Saturday, September 26, 2020

बलदेव पालित

बिहार के बांग्ला साहित्यकारों में बलदेव पालित एक बिसरे हुये नाम हैं । एक शिक्षाविद के रूप में वह बेहतर जाने जाते हैं, दो-तीन विद्यालयों की स्थापना की कहानी उनके नाम के साथ जुड़ी है, पर वह भी क्यों – उनकी शख्सीयत की कौन सी परत उन्हे विद्यालयों की स्थापना के लिये प्रेरित की – यह भी कम जाना गया तथ्य है । हालाँकि पटना म्युजियम से कुछ वर्ष पहले एक एल्बमनुमा ग्रंथ प्रकाशित हुआ था, ‘पटना – ए मोनुमेन्टल हिस्ट्री’ के नाम से । लेखकद्वय थे विवेक कुमार सिंह एवं प्रबुद्ध विश्वास । उस ग्रंथ में ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर टी॰ के॰ घोष एकैडमी पर भी एक पृष्ठ था । जिसमें लिखा था, “बलदेव पालित, एक महान शिक्षाविद एवं विशिष्ट बांग्ला कवि, दानापुर छावनी स्थित सैन्य पेंशन कार्यालय में कर्मचारी थे, जो बाद में गोविन्द मित्रा रोड, पटना में बस गये । उन्होने अपने दामाद तिनकड़ी घोष को वित्तीय सहायता दी [जिससे] तिनकड़ी घोष ने बांकीपुर में टी॰ के॰ घोष एकैडमी (1882) तथा गया एवं आरा में तीन और विद्यालयों की स्थापना किया । बाद में तिनकड़ी घोष ने दानापुर में अपने ससुर की स्मृति में एक और विद्यालय ‘बलदेव एकैडमी’ की स्थापना किया । …” (हालाँकि दूसरे एक जीवन परिचय में बलदेव एकैडमी के स्थापना की थोड़ी भिन्न कहानी मिलती है, जिसका जिक्र आगे मिलेगा) ।

लेखकद्वय को धन्यवाद कि इस आत्म-विमुख, अज्ञात से व्यक्ति के बारे में हमें इतना तो बताया ।

बीसवीं सदी के पचास के दशक में साहित्यकारों के प्रख्यात जीवनीकार ब्रजेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय रचित ‘साहित्य साधक चरित माला’, बंगीय साहित्य परिषद द्वारा कई खंडों में प्रकाशित किया गया । इस ग्रंथमाला के दूसरे खंड में बलदेव पालित के जीवन व साहित्यकर्म पर एक पूरा अध्याय है । उसकी भी शुरुआत होती है इन पंक्तियों से, “बलदेव पालित उन्नीसवीं सदी के बंगाल के एक यशस्वी कवि हैं । आधी सदी से कुछ अधिक पहले वह परलोक सिधारे हैं । उनका साहित्यकर्म का परिमाण कम होने पर भी उपेक्षणीय नहीं है । लेकिन दुख की बात है कि बांग्ला साहित्य में बलदेव के योगदान की बात देशवासी अभी ही भूलने लगे हैं ।” कवि होने के साथ साथ बलदेव संस्कृत साहित्य के भी अक्लांत गुणग्राही पाठक थे इस बात की चर्चा के बाद जीवनीकार इस महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करते हैं कि, “बांग्ला कविता में विभिन्न संस्कृत छन्दों का प्रवर्तन उनका प्रधानतम कृतित्व है । मालिनी, उपजाति, वस्न्ततिलक आदि कठिन संस्कृत छन्दों में बांग्ला काव्य की रचना कर उन्होने बांग्ला काव्य-रूपों के बहुविध विचित्र विकास का मार्ग सुगम कर दिया ।” जीवनीकार ने जिक्र किया है कि खुद बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय उनकी इस कवित्व-शक्ति से मुग्ध हुये एवं उन्होने बलदेव की उच्छ्वसित प्रशंसा की

बलदेव पालित की एक काव्य-संकलन है ‘काव्यमंजरी’ । शुरू में अधिकांश नीति कवितायें हैं । प्रेम, विद्या, धन, काम, प्रभात, काल, आशा आदि विषयों पर । फिर है निसर्ग के विभिन्न पहलुओं पर या तो कवि के उद्गार या उनके अपने कथन । उनमें से एक है ‘मेघ का कथन’ । कविता में मेघ, या बादल कवि को विस्तार से अपने बारे में बताते हुये अन्त में कहता है –

