कुमार सिंह एवं प्रबुद्ध विश्वास । उस ग्रंथ में ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर टी॰ के॰ घोष एकैडमी पर भी एक पृष्ठ था । जिसमें लिखा था, “बलदेव पालित, एक महान शिक्षाविद एवं विशिष्ट बांग्ला कवि, दानापुर छावनी स्थित सैन्य पेंशन कार्यालय में कर्मचारी थे, जो बाद में गोविन्द मित्रा रोड, पटना में बस गये । उन्होने अपने दामाद तिनकड़ी घोष को वित्तीय सहायता दी [जिससे] तिनकड़ी घोष ने बांकीपुर में टी॰ के॰ घोष एकैडमी (1882) तथा गया एवं आरा में तीन और विद्यालयों की स्थापना किया । बाद में तिनकड़ी घोष ने दानापुर में अपने ससुर की स्मृति में एक और विद्यालय ‘बलदेव एकैडमी’ की स्थापना किया । …” (हालाँकि दूसरे एक जीवन परिचय में बलदेव एकैडमी के स्थापना की थोड़ी भिन्न कहानी मिलती है, जिसका जिक्र आगे मिलेगा) ।

लेखकद्वय को धन्यवाद कि इस आत्म-विमुख, अज्ञात से व्यक्ति के बारे में हमें इतना तो बताया ।

बीसवीं सदी के पचास के दशक में साहित्यकारों के प्रख्यात जीवनीकार ब्रजेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय रचित ‘साहित्य साधक चरित माला’, बंगीय साहित्य परिषद द्वारा कई खंडों में प्रकाशित किया गया । इस ग्रंथमाला के दूसरे खंड में बलदेव पालित के जीवन व साहित्यकर्म पर एक पूरा अध्याय है । उसकी भी शुरुआत होती है इन पंक्तियों से, “बलदेव पालित उन्नीसवीं सदी के बंगाल के एक यशस्वी कवि हैं । आधी सदी से कुछ अधिक पहले वह परलोक सिधारे हैं । उनका साहित्यकर्म का परिमाण कम होने पर भी उपेक्षणीय नहीं है । लेकिन दुख की बात है कि बांग्ला साहित्य में बलदेव के योगदान की बात देशवासी अभी ही भूलने लगे हैं ।” कवि होने के साथ साथ बलदेव संस्कृत साहित्य के भी अक्लांत गुणग्राही पाठक थे इस बात की चर्चा के बाद जीवनीकार इस महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करते हैं कि, “बांग्ला कविता में विभिन्न संस्कृत छन्दों का प्रवर्तन उनका प्रधानतम कृतित्व है । मालिनी, उपजाति, वस्न्ततिलक आदि कठिन संस्कृत छन्दों में बांग्ला काव्य की रचना कर उन्होने बांग्ला काव्य-रूपों के बहुविध विचित्र विकास का मार्ग सुगम कर दिया ।” जीवनीकार ने जिक्र किया है कि खुद बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय उनकी इस कवित्व-शक्ति से मुग्ध हुये एवं उन्होने बलदेव की उच्छ्वसित प्रशंसा की

बलदेव पालित की एक काव्य-संकलन है ‘काव्यमंजरी’ । शुरू में अधिकांश नीति कवितायें हैं । प्रेम, विद्या, धन, काम, प्रभात, काल, आशा आदि विषयों पर । फिर है निसर्ग के विभिन्न पहलुओं पर या तो कवि के उद्गार या उनके अपने कथन । उनमें से एक है ‘मेघ का कथन’ । कविता में मेघ, या बादल कवि को विस्तार से अपने बारे में बताते हुये अन्त में कहता है –

कृष्ण-कोल आलो कोरी थाकेन श्रीराधा,

तोड़िल्लता-भूजे तथा आमि थाकि बाँधा ।

(कृष्ण की गोद को आलोकित करती हुई रहती हैं श्रीराधा, बिजली की लताओं में बंधा मैं भी वहीं रहता हूँ ।)

संक्षिप्त जीवन परिचय*

बलदेव के पिता विश्वनाथ पालित पश्चिम बंगाल स्थित हालीशहर के निकटवर्ती कोणाग्राम में बसे पालितवंश के सन्तान थे । जहाँ तक जानकारी मिलती है, शायद 1814 इसवी में विश्वनाथ अपनी किशोरावस्था में ही चन्दननगर से, जहाँ उनके मामा का घर था, दानापुर भाग आये थे । उस वक्त दानापुर छावनी व सेना-रसद-विभाग में कई बांग्लाभाषी कर्मचारी काम करते थे । बलदेव के पिता को भी सेना-रसद-विभाग में एक छोटा सा काम मिला । शायद भाग कर आने के बावजूद परिवार से सुलह हो गया था; अंग्रेजी राज में, वह भी सेना-रसद-विभाग में नौकरी – विश्वनाथ का विवाह कलकत्ता के निकटवर्ती राजपुर के जमींदार की नातिन की बेटी से हुई । दानापुर में ही 1835 इसवी में इनके पुत्र बलदेव का जन्म हुआ । दानापुर में विश्वनाथ के प्रयासों से एक कालीबाड़ी व अतिथिगृह की स्थापना हुई थी एवं यह काम उन्हे सभी का प्रिय बना दिया था । लेकिन 1841-42 में विश्वनाथ पालित को घर छोड़ना पड़ा । सेना-रसद-विभाग का गुमा्श्ता बनकर वह अंग्रेज सेना के साथ काबुल (अफगानिस्तान) की ओर प्रस्थान किये । कुछ महीनों या एक-दो बरस के बाद अंग्रेज सेना काबुल से लौटने लगी तो रास्ते में उन पर हमला हुआ । सैनिकों के साथ विश्वनाथ पालित भी मारे गये ।

विश्वनाथ की मृत्यु के बाद सरकार ने उनके सन्तानों के प्रतिपालन के व्यय व शिक्षा हेतु वृत्ति की व्यवस्था की । पुत्र बलदेव अपने बहनोई राजकृष्ण मित्र के सब्जीबाग (बाँकीपुर) स्थित आवास में चले आये थे । वहीं रह कर वह गुलजारबाग स्थित किसी विद्यालय में पढ़ाई करने लगे । बलदेव मेधावी छात्र थे । अपनी कुशाग्र बुद्धि तथा स्मरणशक्ति के कारण वह अपने शिक्षकों के प्रियपात्र बन गये थे ।

बलदेव का विवाह, छपरा के मधुसूदन मित्र के भाई महेश चन्द्र मित्र की बेटी भगवती से हुई । मधुसूदन मित्र की सहायता से बलदेव को छपरा में एक काम मिला तथा वह वहीं रहने लगे । बाद मे बलदेव को दानापुर के सैनिक पेंशन भुगतान कार्यालय में थर्ड क्लर्क की नौकरी मिली । अपने लगन व कार्यदक्षता के कारण वह जल्द ही हेड-क्लर्क में प्रोन्नत हो गये ।   

