“बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में तातमाओं के बीच ढोंड़इ के बड़े होने का सूक्ष्मता के साथ निर्मित वर्णन को सहज रूप से औपनिवेशिक शासन का विश्वसनीय मानव-भुगोल एवं उत्तरी भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के तौर पर पढ़ा जा सकता है ।… अपने पात्रों के दैनिक जीवन की संकीर्णता एवं छोटी छोटी बातों से जुड़ाव के प्रति लेखक अत्यंत जागरुक थे । उन्हे अभी राष्ट्रीय नागरिक बनना था । लेकिन लेखक को इस बदलाव की उम्मीद थी । उन्होने देखा कि नीचे स्तर के तातमा एवं धांगरलोग भी आन्दोलित हो रहे हैं … सरकारी वर्गीकरणों का सूक्ष्म जातीय व साम्प्रदायिक बनावट सतीनाथ के आख्यान से कभी अनुपस्थित नहीं होता था ।”
(The Politics
of the Governed, Partha Chatterjee, Columbia
University Press New York)
‘जागोरी’ के हिन्दी संस्करण की भूमिका में प्रख्यात
भाषाविद सुनीतिकुमार चट्टोपाध्याय ने लिखा, “श्रीयुक्त गुप्तजी की
समालोचना [‘देश’ पत्रिका में, सन 1952 के अप्रैल महीने में प्रकाशित, अतुलचन्द्र
गुप्त द्वारा की गई समीक्षा] पढ़कर मैं भी इस ग्रंथ पर आकृष्ट हुआ था और संयोग से
इस की एक प्रति हाथ आने से कई घंटों में एक ही आसन पर बैठ इसे समाप्त कर लिया । मेरा
भी विचार है यह ग्रंथ केवल बंगसाहित्य के लिये गौरवस्थल नहीं बना है, बल्कि
विश्वसाहित्य में अपना स्थान इसने बना लिया है । … ‘जागोरी’ पढ़ते समय लेखक के
सत्यदर्शन, सत्यसमीक्षण और सत्यप्रकाशन की शक्ति से मेरा हृदय आनन्द से भर उठता है
। किस सहानुभूति के साथ इन्होने अपने अपने मुंह से उपन्यास के चार पात्रों के
बाह्यजीवन तथा आभ्यन्तर-प्रेरणा का उद्घाटन किया है । … (सतीनाथ भादुड़ी, निर्वाचित
रचना की भूमिका में संकलित)
हिन्दी के पाठक आम तौर पर सतीनाथ भादुड़ी से परिचित हैं । एक तो इसलिये कि फणीश्वर नाथ रेणु ने उन्हे अपना गुरु कहा, और दूसरा इसलिये भी कि भादुड़ीजी की कम से कम दो अनूठी व
सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ,
‘जागोरी’ तथा ‘ढोँड़इ चरित मानस’ का हिन्दी अनुवाद बिहार के हिन्दी साहित्यकारों एवं जागरुक पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ ।
सतीनाथ भादुड़ी पर
बांग्ला व हिन्दी के आलेखों का संकलन ग्रंथ ‘सतीनाथ स्मरणे’ के सम्पादक सुबल
गंगोपाध्याय बताते हैं कि सतीनाथ के पिताजी इन्दुभूषण भादुड़ी बंगाल के कृष्णनगर के
रहने वाले थे । वकालत की डिग्री हासिल करने के बाद वह सन 1896 में पूर्णिया आ गये
क्यों कि अंग्रेज जमाने में पूर्णिया कोर्ट में काफी व्यस्तता रहती थी और पूर्णिया
जिले में (किशनगंज व अररिया पूर्णिया में ही शामिल था उस वक्त) असंख्य बांग्लाभाषी
परिवार सौ दो सौ साल से बसे हुये थे ।
सतीनाथ का जन्म पूर्णिया
के भट्टाबाज़ार मोहल्ले में हुआ । जन्म की तारीख थी 27 सितम्बर 1906 । सन 1924 में पूर्णिया जिला स्कुल से वह फर्स्ट डिविजन से मैट्रिक पास किये ।