कृष्ण-कोल आलो कोरी थाकेन श्रीराधा,

तोड़िल्लता-भूजे तथा आमि थाकि बाँधा ।

(कृष्ण की गोद को आलोकित करती हुई रहती हैं श्रीराधा, बिजली की लताओं में बंधा मैं भी वहीं रहता हूँ ।)

संक्षिप्त जीवन परिचय*

बलदेव के पिता विश्वनाथ पालित पश्चिम बंगाल स्थित हालीशहर के निकटवर्ती कोणाग्राम में बसे पालितवंश के सन्तान थे । जहाँ तक जानकारी मिलती है, शायद 1814 इसवी में विश्वनाथ अपनी किशोरावस्था में ही चन्दननगर से, जहाँ उनके मामा का घर था, दानापुर भाग आये थे । उस वक्त दानापुर छावनी व सेना-रसद-विभाग में कई बांग्लाभाषी कर्मचारी काम करते थे । बलदेव के पिता को भी सेना-रसद-विभाग में एक छोटा सा काम मिला । शायद भाग कर आने के बावजूद परिवार से सुलह हो गया था; अंग्रेजी राज में, वह भी सेना-रसद-विभाग में नौकरी – विश्वनाथ का विवाह कलकत्ता के निकटवर्ती राजपुर के जमींदार की नातिन की बेटी से हुई । दानापुर में ही 1835 इसवी में इनके पुत्र बलदेव का जन्म हुआ । दानापुर में विश्वनाथ के प्रयासों से एक कालीबाड़ी व अतिथिगृह की स्थापना हुई थी एवं यह काम उन्हे सभी का प्रिय बना दिया था । लेकिन 1841-42 में विश्वनाथ पालित को घर छोड़ना पड़ा । सेना-रसद-विभाग का गुमा्श्ता बनकर वह अंग्रेज सेना के साथ काबुल (अफगानिस्तान) की ओर प्रस्थान किये । कुछ महीनों या एक-दो बरस के बाद अंग्रेज सेना काबुल से लौटने लगी तो रास्ते में उन पर हमला हुआ । सैनिकों के साथ विश्वनाथ पालित भी मारे गये ।

विश्वनाथ की मृत्यु के बाद सरकार ने उनके सन्तानों के प्रतिपालन के व्यय व शिक्षा हेतु वृत्ति की व्यवस्था की । पुत्र बलदेव अपने बहनोई राजकृष्ण मित्र के सब्जीबाग (बाँकीपुर) स्थित आवास में चले आये थे । वहीं रह कर वह गुलजारबाग स्थित किसी विद्यालय में पढ़ाई करने लगे । बलदेव मेधावी छात्र थे । अपनी कुशाग्र बुद्धि तथा स्मरणशक्ति के कारण वह अपने शिक्षकों के प्रियपात्र बन गये थे ।

बलदेव का विवाह, छपरा के मधुसूदन मित्र के भाई महेश चन्द्र मित्र की बेटी भगवती से हुई । मधुसूदन मित्र की सहायता से बलदेव को छपरा में एक काम मिला तथा वह वहीं रहने लगे । बाद मे बलदेव को दानापुर के सैनिक पेंशन भुगतान कार्यालय में थर्ड क्लर्क की नौकरी मिली । अपने लगन व कार्यदक्षता के कारण वह जल्द ही हेड-क्लर्क में प्रोन्नत हो गये ।   

पिता की तरह बलदेव भी जनहितैषी तो थे ही, शिक्षानुरागी भी थे । नौकरी से मिल रहे पैसों को वह विभिन्न जनहितकर कार्यों में दान कर दिया करते थे । सन 1866 में उन्होने दानापुर में एक अंग्रेजी मध्य विद्यालय स्थापित किया । यह विद्यालय बाद में सरकारी सहायताप्राप्त अंग्रेजी उच्च विद्यालय बन गया एवं बाद में उक्त विद्यालय का नाम पड़ा ‘दानापुर बलदेव एकैडमी’। (यह कहानी इस निबंध की शुरुआत में उद्धृत, पटना म्युजियम प्रकाशित पुस्तक में वर्णित कहानी से थोड़ा भिन्न है । हालाँकि बलदेव के आर्थिक मदद से उनके दामाद तिनकड़ी घोष तथा बलदेव के पुत्र यदुनाथ द्वारा बाँकीपुर में टी॰ के॰ घोष एकैडमी की स्थापना तथा गया एवं आरा में तीन विद्यालयों की स्थापना की कहानी इस स्रोत में भी मिलती है) ।