पिता की तरह बलदेव भी जनहितैषी तो थे ही, शिक्षानुरागी भी थे । नौकरी से मिल रहे पैसों को वह विभिन्न जनहितकर कार्यों में दान कर दिया करते थे । सन 1866 में उन्होने दानापुर में एक अंग्रेजी मध्य विद्यालय स्थापित किया । यह विद्यालय बाद में सरकारी सहायताप्राप्त अंग्रेजी उच्च विद्यालय बन गया एवं बाद में उक्त विद्यालय का नाम पड़ा ‘दानापुर बलदेव एकैडमी’। (यह कहानी इस निबंध की शुरुआत में उद्धृत, पटना म्युजियम प्रकाशित पुस्तक में वर्णित कहानी से थोड़ा भिन्न है । हालाँकि बलदेव के आर्थिक मदद से उनके दामाद तिनकड़ी घोष तथा बलदेव के पुत्र यदुनाथ द्वारा बाँकीपुर में टी॰ के॰ घोष एकैडमी की स्थापना तथा गया एवं आरा में तीन विद्यालयों की स्थापना की कहानी इस स्रोत में भी मिलती है) ।

कई छात्रों के आश्रय का इन्तजाम बलदेव के पैसों से होता था । तत्कालीन दानियों के रिवाज के अनुसार, अतिथि बनकर आये ब्राह्मण पंडित कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । विद्यालय में उच्चशिक्षा-लाभ से वंचित रहने के बावजूद घर पर अपनी कोशिश से वह आजीवन नाना प्रकार के शास्त्र-अध्ययव व ज्ञानार्जन करते रहे । अंग्रेजी साहित्य, इतिहास एवं विधिशास्त्र का पाठ वह खूब बढ़िया से किये । फिर वह संस्कृत साहित्य के पाठ में मन लगाये । वेद, उपनिषद, रामायण तथा कालिदास सहित विभिन्न संस्कृत कवियों के लगभग सभी ग्रंथों का उन्होने ध्यान से पाठ किया ।

सन 1880 में माहवार 75 रुपये पेंशन के साथ वह नौकरी से सेवानिवृत्त हुये ।

7 जनवरी 1900 (बांग्ला 23 पौष 1306) को उनका निधन हो गया ।

 

साहित्य साधना

बलदेव पालित के जीवन में घटनाओं का आधिक्य नहीं था । सैन्य पेंशन भुगतान कार्यालय में नौकरी का एकरस जीवन व्यतीत करते हुये भी ज्ञानार्जन, सृजन, जनहितैषिता व शिक्षानुराग के सहारे वह आजीवन आत्मसंघर्ष चलाते रहे एवं उन्ही चारों दिशाओं में उनकी आत्म-अभिव्यक्ति होती रही ।

उनके द्वारा रचित काव्यग्रंथों की कुल संख्या है पाँच । बांग्ला साहित्य के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने उन पाँच में से एक की आलोचना यह कह कर की थी कि उसके काव्य “शारीरिक प्रवृत्तियों के उद्दीपक” हैं, लेकिन बाकी चारों काव्यग्रंथों की उन्होने प्रशंसा की थी ।

उनके काव्यग्रंथों के प्रकाशन का क्रम निम्नरूप है ।

1 – काव्यमजरी – प्रकाशनतिथि 18 सितम्बर 1868, पृष्ठ संख्या 124 (इस काव्यग्रंथ के बारे में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘बंगदर्शन’ में लिखा था, “इन कविताओं में कई उत्तम हैं । जगह जगह पर कविताई का परिचय है । कई स्थानों पर इस बात का भी परिचय है कि कवि विद्वान हैं । कई स्थानों पर नयेपन का अभाव परिलक्षित होता है । … ‘कविता का जन्म’ शीर्षक कविता हमारे लिये विशेष तौर पर प्रीतिकर हुआ है ।”)

2 – काव्यमाला – प्रकाशनवर्ष 1870, पृष्ठ संख्या 144 (इसी ग्रंथ के कविताओं की तीव्र आलोचना बंकिम ने की थी । शायद लेखक को भी मालूम था कि कविताओं की आलोचना होगी, इसलिये, गौरतलब है, कि कवि ने ग्रंथ का प्रकाशन रचनाकार के नाम के बिना हुआ था) ।

3 – ललित कवितावली – प्रकाशनतिथि 30 दिसम्बर 1870 (इस छोटी सी, 39 पृष्ठों की, पुस्तिका में भी सिर्फ “काव्यमाला के रचयिता द्वारा प्रणीत व प्रकाशित’ लिखा हुआ था क्योंकि इस पुस्तिका की कवितायें भी आदिरस से भरी हुई थी, हालाँकि बाद में रचयिता की पहचान हो गई थी) । गौर करने की बात है कि जहाँ बंकिम ने ‘काव्यमाला’ की तीव्र आलोचना सिर्फ आदिरस के कारण नहीं बल्कि घटिया, पुरानी और बासी कहकर की थी, ‘ललित कवितावली’ के बारे में उन्होने कहा, “अचानक विश्वास ही नहीं होता है कि काव्यमाला और प्रस्तुत ग्रंथ एक ही रचयिता का है । ये कवितायें अच्छी हैं । ‘काव्यमाला’ जिस घोर दोष से दूषित था, इस ग्रंथ में वह दोष नहीं है ; कहीं कहीं रत्तीभर बस, है । कवितायें मधुर भी हैं । …”

4 – भर्तृहरि काव्य -  प्रकाशनतिथि 8 अक्तूबर 1872 (बांग्ला 1279) पृष्ठ संख्या (औपचारिक पृष्ठ, भूमिका इत्यादि) + 62 । इस खंडकाव्य में राजा भर्तृहरि के वैराग्य की कथा वर्णित है और आद्योपान्त संस्कृत छन्द में रचित है । बंकिम ने इस काव्यग्रंथ की प्रशंसा की थी । ‘बंगदर्शन’ में उन्होने लिखा, “यह काव्यग्रंथ आद्योपान्त, पूर्व में अव्यवहृत संस्कृत छंद में रचित है । पहले के कवियों ने, दो एक आम छंदों को छोड़कर बांग्ला में संस्कृत के छंदों का प्रयोग लगभग नहीं किया था । सम्प्रति, ‘ललित कवितावली’ के प्रणेता एवं बाबु राजकृष्ण मुखोपाध्याय तथा अन्य नये कवियों ने इन छंदों का प्रयोग किया है । बलदेव बाबु ने इस प्रयोग में विशेष दक्षता दिखाई है । बांग्लाभाषा का जो गठन है, उसमें संस्कृत के छंद ठीक से बैठते नहीं है । लेखक विशेष तौर पर शक्तिसम्पन्न नहीं होने पर वह श्रुति-सुखद नहीं हो पाता है । बलदेव बाबु ने वह शक्ति दिखाई है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस काम को करके उन्होने बांग्ला कविता का विशेष उपकार किया है । …”