अत्यंत मेधावी थे सतीनाथ, क्लास की परीक्षा में हमेशा फर्स्ट आते थे । जिला स्कूल
के संस्कृत-शिक्षक तुरन्तलाल झा उन्हे ‘क्लास की रोशनी’ कह कर बुलाते थे । स्कूल
की पढ़ाई के बाद आगे के लिये वह पटना चले आये । इन्टर में उनका विषय विज्ञान था । परीक्षा का फल
आशा के अनुरूप नहीं होने के कारण वह आर्ट्स में चले आये । पटना आने के बाद वह
मखनियाकुँआ स्थित बंगाली मेस में रहते थे । वह मेस भी उन्होने छोड़ दिया और पटना
विश्वविद्यालय के मोहमेडन हॉस्टल (इकबाल हॉस्टेल) में चले आये । अर्थनीति (सम्मान)
के साथ सन 1926 में वह बीए पास किये । लेकिन बीए में भी द्वितीय श्रेणी ही मिला ।
इसी वर्ष उन्हे एक बड़ा धक्का लगा । डायाबेटिस के कारण माँ का निधन हो गया बनारस
में । माँ के निधन के सात दिनों के बाद पूर्णिया में छोटी बहन करुणामयी का कॉलेरा
की बीमारी से निधन हो गया ।
सतीनाथ का मन उचटने लगा था लेकिन राजनीतिक जागरुकता
थी एवं रुचि से लेखक व कलाकार होने के बावजूद राजनीतिक कार्यभार की चुनौती को
स्वीकारना सतीनाथ के खिलाड़ी स्वभाव में था । तभी हम पाते हैं कि छुट्टियों में
पूर्णियावास के दौरान उन्होने भट्टाबाज़ार में शराब की दुकान के सामने पिकेटिंग में
नेतृत्व दिया ।
सन 1930 में पटना विश्वविद्यालय से ही उन्होने
अर्थनीति में एमए पास किया, द्वितीय श्रेणी ही हासिल हो पाया । सन 1931 में पटना
लॉ कॉलेज से बीएल की डिग्री ली । फिर लौट आये पूर्णिया ।
पूर्णिया शहर बांग्ला साहित्य के एक और, प्रवीणतर
साधक, केदारनाथ बंदोपाध्याय के कारण बंगाली पाठकवर्ग के लिये परिचित रहा है ।
सतीनाथ जब पटना छोड़ कर पूर्णिया वापस आये तब बांग्ला के साहित्यकारों का अड्डा
केदारनाथ बंदोपाध्याय, जो उस वक्त ‘दादामोशाय’ के नाम से जाने जाते थे, के घर पर
लगता था । सतीनाथ भी उस अड्डे में नियमित रूप से हाजिर होने लगे । शायद सन 1931
में ही कलकत्ता से निकलने वाली, प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘विचित्रा’ में
सतीनाथ भादुड़ी की पहली कहानी ‘जामाईबाबु’ प्रकाशित हुई ।
सन 1932 में सतीनाथ, पिता इन्दुभूषण भादुड़ी के
सहयोगी के रूप में पूर्णिया कोर्ट में वकील बन गये । कभी पिताजी के साथ घोड़ागाड़ी
पर या कभी अपनी साइकिल से सतीनाथ कोर्ट जाते थे । पहुँचकर घुस जाते थे
बार-लाइब्रेरी में । किताबों की ढेर में डूब जाते थे । इस पढ़ाई के कारण जिस तरह
विधिशास्त्र का ज्ञान गहरा होता गया (उस समय के बड़े वकील उनसे विधि के जटिल
सिद्धांत समझ लेते थे जबकि कई जिला जज उनसे विभिन्न रुलिंग जान लेते थे), उसी तरह
साहित्यिक सृजन के लिये जरुरी सामग्रियाँ भी उपलब्ध होती गई । अपनी एक कहानी,
‘अनावश्यक’ में वह लिखते हैं, “बार-लायब्रेरी है जिला का ब्रेन-ट्रस्ट । क्या
फालतु इतिहास की पुस्तकें पढ़ते हैं लोग । यहाँ की नर्मगर्म, होशियार टिप्पणियाँ