कई छात्रों के आश्रय का इन्तजाम बलदेव के पैसों से होता था । तत्कालीन दानियों के रिवाज के अनुसार, अतिथि बनकर आये ब्राह्मण पंडित कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । विद्यालय में उच्चशिक्षा-लाभ से वंचित रहने के बावजूद घर पर अपनी कोशिश से वह आजीवन नाना प्रकार के शास्त्र-अध्ययव व ज्ञानार्जन करते रहे । अंग्रेजी साहित्य, इतिहास एवं विधिशास्त्र का पाठ वह खूब बढ़िया से किये । फिर वह संस्कृत साहित्य के पाठ में मन लगाये । वेद, उपनिषद, रामायण तथा कालिदास सहित विभिन्न संस्कृत कवियों के लगभग सभी ग्रंथों का उन्होने ध्यान से पाठ किया ।

सन 1880 में माहवार 75 रुपये पेंशन के साथ वह नौकरी से सेवानिवृत्त हुये ।

7 जनवरी 1900 (बांग्ला 23 पौष 1306) को उनका निधन हो गया ।

 

साहित्य साधना

बलदेव पालित के जीवन में घटनाओं का आधिक्य नहीं था । सैन्य पेंशन भुगतान कार्यालय में नौकरी का एकरस जीवन व्यतीत करते हुये भी ज्ञानार्जन, सृजन, जनहितैषिता व शिक्षानुराग के सहारे वह आजीवन आत्मसंघर्ष चलाते रहे एवं उन्ही चारों दिशाओं में उनकी आत्म-अभिव्यक्ति होती रही ।

उनके द्वारा रचित काव्यग्रंथों की कुल संख्या है पाँच । बांग्ला साहित्य के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने उन पाँच में से एक की आलोचना यह कह कर की थी कि उसके काव्य “शारीरिक प्रवृत्तियों के उद्दीपक” हैं, लेकिन बाकी चारों काव्यग्रंथों की उन्होने प्रशंसा की थी ।

उनके काव्यग्रंथों के प्रकाशन का क्रम निम्नरूप है ।

1 – काव्यमजरी – प्रकाशनतिथि 18 सितम्बर 1868, पृष्ठ संख्या 124 (इस काव्यग्रंथ के बारे में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘बंगदर्शन’ में लिखा था, “इन कविताओं में कई उत्तम हैं । जगह जगह पर कविताई का परिचय है । कई स्थानों पर इस बात का भी परिचय है कि कवि विद्वान हैं । कई स्थानों पर नयेपन का अभाव परिलक्षित होता है । … ‘कविता का जन्म’ शीर्षक कविता हमारे लिये विशेष तौर पर प्रीतिकर हुआ है ।”)

2 – काव्यमाला – प्रकाशनवर्ष 1870, पृष्ठ संख्या 144 (इसी ग्रंथ के कविताओं की तीव्र आलोचना बंकिम ने की थी । शायद लेखक को भी मालूम था कि कविताओं की आलोचना होगी, इसलिये, गौरतलब है, कि कवि ने ग्रंथ का प्रकाशन रचनाकार के नाम के बिना हुआ था) ।

3 – ललित कवितावली – प्रकाशनतिथि 30 दिसम्बर 1870 (इस छोटी सी, 39 पृष्ठों की, पुस्तिका में भी सिर्फ “काव्यमाला के रचयिता द्वारा प्रणीत व प्रकाशित’ लिखा हुआ था क्योंकि इस पुस्तिका की कवितायें भी आदिरस से भरी हुई थी, हालाँकि बाद में रचयिता की पहचान हो गई थी) । गौर करने की बात है कि जहाँ बंकिम ने ‘काव्यमाला’ की तीव्र आलोचना सिर्फ आदिरस के कारण नहीं बल्कि घटिया, पुरानी और बासी कहकर की थी, ‘ललित कवितावली’ के बारे में उन्होने कहा, “अचानक विश्वास ही नहीं होता है कि काव्यमाला और प्रस्तुत ग्रंथ एक ही रचयिता का है । ये कवितायें अच्छी हैं । ‘काव्यमाला’ जिस घोर दोष से दूषित था, इस ग्रंथ में वह दोष नहीं है ; कहीं कहीं रत्तीभर बस, है । कवितायें मधुर भी हैं । …”