5 – कर्णार्जुन काव्य – प्रकाशनतिथि 4 अक्तूबर 1875 (बांग्ला 1282), पृष्ठ संख्या (औपचारिक पृष्ठ, भूमिका इत्यादि) + 160 । इस काव्य के बारे में बंकिम ने क्या कहा था वह उपलब्ध नहीं हो पाया । बल्कि, खुद कवि ने भूमिका में इस काव्यरचना के प्रसंग में जो बातें रखीं है, उसमें से यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ ।

“यह स्वीकार करना ही होगा कि जिस कौरव-पांडव की कथा को कवि-कुल-गुरु वेदव्यास ने अपने विश्वविख्यात महाभारत में लिपिबद्ध किया है, उसमें मेरे जैसे आदमी का हस्तक्षेप नितान्त धृष्टता होगी । लेकिन पांडवों के पक्षपाती बनकर महर्षि द्वैपायन महानुभव ने कर्ण के पात्र को उन्ही रंगों से न चित्रित करने के कारण मैं इस काव्य की रचना करने को बाध्य हुआ हूँ । …

कवि खुद कहते हैं कि चुँकि ‘भर्तृहरि काव्य’ में संस्कृत के छन्दों का प्रयोग पाठकों द्वारा यथोचित समादर के साथ ग्रहण नहीं किया गया इस लिये ‘कर्णार्जुन काव्य’ में उन्होने सिर्फ दो एक जगहों पर संस्कृत के छंदों का प्रयोग किया है ।

रचना के निदर्शन

नि:सन्देह, कवि बलदेव पालित आधुनिकतावादी कम एवं थोड़ा प्राचीनपंथी थे । इस बात का जिक्र बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय भी करते हैं । भाव एवं भाषा के प्रयोग में भी । उनके समय में बांग्ला काव्यसाहित्य में एक तरफ मधुसूदन दत्त के अमित्राक्षर छंद की क्रांतिकारिता भी प्रतिष्ठित हो चुकी थी तो कवि बिहारीलाल चक्रवर्ती की आधुनिक गीतिमयता भी । फिर भी सन 1875 में प्रकाशित ‘कर्णार्जुन’ काव्य की भूमिका में वह लिखते हैं, “कोई कोई कहते हैं कि इस काव्य का दूसरा एवं तीसरा सर्ग अमित्राक्षर (अतुकांत) पद्य में लिखने से बेहतर होता । लेकिन यह पद्धति किसी भी भाषा में, किसी भी प्रसिद्ध काव्य में परिलक्षित नहीं होता है । इसीलिये मैं उक्त मत का समर्थन नहीं कर पाया । लेकिन चौथे एवं पाँचवें सर्ग में, तुक थोड़ा दूर में रख कर मैंने अमित्राक्षर के पाठकों को थोड़ा तुष्ट करने का प्रयास किया है ।“

फिर भी, संस्कृत के इतने सारे छन्दों का बांग्ला में प्रयोग कर उन्होने तत्कालीन आधुनिकतावादियों के लिये चुनौती खड़ी की । काव्यभाषा को नई ध्वनि, नये लय का विस्तार देकर भी, जो वह खुद न कर पाये – नये भावों को अभिव्यक्त करना – उसके लिये नये कवियों का आह्वान कर गये ।

कवि संस्कृत के छंदों के प्रयोग को लेकर इतना उत्साहित रहते थे कि इन छंदों के लोकप्रिय न हो पाने के कारण के तौर पर, ‘कर्णार्जुन’ एवं ‘भर्तृहरि काव्य’ दोनों की भूमिका में उन्होने बांग्लाभाषा में बड़ीमात्रा और छोटीमात्रा के फर्क के मिट जाने को एक प्रकार से दोषी ठराया ।  साथ ही ‘भर्तृहरि काव्य’ की भूमिका में उन्होने यहाँ तक कहा कि हिन्दी में बड़ी और छोटी मात्रा के फर्क के बने रहने के कारण ही तुलसीदास और सूरदास की कविता बांग्ला के कृत्तिवास और काशीराम दास की रचनाओं से अधिक मधुर व मनोहर हैं । इस एक प्रसंग से यह बात भी सामने आती है कि बलदेव पालित हिन्दी साहित्य से भी भलीभाँति परिचित एवं उसके गुणग्राही थे ।     

कवि अपने काव्य को लेकर बिल्कुल संशयहीन रहते थे एवं हर काव्यग्रंथ के समर्थन में अपनी बातें सशक्त तौर पर भूमिका में लिखते थे । यहाँ तक कि जिस ‘काव्यमाला’ की आलोचना बंकिम ने की थी उसकी भूमिका में भी एवं एक काव्य के बहाने भी उन्होने शारीरिक प्रवृत्ति व आदिरस पर कविता लिखने के पक्ष का समर्थन भी किया है और इसकी आलोचना लोग करेंगे इस संभावना का सामना भी किया है ।

जिस ‘काव्यमाला’ की तीव्र आलोचना बंकिम ने की उसी में संकलित ‘नायिकार प्रति नायकेर उक्ति’ कविता से ली गई इन पंक्तियों को देखें -

पत्तों को नचाते, सरोवर में कुमुद से लिपटते,

बलपूर्वक खोल तुम्हारी घूंघट, अलकों को उड़ाते,

चूम रहा है तुम्हे दक्षिण का पवन ।

अपनी शक्ति दिखाकर वह,

अगर चूम सकता है तुम्हारा वदन, तब क्यों मैं

इतनी खुशामद करते हुये भी

वंचित हूँ उस कोमलांग को स्पर्श करने से, सुन्दरी ?

एक कविता, ‘पयोधर’ ; उसकी चार पंक्तियाँ :-

इसलिये सोचता हूँ,

तुम्हारे वक्ष-सरोवर में

काम-पवन से उठ रहा है तरंग;

या मानस का जल छोड़ दिव्य दो हंस

वहाँ कर रहा है विहार ।

 

कवि ने काल्पनिक नायिका के बजाय अपनी ‘प्रियतमा श्रीमती के प्रति’ कहते हैं :-

बड़े कवि जो हैं वे भक्त हैं वीर-रस के

उस रस में, हे धनी, डुब सकते हैं क्या सभी ?

गाण्डीव का भार ढोना किसका साध्य है, सिवाय पार्थ के ?

मैं तो बस प्रेम का पुष्प-धनुष झुकाता हूँ ।

मधुर प्रीतिरस, मैं तो बस इसी का वश,

दूसरा रस कटु है, सो छूना भी नहीं चाहता हूँ ।

प्यार की आस में कोमल भाषा गूंथ कर

आदिरस में डुबाकर तुम्हे देता हूँ ।

पता नहीं पांडित्य के अभिमानी कितने मूर्ख हैं

जो सदा विरक्त होते हैं इस रस के नाम से;

उन्हे तुष्ट करने को बेकार होगी मेरी दीनता

अंधों को तुम्हारा रूप समझाना भी है एक बला ।

तुम्हे यह काव्य-हार दे रहा हूँ उपहार मैं

रत्न-हार देने का साध्य नहीं है मेरा ।

प्रेम की सूत से गूंथा हुआ माला, तुम्हारा ही योग्य है बाला

तुम ग्रहण करने पर मुझे मेरा वांछित फल मिलेगा ।

हालाँकि ये फूल नये नहीं हैं सारे

रस से भरे हैं या नहीं पूछता हूँ तुम्हे ?