देश की अलिखित इतिहास हैं – असली इतिहास हैं । हर दिन ये मुँहजबानी, इतिहास का
डिक्टेशन दिये जा रही हैं ।” साथ ही उनका लेखन भी चल रहा था । कलकत्ता के विभिन्न पत्रपत्रिकाओं
में उनकी कहानियाँ, व्यंगकथायें प्रकाशित हो रही थी । उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा
कभी नहीं रहा, फिर भी पढ़ाई के दिनों से ही खेलकूद पर उनका ध्यान रहा । लॉन टेनिस
के वह अच्छे खिलाड़ी थे एवं कई प्रतियोगिताओं चैम्पियन हुये । बाद में, कारावास के
दिनों में, वॉलीबॉल में उनकी पारदर्शिता को भी लोगों ने परख लिया ।
सन 1935 में सतीनाथ पूर्णिया शहर के लिये दो बड़े
काम किये । पहला तो यह कि शहर में उन्होने एक पुस्तकालय स्थापित किया । नाम पड़ा
‘पुर्णिया लायब्रेरी’ । अपने संगी साथियों के साथ रातों में लालटेन लेकर घर घर
घूमते हुये उन्होने पुस्तकालय के लिये किताबें जुटाईं । बाद में इसी पुस्तकालय का
नामकरण उनके पिता के नाम पर ‘इन्दुभूषण लायब्रेरी’ किया गया । दूसरा काम था
पुर्णिया के विख्यात भट्टाबाज़ार दुर्गाबाड़ी में दुर्गापूजा के अवसर पर सांस्कृतिक
कार्यक्रम का आयोजन ।
लेकिन यह सब कुछ करते हुये भी उनके भीतर एक
अस्थिरता थी । द्वितीय विश्वयुद्ध, देश का राजनीतिक परिदृश्य उन्हे कुछ करने के
लिये बुला रहा था । सन 1939 के 24 सितम्बर को उन्होने वकालत छोड़ दिया, घर त्याग
दिया और चले गये सर्वोदयी नेता वैद्यनाथ चौधरी के टिकापट्टी स्थित आश्रम में । शहर
की इस चौंकाने वाली घटना पर बिहार के एक बांग्लाभाषी लेखक सुबल गंगोपाध्याय लिखते
हैं, “24 सितम्बर 1939 । पूरा शहर विस्मित व चमत्कृत होकर सुना कि सतीनाथ चले गये
हैं सर्वोदयी नेता वैद्यनाथ चौधरी के टीकापट्टी स्थित आश्रम में । शहर से 20/25 मील
दूर गाँव में था यह आश्रम ।” घर के लोगों ने उन्हे घर लौटाने का प्रयास किया, पर
विफल हुये ।
सुबल गंगोपाध्याय आगे लिखते हैं, “सक्रिय राजनीतिक
जीवन में प्रवेश करने के बाद सतीनाथ के जीवन का दायरा और बड़ा हुआ । बिभिन्न नज़रिया
वाले लोगों के सम्पर्क में वह आये एवं बाद में ऐसे कई लोग उनके साहित्य के पात्र
बने । कांग्रेस के आम कार्यकर्ता एवं नेताओं में वह लोकप्रिय थे । … इसी समय
पूर्णिया जिला के गाँव गाँव में ‘भादुड़ीजी’ के नाम से वे ख्यात हो गये । … एकबार
कटिहार जूट्मिल में हड़ताल हुई । वहाँ भी सतीनाथ हड़ताली मज़दूरों के साथ घुलमिल गये
। मिल-मज़दूरों के साथ एकसाथ भोजन, सर के नीचे ईँट की तकिया डाल कर रात बिताना… … कांग्रेस
के टीकापट्टी आश्रम में रहते हुये सतीनाथ अक्सर भट्टाबाज़ार में अपने घर आते थे,
भेँट-मुलाकात के लिये । साथ में रहता था एक कम्बल, मच्छरदानी और धोती ।”
सन 1940 के जनवरी में सतीनाथ पहलीबार जेल गये ।
व्यक्तिगत असहयोग सत्याग्रह के कारण । पहले पूर्णिया जेल फिर स्थानान्तरित हुये
हजारीबाग जेल । उस वक्त उस जेल में जयप्रकाश नारायण, डा॰ श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह
नारायण सिंह, पूर्णिया कांग्रेस के अध्यक्ष अनाथ कान्त बसु, भूतपूर्व सांसद
फणीगोपाल सेन आदि कई कांग्रेसी नेता थे । सतीनाथ सबसे मिलते थे, बातें करते थे एवं
वक्त निकाल कर खूब पढ़ते थे । तुलसीदास क रामचरित मानस ध्यान से पढ़ने एवं नोट लेने
के अलावे उर्दु एवं फ्रांसिसी भाषा का अध्ययन करते थे ।
सन 1941 में छ: महीने के लिये फिर जेल गये । फिर
हजारीबाग जेल । इस समय तक, कांग्रेसी होते हुये भी उनके भीतर सोश्यलिस्ट पार्टी के
लिये झुकाव पैदा हो चुका था । वह सोश्यलिस्ट लोगों के कामों को भीतर से मदद करने
लगे । इस सिलसिले में एक जगह सतीनाथ के अनुयायी एवं सहकर्मी डा॰ बीरेन भट्टाचार्य के
कथन का जिक्र मिलता है, “सन 1939 में कांग्रेस में योगदान करने के बावजूद सतीनाथ
उस समय दिलोजान से सोश्यलिस्टों के पक्षधर थे । कम्युनिस्टों की सांगठनिक क्षमता
की वह तारीफ करते थे, लेकिन पराये देश पर निर्भर किसी राजनीतिक नीति का वह समर्थन
नहीं करते थे । कांग्रेस में रहते समय वह जयप्रकाश नारायण, गंगाशरण सिंह एवं बिहार
के अन्य कई सोश्यलिस्ट कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आये एवं उनके साथ काम करने को
ठान लिया । 1942 के आन्दोलन में पूर्णिया जिला के संगठन का भार उन्हे गुप्त रूप से
दिया गया था । बड़ी मात्रा में पैसों का हिसाब किताब, रिवॉल्वर मंगाना-देना एवं
सबों के साथ सम्पर्क रखने का काम सतीनाथ एवं हम कुछेक लोग मिल कर करते थे । सतीनाथ
पकड़े गये …।“ [सतीनाथ भादुड़ी, दीपंकर मोशान, दिबारात्रिर काव्य, सतीनाथ भादुड़ी
संख्या]
सन 1942 में सतीनाथ पूर्णिया जिला कांग्रेस के सचिव
निर्वाचित हुये । अगस्त’42 के भारत-छोड़ो आन्दोलन में वह सीधे तौर पर हिस्सा लिये
तथा डिफेन्स ऑफ इन्डिया रूल्स के तहत जेल भेजे गये । पहले पूर्णिया जेल में रखा
गया था । लेकिन दल-वल लेकर जेल तोड़ने की कोशिश में पकड़े जाने के कारण उन्हे
भागलपुर सेन्ट्रल जेल में ट्रान्सफर कर दिया गया । इसी भागलपुर जेल में बैठ कर
उन्होने ‘जागोरी’ लिखने की शुरुआत की एवं पूरा उपन्यास लिख डाला । हिन्दी के
प्रख्यात लेखक फणीश्वरनाथ रेणु भी उस वक्त भागलपुर जेल में थे । बल्कि ‘जागोरी’ की
पान्डुलिपि के पहले पाठक भी रेणुजी ही थे । बाद में एक संस्मरण में रेणुजी ने लिखा
:-
“जेल जाते ही सबलोग कुछ न कुछ लिखना शुरु कर देते हैं । …
“भादुड़ीजी भी लिखते थे । क्या लिखते थे यह हम टी-सेल में जाने के बाद जाने । …
“एक दिन उनकी ‘डिग्री’ में बैठ कर चाय पी रहे थे । सामने एक कॉपी पड़ी हुई थी ।
हाथ में लेकर पन्ना पलट कर देखा – लेड पेन्सिल से कुछ लिखा हुआ है । पढ़ते पढ़ते लगा
– यह तो डायरी है । कॉपी बन्द कर रखते हुये पूछा – डायरी है क्या ? उन्होने तुरन्त
पलट कर सवाल किया – क्यों ? किसी की डायरी पढ़ना नहीं चाहिये क्या ? और बाकी सब कुछ
बिना पूछे पढ़ा जा सकता है ?