4 – भर्तृहरि काव्य -  प्रकाशनतिथि 8 अक्तूबर 1872 (बांग्ला 1279) पृष्ठ संख्या (औपचारिक पृष्ठ, भूमिका इत्यादि) + 62 । इस खंडकाव्य में राजा भर्तृहरि के वैराग्य की कथा वर्णित है और आद्योपान्त संस्कृत छन्द में रचित है । बंकिम ने इस काव्यग्रंथ की प्रशंसा की थी । ‘बंगदर्शन’ में उन्होने लिखा, “यह काव्यग्रंथ आद्योपान्त, पूर्व में अव्यवहृत संस्कृत छंद में रचित है । पहले के कवियों ने, दो एक आम छंदों को छोड़कर बांग्ला में संस्कृत के छंदों का प्रयोग लगभग नहीं किया था । सम्प्रति, ‘ललित कवितावली’ के प्रणेता एवं बाबु राजकृष्ण मुखोपाध्याय तथा अन्य नये कवियों ने इन छंदों का प्रयोग किया है । बलदेव बाबु ने इस प्रयोग में विशेष दक्षता दिखाई है । बांग्लाभाषा का जो गठन है, उसमें संस्कृत के छंद ठीक से बैठते नहीं है । लेखक विशेष तौर पर शक्तिसम्पन्न नहीं होने पर वह श्रुति-सुखद नहीं हो पाता है । बलदेव बाबु ने वह शक्ति दिखाई है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस काम को करके उन्होने बांग्ला कविता का विशेष उपकार किया है । …”

5 – कर्णार्जुन काव्य – प्रकाशनतिथि 4 अक्तूबर 1875 (बांग्ला 1282), पृष्ठ संख्या (औपचारिक पृष्ठ, भूमिका इत्यादि) + 160 । इस काव्य के बारे में बंकिम ने क्या कहा था वह उपलब्ध नहीं हो पाया । बल्कि, खुद कवि ने भूमिका में इस काव्यरचना के प्रसंग में जो बातें रखीं है, उसमें से यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ ।

“यह स्वीकार करना ही होगा कि जिस कौरव-पांडव की कथा को कवि-कुल-गुरु वेदव्यास ने अपने विश्वविख्यात महाभारत में लिपिबद्ध किया है, उसमें मेरे जैसे आदमी का हस्तक्षेप नितान्त धृष्टता होगी । लेकिन पांडवों के पक्षपाती बनकर महर्षि द्वैपायन महानुभव ने कर्ण के पात्र को उन्ही रंगों से न चित्रित करने के कारण मैं इस काव्य की रचना करने को बाध्य हुआ हूँ । …

कवि खुद कहते हैं कि चुँकि ‘भर्तृहरि काव्य’ में संस्कृत के छन्दों का प्रयोग पाठकों द्वारा यथोचित समादर के साथ ग्रहण नहीं किया गया इस लिये ‘कर्णार्जुन काव्य’ में उन्होने सिर्फ दो एक जगहों पर संस्कृत के छंदों का प्रयोग किया है ।

रचना के निदर्शन

नि:सन्देह, कवि बलदेव पालित आधुनिकतावादी कम एवं थोड़ा प्राचीनपंथी थे । इस बात का जिक्र बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय भी करते हैं । भाव एवं भाषा के प्रयोग में भी । उनके समय में बांग्ला काव्यसाहित्य में एक तरफ मधुसूदन दत्त के अमित्राक्षर छंद की क्रांतिकारिता भी प्रतिष्ठित हो चुकी थी तो कवि बिहारीलाल चक्रवर्ती की आधुनिक गीतिमयता भी । फिर भी सन 1875 में प्रकाशित ‘कर्णार्जुन’ काव्य की भूमिका में वह लिखते हैं, “कोई कोई कहते हैं कि इस काव्य का दूसरा एवं तीसरा सर्ग अमित्राक्षर (अतुकांत) पद्य में लिखने से बेहतर होता । लेकिन यह पद्धति किसी भी भाषा में, किसी भी प्रसिद्ध काव्य में परिलक्षित नहीं होता है । इसीलिये मैं उक्त मत का समर्थन नहीं कर पाया । लेकिन चौथे एवं पाँचवें सर्ग में, तुक थोड़ा दूर में रख कर मैंने अमित्राक्षर के पाठकों को थोड़ा तुष्ट करने का प्रयास किया है ।“