तुम अगर खुश होकर अच्छा कहो, सुनयनी

क्यों डरूंगा मैं खल व छल से ग्रहण करने वालों को ?

अन्त में, ‘काव्यमंजरी’ के अंत में एक कविता है ‘गंगा के प्रति’ । उस कविता में गंगा के यात्रापथ का सुन्दर व वस्तुनिष्ठ वर्णन है । हमें और अधिक प्रभावित करता है बिहार-यात्रा का वर्णन – कर्मनाशा के मिलन से शुरू कर साहिबगंज में जल के बीच के पहाड़ों तक । प्रस्तुत है उसका एक अंश :-

बक्सर के बाद भृगु मुनि का आश्रम,

तुम्हारे साथ सरयु की एक शाखा का संगम ।

इस पवित्र तीर्थ से आगे लगभग बारह कोस पर

देहा और सोन के साथ तुम्हारा आकस्मिक टक्कर ।

करीब में दानापुर, देखने में रुचिर,

अंग्रेज सेना का अद्भुत शिविर ।

थोड़ी दूर पर दिखता है तुम्हारे तट पर

प्राचीन पाटलीपुत्र पटना नगर ।

पहले था वह उद्यानों से भरा,

तभी नाम उसका पुष्पपुर पड़ा । 

अभी उन उद्यानों जैसी नहीं कोई शोभा,

टूटे घाट बस दिखते हैं दो-चार ।

दो हजार साल बीत गये, चन्द्रगुप्त की

यह जगह राजधानी थी;

कुटिल कौटिल्य ने अद्भुत कौशल से दिया जिसे राजपाट,

छल से कर नन्दवंश का नाश ।

इसी स्थान पर था सिंहासन अशोक का;

अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये जो राजा

नगर नगर खड़ा किया जयस्तंभ,

देश देशान्तर में फैलाया बौद्धमत ।

आया यवनों का राज, नवाब हुये अजीमुश्शान;

इस शहर को दिया बिहार की राजधानी का मान,

कई सारे खूबसूरत भवन खड़े किये;

आज तक ख्यात है यह नगर उनके नाम से ।

कहते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ यहीं,

जिनकी शिक्षा के बल से आगे बढ़े सिख ।

उस पार हरिहर देव का मन्दिर –

तुमसे मिला जहाँ गन्डक का नीर । …

 

 

* बलदेव पालित के जीवन से सम्बन्धित सभी निम्नलिखित विवरण 1938-39 इसवी में ‘भारतवर्ष’ पत्रिका के पौष (बांग्ला 1343) अंक में प्रकाशित, मन्मथनाथ घोष लिखित ‘बलदेव पालित’ शीर्षक निबंध से ‘साहित्य साधक चरित माला’ में लिये गये थे; वर्तमान लेखक ने ‘चरितमाला’ से लिया है

[‘बिहार के गौरव, भाग – 3’, (ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान, सदाकत आश्रम, पटना) में प्रकाशित]

  

सतीनाथ भादुड़ी


 बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में तातमाओं के बीच ढोंड़इ के बड़े होने का सूक्ष्मता के साथ निर्मित वर्णन को सहज रूप से औपनिवेशिक शासन का विश्वसनीय मानव-भुगोल एवं उत्तरी भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के तौर पर पढ़ा जा सकता है अपने पात्रों के दैनिक जीवन की संकीर्णता एवं छोटी छोटी बातों से जुड़ाव के प्रति लेखक अत्यंत जागरुक थे उन्हे अभी राष्ट्रीय नागरिक बनना था लेकिन लेखक को इस बदलाव की उम्मीद थी उन्होने देखा कि नीचे स्तर के तातमा एवं धांगरलोग भी आन्दोलित हो रहे हैं सरकारी वर्गीकरणों का सूक्ष्म जातीय साम्प्रदायिक बनावट सतीनाथ के आख्यान से कभी अनुपस्थित नहीं होता था ” 

(The Politics of the Governed, Partha Chatterjee, Columbia University Press New York)

‘जागोरी’ के हिन्दी संस्करण की भूमिका में प्रख्यात भाषाविद सुनीतिकुमार चट्टोपाध्याय ने लिखा, “श्रीयुक्त गुप्तजी की समालोचना [‘देश’ पत्रिका में, सन 1952 के अप्रैल महीने में प्रकाशित, अतुलचन्द्र गुप्त द्वारा की गई समीक्षा] पढ़कर मैं भी इस ग्रंथ पर आकृष्ट हुआ था और संयोग से इस की एक प्रति हाथ आने से कई घंटों में एक ही आसन पर बैठ इसे समाप्त कर लिया । मेरा भी विचार है यह ग्रंथ केवल बंगसाहित्य के लिये गौरवस्थल नहीं बना है, बल्कि विश्वसाहित्य में अपना स्थान इसने बना लिया है । … ‘जागोरी’ पढ़ते समय लेखक के सत्यदर्शन, सत्यसमीक्षण और सत्यप्रकाशन की शक्ति से मेरा हृदय आनन्द से भर उठता है । किस सहानुभूति के साथ इन्होने अपने अपने मुंह से उपन्यास के चार पात्रों के बाह्यजीवन तथा आभ्यन्तर-प्रेरणा का उद्घाटन किया है । … (सतीनाथ भादुड़ी, निर्वाचित रचना की भूमिका में संकलित)

हिन्दी के पाठक आम तौर पर सतीनाथ भादुड़ी से परिचित हैं एक तो इसलिये कि फणीश्वर नाथ रेणु ने उन्हे अपना गुरु कहा, और दूसरा इसलिये भी कि भादुड़ीजी की कम से कम दो अनूठी सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ, जागोरीतथाढोँड़इ चरित मानसका हिन्दी अनुवाद बिहार के हिन्दी साहित्यकारों एवं जागरुक पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ

सतीनाथ भादुड़ी पर बांग्ला व हिन्दी के आलेखों का संकलन ग्रंथ ‘सतीनाथ स्मरणे’ के सम्पादक सुबल गंगोपाध्याय बताते हैं कि सतीनाथ के पिताजी इन्दुभूषण भादुड़ी बंगाल के कृष्णनगर के रहने वाले थे । वकालत की डिग्री हासिल करने के बाद वह सन 1896 में पूर्णिया आ गये क्यों कि अंग्रेज जमाने में पूर्णिया कोर्ट में काफी व्यस्तता रहती थी और पूर्णिया जिले में (किशनगंज व अररिया पूर्णिया में ही शामिल था उस वक्त) असंख्य बांग्लाभाषी परिवार सौ दो सौ साल से बसे हुये थे ।