“मैं घबड़ाये हुये और लज्जित होकर लौट आ रहा था । उन्होने कहा – चार पृष्ठ जब
पढ़ ही चुके हो बाकी पृष्ठ भी पढ़ डालो । लेकिन तुम लोगों के ‘गब्बे-हाउज’ में इसका
जिक्र या चर्चा होना नहीं चाहिये । … ले जाओ ।
हम कुछ लोग मिलकर एक ‘गप्पी-गोष्ठी’ बनाये थे । बाद में उसका नाम पड़ा था
‘गब्बे-हाउज’ । उस टी-सेल में बैठ कर ‘जागोरी’ की पान्डुलिपि पढ़ने की बात हमेशा
याद रहेगी । …
“चार महीना बाद नीलू का अध्याय यानि अन्तिम अध्याय
पढ़ कर समाप्त करने के बाद दौड़ कर उनके पैर पर हाथ रखते हुये मैंने कहा था – आज आप
मना करने पर भी मानूंगा नहीं । … चरण का धूल दीजिये ।”
जेल से छूटने के बाद सतीनाथ फिर से पूर्णिया जिला
कांग्रेस के सचिव के रूप में काम करने लगे । साथ ही उनका लेखन कार्य भी चलता रहा ।
सन 1944 में सतीनाथ फिर से जेल में ही थे जब 20 जनवरी को पिता इन्दूभूषण भादुड़ी का कलकत्ता में
निधन हो गया ।
सन 1945 में उनका उपन्यास ‘जागोरी’ उपन्यास का
प्रकाशन हुआ । 1942 के आन्दोलन पर आधारित पूरा उपन्यास एक परिवार के चार सदस्यों
की जुबानी है – पिता, शिक्षक, प्रतिबद्ध गांधीवादी, जेल में बन्दी; माँ, गृहवधु पर
पति के कामों और विचारों की पूरी साझेदार, उन्ही के साथ जेल में बन्दी; बड़ा बेटा
बिलू, सोश्यलिस्ट, आन्दोलन के दौरान उग्र, हिंसक गतिविधियों के आरोप पर फाँसी का
सजायाफ्ता, फाँसी-सेल में बन्दी, अगली सुबह होने वाली फाँसी के इन्तजार में; और
नीलू, कम्युनिस्ट, जेल के बाहर एक पेड़ के नीचे, भाई की फाँसी के बाद की जरूरतों के
लिये बैठा हुआ । लेखक का अपना राजनीतिक झुकाव ‘बिलू’ के साथ स्पष्ट है फिर भी एक
यथार्थवादी लेखक की अन्तर्दृष्टि के साथ उन्होने चारों पात्र के बयान को
निष्पक्षता के साथ दर्ज किया है ।
यह भी एक कहानी है कि उपन्यास की पाण्डुलिपि सतीनाथ
यूँ ही रखे हुये थे । उनका एक परिचित, उपन्यास को पढ़कर मुग्ध हुआ तो ले जा कर बंगला
के सर्वाधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका व प्रकाशन संस्था को दिया । महीनों वहीँ
पड़ी रही पाण्डुलिपि और फिर लौटा दी गई । कहा गया कि उनके ‘एक्सपर्ट’ को अच्छा नहीं
लगा । अन्तत: पीले पड़े कागज में असंख्य अशुद्धियों के साथ ‘जागोरी’ एक छोटे से
मुद्रणालय से प्रकाशित हुआ । प्रकाशित होते ही इस उपन्यास को बंगला के पाठकों ने
सादर ग्रहण किया । तत्कालीन प्रतिष्ठित लेखकों ने भी स्वीकार किया कि ऐसा कुछ आज
तक बंगला साहित्य में रचा नहीं गया था । फिर तो इस उपन्यास को रवीन्द्र पुरस्कार
से सम्मानित किया जाना (पश्चिम बंगाल राज्य सरकार द्वारा दिया जाने वाला रवीन्द्र