फिर भी, संस्कृत के इतने सारे छन्दों का बांग्ला में प्रयोग कर उन्होने तत्कालीन आधुनिकतावादियों के लिये चुनौती खड़ी की । काव्यभाषा को नई ध्वनि, नये लय का विस्तार देकर भी, जो वह खुद न कर पाये – नये भावों को अभिव्यक्त करना – उसके लिये नये कवियों का आह्वान कर गये ।

कवि संस्कृत के छंदों के प्रयोग को लेकर इतना उत्साहित रहते थे कि इन छंदों के लोकप्रिय न हो पाने के कारण के तौर पर, ‘कर्णार्जुन’ एवं ‘भर्तृहरि काव्य’ दोनों की भूमिका में उन्होने बांग्लाभाषा में बड़ीमात्रा और छोटीमात्रा के फर्क के मिट जाने को एक प्रकार से दोषी ठराया ।  साथ ही ‘भर्तृहरि काव्य’ की भूमिका में उन्होने यहाँ तक कहा कि हिन्दी में बड़ी और छोटी मात्रा के फर्क के बने रहने के कारण ही तुलसीदास और सूरदास की कविता बांग्ला के कृत्तिवास और काशीराम दास की रचनाओं से अधिक मधुर व मनोहर हैं । इस एक प्रसंग से यह बात भी सामने आती है कि बलदेव पालित हिन्दी साहित्य से भी भलीभाँति परिचित एवं उसके गुणग्राही थे ।     

कवि अपने काव्य को लेकर बिल्कुल संशयहीन रहते थे एवं हर काव्यग्रंथ के समर्थन में अपनी बातें सशक्त तौर पर भूमिका में लिखते थे । यहाँ तक कि जिस ‘काव्यमाला’ की आलोचना बंकिम ने की थी उसकी भूमिका में भी एवं एक काव्य के बहाने भी उन्होने शारीरिक प्रवृत्ति व आदिरस पर कविता लिखने के पक्ष का समर्थन भी किया है और इसकी आलोचना लोग करेंगे इस संभावना का सामना भी किया है ।

जिस ‘काव्यमाला’ की तीव्र आलोचना बंकिम ने की उसी में संकलित ‘नायिकार प्रति नायकेर उक्ति’ कविता से ली गई इन पंक्तियों को देखें -

पत्तों को नचाते, सरोवर में कुमुद से लिपटते,

बलपूर्वक खोल तुम्हारी घूंघट, अलकों को उड़ाते,

चूम रहा है तुम्हे दक्षिण का पवन ।

अपनी शक्ति दिखाकर वह,

अगर चूम सकता है तुम्हारा वदन, तब क्यों मैं

इतनी खुशामद करते हुये भी

वंचित हूँ उस कोमलांग को स्पर्श करने से, सुन्दरी ?

एक कविता, ‘पयोधर’ ; उसकी चार पंक्तियाँ :-

इसलिये सोचता हूँ,

तुम्हारे वक्ष-सरोवर में

काम-पवन से उठ रहा है तरंग;

या मानस का जल छोड़ दिव्य दो हंस

वहाँ कर रहा है विहार ।

 

कवि ने काल्पनिक नायिका के बजाय अपनी ‘प्रियतमा श्रीमती के प्रति’ कहते हैं :-

बड़े कवि जो हैं वे भक्त हैं वीर-रस के

उस रस में, हे धनी, डुब सकते हैं क्या सभी ?

गाण्डीव का भार ढोना किसका साध्य है, सिवाय पार्थ के ?