सतीनाथ का जन्म पूर्णिया के भट्टाबाज़ार मोहल्ले में हुआ । जन्म की तारीख थी 27 सितम्बर 1906 ।  सन 1924 में पूर्णिया जिला स्कुल से वह फर्स्ट डिविजन से मैट्रिक पास किये । अत्यंत मेधावी थे सतीनाथ, क्लास की परीक्षा में हमेशा फर्स्ट आते थे । जिला स्कूल के संस्कृत-शिक्षक तुरन्तलाल झा उन्हे ‘क्लास की रोशनी’ कह कर बुलाते थे । स्कूल की पढ़ाई के बाद आगे के लिये वह पटना चले आये । इन्टर में उनका विषय विज्ञान था । परीक्षा का फल आशा के अनुरूप नहीं होने के कारण वह आर्ट्स में चले आये । पटना आने के बाद वह मखनियाकुँआ स्थित बंगाली मेस में रहते थे । वह मेस भी उन्होने छोड़ दिया और पटना विश्वविद्यालय के मोहमेडन हॉस्टल (इकबाल हॉस्टेल) में चले आये । अर्थनीति (सम्मान) के साथ सन 1926 में वह बीए पास किये । लेकिन बीए में भी द्वितीय श्रेणी ही मिला । इसी वर्ष उन्हे एक बड़ा धक्का लगा । डायाबेटिस के कारण माँ का निधन हो गया बनारस में । माँ के निधन के सात दिनों के बाद पूर्णिया में छोटी बहन करुणामयी का कॉलेरा की बीमारी से निधन हो गया ।

सतीनाथ का मन उचटने लगा था लेकिन राजनीतिक जागरुकता थी एवं रुचि से लेखक व कलाकार होने के बावजूद राजनीतिक कार्यभार की चुनौती को स्वीकारना सतीनाथ के खिलाड़ी स्वभाव में था । तभी हम पाते हैं कि छुट्टियों में पूर्णियावास के दौरान उन्होने भट्टाबाज़ार में शराब की दुकान के सामने पिकेटिंग में नेतृत्व दिया ।

सन 1930 में पटना विश्वविद्यालय से ही उन्होने अर्थनीति में एमए पास किया, द्वितीय श्रेणी ही हासिल हो पाया । सन 1931 में पटना लॉ कॉलेज से बीएल की डिग्री ली । फिर लौट आये पूर्णिया ।

पूर्णिया शहर बांग्ला साहित्य के एक और, प्रवीणतर साधक, केदारनाथ बंदोपाध्याय के कारण बंगाली पाठकवर्ग के लिये परिचित रहा है । सतीनाथ जब पटना छोड़ कर पूर्णिया वापस आये तब बांग्ला के साहित्यकारों का अड्डा केदारनाथ बंदोपाध्याय, जो उस वक्त ‘दादामोशाय’ के नाम से जाने जाते थे, के घर पर लगता था । सतीनाथ भी उस अड्डे में नियमित रूप से हाजिर होने लगे । शायद सन 1931 में ही कलकत्ता से निकलने वाली, प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘विचित्रा’ में सतीनाथ भादुड़ी की पहली कहानी ‘जामाईबाबु’ प्रकाशित हुई ।

सन 1932 में सतीनाथ, पिता इन्दुभूषण भादुड़ी के सहयोगी के रूप में पूर्णिया कोर्ट में वकील बन गये । कभी पिताजी के साथ घोड़ागाड़ी पर या कभी अपनी साइकिल से सतीनाथ कोर्ट जाते थे । पहुँचकर घुस जाते थे बार-लाइब्रेरी में । किताबों की ढेर में डूब जाते थे । इस पढ़ाई के कारण जिस तरह विधिशास्त्र का ज्ञान गहरा होता गया (उस समय के बड़े वकील उनसे विधि के जटिल सिद्धांत समझ लेते थे जबकि कई जिला जज उनसे विभिन्न रुलिंग जान लेते थे), उसी तरह साहित्यिक सृजन के लिये जरुरी सामग्रियाँ भी उपलब्ध होती गई । अपनी एक कहानी, ‘अनावश्यक’ में वह लिखते हैं, “बार-लायब्रेरी है जिला का ब्रेन-ट्रस्ट । क्या फालतु इतिहास की पुस्तकें पढ़ते हैं लोग । यहाँ की नर्मगर्म, होशियार टिप्पणियाँ देश की अलिखित इतिहास हैं – असली इतिहास हैं । हर दिन ये मुँहजबानी, इतिहास का डिक्टेशन दिये जा रही हैं ।” साथ ही उनका लेखन भी चल रहा था । कलकत्ता के विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, व्यंगकथायें प्रकाशित हो रही थी । उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा कभी नहीं रहा, फिर भी पढ़ाई के दिनों से ही खेलकूद पर उनका ध्यान रहा । लॉन टेनिस के वह अच्छे खिलाड़ी थे एवं कई प्रतियोगिताओं चैम्पियन हुये । बाद में, कारावास के दिनों में, वॉलीबॉल में उनकी पारदर्शिता को भी लोगों ने परख लिया ।

सन 1935 में सतीनाथ पूर्णिया शहर के लिये दो बड़े काम किये । पहला तो यह कि शहर में उन्होने एक पुस्तकालय स्थापित किया । नाम पड़ा ‘पुर्णिया लायब्रेरी’ । अपने संगी साथियों के साथ रातों में लालटेन लेकर घर घर घूमते हुये उन्होने पुस्तकालय के लिये किताबें जुटाईं । बाद में इसी पुस्तकालय का नामकरण उनके पिता के नाम पर ‘इन्दुभूषण लायब्रेरी’ किया गया । दूसरा काम था पुर्णिया के विख्यात भट्टाबाज़ार दुर्गाबाड़ी में दुर्गापूजा के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन ।

लेकिन यह सब कुछ करते हुये भी उनके भीतर एक अस्थिरता थी । द्वितीय विश्वयुद्ध, देश का राजनीतिक परिदृश्य उन्हे कुछ करने के लिये बुला रहा था । सन 1939 के 24 सितम्बर को उन्होने वकालत छोड़ दिया, घर त्याग दिया और चले गये सर्वोदयी नेता वैद्यनाथ चौधरी के टिकापट्टी स्थित आश्रम में । शहर की इस चौंकाने वाली घटना पर बिहार के एक बांग्लाभाषी लेखक सुबल गंगोपाध्याय लिखते हैं, “24 सितम्बर 1939 । पूरा शहर विस्मित व चमत्कृत होकर सुना कि सतीनाथ चले गये हैं सर्वोदयी नेता वैद्यनाथ चौधरी के टीकापट्टी स्थित आश्रम में । शहर से 20/25 मील दूर गाँव में था यह आश्रम ।” घर के लोगों ने उन्हे घर लौटाने का प्रयास किया, पर विफल हुये ।

सुबल गंगोपाध्याय आगे लिखते हैं, “सक्रिय राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने के बाद सतीनाथ के जीवन का दायरा और बड़ा हुआ । बिभिन्न नज़रिया वाले लोगों के सम्पर्क में वह आये एवं बाद में ऐसे कई लोग उनके साहित्य के पात्र बने । कांग्रेस के आम कार्यकर्ता एवं नेताओं में वह लोकप्रिय थे । … इसी समय पूर्णिया जिला के गाँव गाँव में ‘भादुड़ीजी’ के नाम से वे ख्यात हो गये । … एकबार कटिहार जूट्मिल में हड़ताल हुई । वहाँ भी सतीनाथ हड़ताली मज़दूरों के साथ घुलमिल गये । मिल-मज़दूरों के साथ एकसाथ भोजन, सर के नीचे ईँट की तकिया डाल कर रात बिताना… … कांग्रेस के टीकापट्टी आश्रम में रहते हुये सतीनाथ अक्सर भट्टाबाज़ार में अपने घर आते थे, भेँट-मुलाकात के लिये । साथ में रहता था एक कम्बल, मच्छरदानी और धोती ।”

सन 1940 के जनवरी में सतीनाथ पहलीबार जेल गये । व्यक्तिगत असहयोग सत्याग्रह के कारण । पहले पूर्णिया जेल फिर स्थानान्तरित हुये हजारीबाग जेल । उस वक्त उस जेल में जयप्रकाश नारायण, डा॰ श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, पूर्णिया कांग्रेस के अध्यक्ष अनाथ कान्त बसु, भूतपूर्व सांसद फणीगोपाल सेन आदि कई कांग्रेसी नेता थे । सतीनाथ सबसे मिलते थे, बातें करते थे एवं वक्त निकाल कर खूब पढ़ते थे । तुलसीदास क रामचरित मानस ध्यान से पढ़ने एवं नोट लेने के अलावे उर्दु एवं फ्रांसिसी भाषा का अध्ययन करते थे ।

सन 1941 में छ: महीने के लिये फिर जेल गये । फिर हजारीबाग जेल । इस समय तक, कांग्रेसी होते हुये भी उनके भीतर सोश्यलिस्ट पार्टी के लिये झुकाव पैदा हो चुका था । वह सोश्यलिस्ट लोगों के कामों को भीतर से मदद करने लगे । इस सिलसिले में एक जगह सतीनाथ के अनुयायी एवं सहकर्मी डा॰ बीरेन भट्टाचार्य के कथन का जिक्र मिलता है, “सन 1939 में कांग्रेस में योगदान करने के बावजूद सतीनाथ उस समय दिलोजान से सोश्यलिस्टों के पक्षधर थे । कम्युनिस्टों की सांगठनिक क्षमता की वह तारीफ करते थे, लेकिन पराये देश पर निर्भर किसी राजनीतिक नीति का वह समर्थन नहीं करते थे । कांग्रेस में रहते समय वह जयप्रकाश नारायण, गंगाशरण सिंह एवं बिहार के अन्य कई सोश्यलिस्ट कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आये एवं उनके साथ काम करने को ठान लिया । 1942 के आन्दोलन में पूर्णिया जिला के संगठन का भार उन्हे गुप्त रूप से दिया गया था । बड़ी मात्रा में पैसों का हिसाब किताब, रिवॉल्वर मंगाना-देना एवं सबों के साथ सम्पर्क रखने का काम सतीनाथ एवं हम कुछेक लोग मिल कर करते थे । सतीनाथ पकड़े गये …।“ [सतीनाथ भादुड़ी, दीपंकर मोशान, दिबारात्रिर काव्य, सतीनाथ भादुड़ी संख्या]

सन 1942 में सतीनाथ पूर्णिया जिला कांग्रेस के सचिव निर्वाचित हुये । अगस्त’42 के भारत-छोड़ो आन्दोलन में वह सीधे तौर पर हिस्सा लिये तथा डिफेन्स ऑफ इन्डिया रूल्स के तहत जेल भेजे गये । पहले पूर्णिया जेल में रखा गया था । लेकिन दल-वल लेकर जेल तोड़ने की कोशिश में पकड़े जाने के कारण उन्हे भागलपुर सेन्ट्रल जेल में ट्रान्सफर कर दिया गया । इसी भागलपुर जेल में बैठ कर उन्होने ‘जागोरी’ लिखने की शुरुआत की एवं पूरा उपन्यास लिख डाला । हिन्दी के प्रख्यात लेखक फणीश्वरनाथ रेणु भी उस वक्त भागलपुर जेल में थे । बल्कि ‘जागोरी’ की पान्डुलिपि के पहले पाठक भी रेणुजी ही थे । बाद में एक संस्मरण में रेणुजी ने लिखा :-

“जेल जाते ही सबलोग कुछ न कुछ लिखना शुरु कर देते हैं । …

“भादुड़ीजी भी लिखते थे । क्या लिखते थे यह हम टी-सेल में जाने के बाद जाने । …

“एक दिन उनकी ‘डिग्री’ में बैठ कर चाय पी रहे थे । सामने एक कॉपी पड़ी हुई थी । हाथ में लेकर पन्ना पलट कर देखा – लेड पेन्सिल से कुछ लिखा हुआ है । पढ़ते पढ़ते लगा – यह तो डायरी है । कॉपी बन्द कर रखते हुये पूछा – डायरी है क्या ? उन्होने तुरन्त पलट कर सवाल किया – क्यों ? किसी की डायरी पढ़ना नहीं चाहिये क्या ? और बाकी सब कुछ बिना पूछे पढ़ा जा सकता है ?

“मैं घबड़ाये हुये और लज्जित होकर लौट आ रहा था । उन्होने कहा – चार पृष्ठ जब पढ़ ही चुके हो बाकी पृष्ठ भी पढ़ डालो । लेकिन तुम लोगों के ‘गब्बे-हाउज’ में इसका जिक्र या चर्चा होना नहीं चाहिये । … ले जाओ ।

हम कुछ लोग मिलकर एक ‘गप्पी-गोष्ठी’ बनाये थे । बाद में उसका नाम पड़ा था ‘गब्बे-हाउज’ । उस टी-सेल में बैठ कर ‘जागोरी’ की पान्डुलिपि पढ़ने की बात हमेशा याद रहेगी । …

“चार महीना बाद नीलू का अध्याय यानि अन्तिम अध्याय पढ़ कर समाप्त करने के बाद दौड़ कर उनके पैर पर हाथ रखते हुये मैंने कहा था – आज आप मना करने पर भी मानूंगा नहीं । … चरण का धूल दीजिये ।”

जेल से छूटने के बाद सतीनाथ फिर से पूर्णिया जिला कांग्रेस के सचिव के रूप में काम करने लगे । साथ ही उनका लेखन कार्य भी चलता रहा । सन 1944 में सतीनाथ फिर से जेल में ही थे जब 20 जनवरी को पिता इन्दूभूषण भादुड़ी का कलकत्ता में निधन हो गया ।