मैं तो बस प्रेम का पुष्प-धनुष झुकाता हूँ ।

मधुर प्रीतिरस, मैं तो बस इसी का वश,

दूसरा रस कटु है, सो छूना भी नहीं चाहता हूँ ।

प्यार की आस में कोमल भाषा गूंथ कर

आदिरस में डुबाकर तुम्हे देता हूँ ।

पता नहीं पांडित्य के अभिमानी कितने मूर्ख हैं

जो सदा विरक्त होते हैं इस रस के नाम से;

उन्हे तुष्ट करने को बेकार होगी मेरी दीनता

अंधों को तुम्हारा रूप समझाना भी है एक बला ।

तुम्हे यह काव्य-हार दे रहा हूँ उपहार मैं

रत्न-हार देने का साध्य नहीं है मेरा ।

प्रेम की सूत से गूंथा हुआ माला, तुम्हारा ही योग्य है बाला

तुम ग्रहण करने पर मुझे मेरा वांछित फल मिलेगा ।

हालाँकि ये फूल नये नहीं हैं सारे

रस से भरे हैं या नहीं पूछता हूँ तुम्हे ?

तुम अगर खुश होकर अच्छा कहो, सुनयनी

क्यों डरूंगा मैं खल व छल से ग्रहण करने वालों को ?

अन्त में, ‘काव्यमंजरी’ के अंत में एक कविता है ‘गंगा के प्रति’ । उस कविता में गंगा के यात्रापथ का सुन्दर व वस्तुनिष्ठ वर्णन है । हमें और अधिक प्रभावित करता है बिहार-यात्रा का वर्णन – कर्मनाशा के मिलन से शुरू कर साहिबगंज में जल के बीच के पहाड़ों तक । प्रस्तुत है उसका एक अंश :-

बक्सर के बाद भृगु मुनि का आश्रम,

तुम्हारे साथ सरयु की एक शाखा का संगम ।

इस पवित्र तीर्थ से आगे लगभग बारह कोस पर

देहा और सोन के साथ तुम्हारा आकस्मिक टक्कर ।

करीब में दानापुर, देखने में रुचिर,

अंग्रेज सेना का अद्भुत शिविर ।

थोड़ी दूर पर दिखता है तुम्हारे तट पर

प्राचीन पाटलीपुत्र पटना नगर ।

पहले था वह उद्यानों से भरा,

तभी नाम उसका पुष्पपुर पड़ा । 

अभी उन उद्यानों जैसी नहीं कोई शोभा,

टूटे घाट बस दिखते हैं दो-चार ।

दो हजार साल बीत गये, चन्द्रगुप्त की

यह जगह राजधानी थी;

कुटिल कौटिल्य ने अद्भुत कौशल से दिया जिसे राजपाट,

छल से कर नन्दवंश का नाश ।

इसी स्थान पर था सिंहासन अशोक का;

अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये जो राजा

नगर नगर खड़ा किया जयस्तंभ,

देश देशान्तर में फैलाया बौद्धमत ।

आया यवनों का राज, नवाब हुये अजीमुश्शान;

इस शहर को दिया बिहार की राजधानी का मान,

कई सारे खूबसूरत भवन खड़े किये;

आज तक ख्यात है यह नगर उनके नाम से ।

कहते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह का जन्म हुआ यहीं,

जिनकी शिक्षा के बल से आगे बढ़े सिख ।

उस पार हरिहर देव का मन्दिर –

तुमसे मिला जहाँ गन्डक का नीर । …

 

 

* बलदेव पालित के जीवन से सम्बन्धित सभी निम्नलिखित विवरण 1938-39 इसवी में ‘भारतवर्ष’ पत्रिका के पौष (बांग्ला 1343) अंक में प्रकाशित, मन्मथनाथ घोष लिखित ‘बलदेव पालित’ शीर्षक निबंध से ‘साहित्य साधक चरित माला’ में लिये गये थे; वर्तमान लेखक ने ‘चरितमाला’ से लिया है

[‘बिहार के गौरव, भाग – 3’, (ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान, सदाकत आश्रम, पटना) में प्रकाशित]

  

1 comment:

  1. বইয়ের প্রচ্ছদে কি যন্ত্রে বইটি ছাপা হয়েছে তাও লেখা আছে! আগে এমনটি কখনো দেখিনি। সবচেয়ে বড়ো পাওনা হলো বলদেব পালিত সম্বন্ধে অনেক কিছুই জানলাম। ওনার সম্বন্ধে একদমই অজ্ঞ ছিলাম।

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