सन 1945 में उनका उपन्यास ‘जागोरी’ उपन्यास का प्रकाशन हुआ । 1942 के आन्दोलन पर आधारित पूरा उपन्यास एक परिवार के चार सदस्यों की जुबानी है – पिता, शिक्षक, प्रतिबद्ध गांधीवादी, जेल में बन्दी; माँ, गृहवधु पर पति के कामों और विचारों की पूरी साझेदार, उन्ही के साथ जेल में बन्दी; बड़ा बेटा बिलू, सोश्यलिस्ट, आन्दोलन के दौरान उग्र, हिंसक गतिविधियों के आरोप पर फाँसी का सजायाफ्ता, फाँसी-सेल में बन्दी, अगली सुबह होने वाली फाँसी के इन्तजार में; और नीलू, कम्युनिस्ट, जेल के बाहर एक पेड़ के नीचे, भाई की फाँसी के बाद की जरूरतों के लिये बैठा हुआ । लेखक का अपना राजनीतिक झुकाव ‘बिलू’ के साथ स्पष्ट है फिर भी एक यथार्थवादी लेखक की अन्तर्दृष्टि के साथ उन्होने चारों पात्र के बयान को निष्पक्षता के साथ दर्ज किया है ।   

यह भी एक कहानी है कि उपन्यास की पाण्डुलिपि सतीनाथ यूँ ही रखे हुये थे । उनका एक परिचित, उपन्यास को पढ़कर मुग्ध हुआ तो ले जा कर बंगला के सर्वाधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका व प्रकाशन संस्था को दिया । महीनों वहीँ पड़ी रही पाण्डुलिपि और फिर लौटा दी गई । कहा गया कि उनके ‘एक्सपर्ट’ को अच्छा नहीं लगा । अन्तत: पीले पड़े कागज में असंख्य अशुद्धियों के साथ ‘जागोरी’ एक छोटे से मुद्रणालय से प्रकाशित हुआ । प्रकाशित होते ही इस उपन्यास को बंगला के पाठकों ने सादर ग्रहण किया । तत्कालीन प्रतिष्ठित लेखकों ने भी स्वीकार किया कि ऐसा कुछ आज तक बंगला साहित्य में रचा नहीं गया था । फिर तो इस उपन्यास को रवीन्द्र पुरस्कार से सम्मानित किया जाना (पश्चिम बंगाल राज्य सरकार द्वारा दिया जाने वाला रवीन्द्र पुरस्कार का सन 1950 में पहला प्रापक ‘जागोरी’ ही था), देश व दुनिया के विभिन्न भाषाओं में इस उपन्यास का अनुदित होना एक इतिहास है ।

फणीश्वर नाथ रेणु के संस्मरण में एक घटना का जिक्र है जो सतीनाथ भादुड़ी के चरित्रबल को दर्शाता है । सन 1942 में भागलपुर सेन्ट्रल जेल के अधिकारियों ने मना कर दिया कि 26 जनवरी का किसी भी प्रकार से मनाया जाना प्रतिबंधित रहेगा । कांग्रेस के युवा बन्दी अड़ गये कि वे 26 जनवरी को ‘बन्दे मातरम’ गायेंगे । जेल की पुलिस, पूर्व घोषणा के अनुसार लाठीचार्ज के लिये आगे बढ़ने लगी । ठीक लाठीचार्ज के पहले सतीनाथ अपने टी-सेल में से, लिखने की मेज छोड़कर सबसे अगली कतार में आकर खड़े हो गये । लाठी चली सीधे माथे पर । बरबस उनका हाथ उठ गया तो मार गर्दन पड़ लगी । बहुत दिनों तक मार का वह काला दाग और दर्द गर्दन पर रहा ।

टी-सेल में सतीनाथ के होने की भी एक कहानी है । टी-सेल में फाँसी के आसामी को रखा जाता था । पर सतीनाथ ने खुद आवेदन कर खुद को टी-सेल में ट्रान्सफर करवाया ताकि लिखने के लिये आवश्यक एकान्त वहाँ प्राप्त होगा । अपना भोजन वह वहां खुद बनाते थे ।

सतीनाथ व्यस्त राजनीतिक जीवन के साथ साथ लेखन कार्य जारी रखे । विवाह उन्होने नहीं किया । बाद में, सक्रिय राजनीतिक कामकाज छोड़कर जब सिर्फ लेखन पर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया (टीकापट्टी का आश्रम छोड़ कर सतीनाथ उस समय घर पर ही रहने लगे थे) उनके दो सहचर रहे आजीवन, उनका व्यक्तिगत रसोइया और एक पालतू कुत्ता ।

सन 1947 में किशनगंज में बिहार प्रदेश कांग्रेस का सम्मेलन आयोजित हुआ । इस आयोजन का पूरा काम सतीनाथ भादुड़ी के नेतृत्व में हुआ । लेकिन सतीनाथ के भीतर एक आत्मसंघर्ष जारी था । कांग्रेस के नेताओं में से कईयों का बदलता हुआ चेहरा, सत्तालोलुपता, काले धंधे आदि वे देख रहे थे । देश को स्वतंत्रता प्राप्त होते ही वह और नंगा हो गया । सन 1948 में पूर्णिया जिला कांग्रेस का सचिव रहते हुये उन्होने कांग्रेस छोड़ा । उसी साल ‘दैनिक कृषक’ के शारद अंक में उनकी कहानी छपी ‘गणनायक’, जिस कहानी का पात्र ‘मुनीमजी’ भारत-पाकिस्तान सीमा पर चीनी और जूट का धंधा करने के लिये कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के झंडे का इस्तेमाल करता है । फणीश्वरनाथ रेणु ने जिक्र किया है, कांग्रेस छोड़ने के कारण के रूप में किसी वयोज्येष्ठ कांग्रेस कार्यकर्ता को सतीनाथ ने कहा, “कांग्रेस का काम था देश को स्वतंत्रता दिलाना । वह तो हो गया है । अब ‘राजकाज’ के अलावा कोई काम नहीं बचा है ।“ लेकिन उससे भी बड़ा एक आत्मिक संकट से सतीनाथ जूझ रहे थे । सक्रिय राजनीति करें या न करें । लेखन पर अधिक ध्यान देने के लिये क्या सक्रिय राजनीति छोड़नी होगी ? कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होने सोश्यलिस्ट पार्टी कि सदस्यता ली । हालाँकि सोश्यलिस्ट पार्टी या सीएसपी कांग्रेस के अन्दर ही थी और सतीनाथ काफी दिनों से उसके समर्थक भी थे । वह यह भी देख रहे थे कि कांग्रेस में फैल रही बीमारी से सीएसपी भी अछूता नहीं है । जैसा कि रेणुजी कहते हैं, “कांग्रेस में जितनी बीमारियाँ थी सब हमारी पार्टी में भी आ चुकी थी ।  जिला के बड़े जमीन्दारों के बेटे पार्टी में आ गये थे । वे नहीं चाहते थे कि पार्टी में ऐसा कोई व्यक्ति आये जो आम ‘किसान-मज़दूरों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरु करे ।“ लेकिन इस नये आत्मिक संकट के कारण सोश्यलिस्ट पार्टी में वह सक्रिय रूप से खास आगे नहीं बढ़े एवं बाद में सदस्यता भी छोड़ दी । उनकी ‘संकट’ कहानी के पात्र ‘विश्वासजी’ अपने सचिव को राजनीति छोड़ने का कारण बताते हैं, “जितना दिन चला, चला लिया । अब चल नहीं रहा है । समझे ? इसमें हर एक क्षण में इतने अधिक कामों का घना बुनावट है कि अन्त में इसका अर्थ खो जाता है । इस काम के आगे बाद वाला काम, फिर उसके बाद वाला काम, फिर … सारे क्षण एक जैसे हैं । तुम्हारे टाइपराइटर में जैसे टकटकटक एक अक्षर के बाद दूसरे अक्षर का छाप उगता है उसके जैसा, काम वाली चिट्ठी में भी और बिना काम की चिट्ठी में भी । हमेशा एक जैसा । अब और नही चल पाया ।“

सन 1948 में ही ‘जागोरी’ उपन्यास का किशोर संस्करण एवं हिन्दी अनुवाद दोनों प्रकाशित हुआ । एक कहानी संकलन ‘गणनायक’ भी प्रकाशित हुआ । और सन 1948 में ही ‘देश’ पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित होने लगा सतीनाथ भादुड़ी का दूसरा महान उपन्यास ‘ढोँड़इ चरित मानस’ । कथानक और तकनीक की आधुनिकता, हिन्दुधर्म के वर्णो के हिसाब से निम्नजातीय एवं सीमान्त समुदायों की अन्तर्कथा के माध्यम से समकालीन इतिहास का वर्णन, प्राचीन कथाओं के भाष्य का एक हाइपरटेक्स्ट के निर्माण के लिये इस्तेमाल … क्या कुछ नहीं था इस उपन्यास में ! उस समय तक न सिर्फ बंगला, बल्कि देश के किसी भी अन्य भाषा में ऐसा उपन्यास लिखा नहीं गया था, यह बात दावे के साथ कही जा सकती है । उपन्यास दो खंडों या दो चरणों में है, जिसमें पूर्णिया के शहरी किनारों पर रहनेवाली अत्यन्त गरीब तात्माटोली के ढोँड़इ तात्मा का शैशव से वयस्क होकर सक्रिय राजनीति में आना और फिर देश की स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद एक दिशाहीन नि:संगता के सामने खड़े होने की त्रासदी को दर्शाया गया है । हालाँकि उनकी ईच्छा तीसरा चरण, यानि स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में ढोँड़इ की यात्रा, लिखने की भी थी, जैसा कि उनके भाई बताते हैं, पर वह नहीं लिख पाये ।

सतीनाथ का तीसरा चर्चित उपन्यास में आया, ‘अचिन रागिनी’ । ‘जागोरी’ एवं ढोँड़इ चरित मानस’ जैसे, बंगला साहित्य में जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज करनेवाले दो सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगधर्मी उपन्यास लिखने के बाद सतीनाथ ने एक परिचित, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय वाले ढाँचे को चुना एक नई खोज के लिये । कथानक के मूल पात्र तीन हैं – नोतुन दिदिमा, तुलसी और पिले – एवं कहानी ‘पिले’ की जुबान से कही जाती है । ‘नोतुन दिदिमा’ या नई नानी एक प्रौढ़ की चहकती हुई जवान पत्नी है, प्रौढ़ के बच्चे की माँ भी है पर अपने मोहल्ले के हम-उम्र किशोरों के साथ गपियाते हुये एक आत्मिक लगाव महसूस करती है । वे भी खूब आना चाहते हैं इस ‘नोतुन दिदिमा’ के पास । इन्ही में तुलसी नाम का एक लड़का है जिसको ‘नोतुन दिदिमा’ ज्यादा चाहती हैं । ‘पिले’, जिसकी जबानी यह कहानी है वह भी चाहता है ‘नोतुन दिदिमा’ उसे भी उतना ही चाहे । इसी बुनावट में लेखक उस प्रेम को ढूँढ़ते हैं जो ‘नोतुन दिदिमा’ को विवाह में नहीं मिला और ये किशोर उसके एहसास की दहलीज पर खड़े हैं । अपने विषयवस्तु के नयापन एवं वर्णन की वस्तुपरकता के कारण यह उपन्यास आज भी चर्चित है ।

सन 1955 में ‘अचिन रागिनी’ का प्रकाशन हुआ । पर उसी साल सतीनाथ के माथे में, (मिडिया स्टाइनम में), जाँच के दौरान टिउमर की उपस्थिति पकड़ी गई । अगले दस साल वे पूरी क्षमता के साथ लिखते रहे । उपन्यास व कहानी संग्रह प्रकाशित होते रहे ।

सन 1965 में ‘जागोरी’ का अंग्रेजी अनुवाद, ‘द विजिल’, युनेस्को के प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । 30 मार्च की सुबह अपने बगीचे में टहलते हुये, ‘द विजिल’ पढ़ते पढ़ते माथे का ट्युमर फटा एवं मात्र 59 वर्ष की उम्र में सतीनाथ का निधन हो गया ।

बंगला भाषा व साहित्य के आकाश के उज्ज्वलतम नक्षत्रों में से एक, बिहार के सपूत सतीनाथ भादुड़ी की रचनायें आज विश्वसाहित्य के सर्वश्रेष्ठ मिसालों में शुमार है । आदर के साथ वह ‘लेखकों के लेखक’ कहे जाते हैं ।

सतीनाथ भादुड़ी के प्रकाशित ग्रंथ

1॰ जागोरी (उपन्यास) – 1945, 2॰ गणनायक (कहानीसंग्रह) – 1948, 3॰ जागोरी (किशोर संस्करण) – 1948, 4॰ ढोँड़ई चरित मानस (उपन्यास, प्रथम खंड) – 1949, 5॰ चित्रोगुप्तेर फाईल (उपन्यास) – 1949, 6॰ ढोँड़ई चरित मानस (द्वितीय खंड) – 1950, 7॰ सोत्यी भ्रमणकाहिनी (पर्यटनकथा) – 1950, 8॰ अपोरिचिता (कहानीसंग्रह) – 1954, 9॰ अचिन रागिनी (उपन्यास) – 1955, 10॰ चकाचकी (कहानीसंग्रह) 1956, 11॰ संकट (उपन्यास) – 1957, 12॰ पत्रोलेखार बाबा (कहानीसंग्रह) -1959, 13॰ जलभ्रोमी (कहानीसंग्रह) – 1962, 14॰ अलोक दृष्टि (कहानीसंग्रह) – 1963, 15॰ दिग्भ्रान्त (उपन्यास) – 1966 (लेखक के मृत्यु के उपरान्त) । बाद में सतीनाथ ग्रंथावली एवं सतीनाथ विचित्रा का प्रकाशन हुआ । इनके अलावे उनकी कई कहानियाँ, आलेख, कुछ कवितायें, एक नाट्यरूप आदि हैं जिन्हे ग्रंथित नहीं किया गया है ।

[‘बिहार के गौरव, भाग – 3’, (ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान, सदाकत आश्रम, पटना) में प्रकाशित]