पुरस्कार का सन 1950 में पहला प्रापक ‘जागोरी’ ही था), देश व दुनिया के विभिन्न
भाषाओं में इस उपन्यास का अनुदित होना एक इतिहास है ।
फणीश्वर नाथ रेणु के संस्मरण में एक घटना का जिक्र
है जो सतीनाथ भादुड़ी के चरित्रबल को दर्शाता है । सन 1942 में भागलपुर सेन्ट्रल
जेल के अधिकारियों ने मना कर दिया कि 26 जनवरी का किसी भी प्रकार से मनाया जाना
प्रतिबंधित रहेगा । कांग्रेस के युवा बन्दी अड़ गये कि वे 26 जनवरी को ‘बन्दे मातरम’
गायेंगे । जेल की पुलिस, पूर्व घोषणा के अनुसार लाठीचार्ज के लिये आगे बढ़ने लगी ।
ठीक लाठीचार्ज के पहले सतीनाथ अपने टी-सेल में से, लिखने की मेज छोड़कर सबसे अगली
कतार में आकर खड़े हो गये । लाठी चली सीधे माथे पर । बरबस उनका हाथ उठ गया तो मार
गर्दन पड़ लगी । बहुत दिनों तक मार का वह काला दाग और दर्द गर्दन पर रहा ।
टी-सेल में सतीनाथ के होने की भी एक कहानी है ।
टी-सेल में फाँसी के आसामी को रखा जाता था । पर सतीनाथ ने खुद आवेदन कर खुद को
टी-सेल में ट्रान्सफर करवाया ताकि लिखने के लिये आवश्यक एकान्त वहाँ प्राप्त होगा
। अपना भोजन वह वहां खुद बनाते थे ।
सतीनाथ व्यस्त राजनीतिक जीवन के साथ साथ लेखन कार्य
जारी रखे । विवाह उन्होने नहीं किया । बाद में, सक्रिय राजनीतिक कामकाज छोड़कर जब
सिर्फ लेखन पर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया (टीकापट्टी का आश्रम छोड़ कर
सतीनाथ उस समय घर पर ही रहने लगे थे) उनके दो सहचर रहे आजीवन, उनका व्यक्तिगत
रसोइया और एक पालतू कुत्ता ।
सन 1947 में किशनगंज में बिहार प्रदेश कांग्रेस का
सम्मेलन आयोजित हुआ । इस आयोजन का पूरा काम सतीनाथ भादुड़ी के नेतृत्व में हुआ ।
लेकिन सतीनाथ के भीतर एक आत्मसंघर्ष जारी था । कांग्रेस के नेताओं में से कईयों का
बदलता हुआ चेहरा, सत्तालोलुपता, काले धंधे आदि वे देख रहे थे । देश को स्वतंत्रता
प्राप्त होते ही वह और नंगा हो गया । सन 1948 में पूर्णिया जिला कांग्रेस का सचिव
रहते हुये उन्होने कांग्रेस छोड़ा । उसी साल ‘दैनिक कृषक’ के शारद अंक में उनकी
कहानी छपी ‘गणनायक’, जिस कहानी का पात्र ‘मुनीमजी’ भारत-पाकिस्तान सीमा पर चीनी और
जूट का धंधा करने के लिये कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के झंडे का इस्तेमाल करता
है । फणीश्वरनाथ रेणु ने जिक्र किया है, कांग्रेस छोड़ने के कारण के रूप में किसी
वयोज्येष्ठ कांग्रेस कार्यकर्ता को सतीनाथ ने कहा, “कांग्रेस का काम था देश को
स्वतंत्रता दिलाना । वह तो हो गया है । अब ‘राजकाज’ के अलावा कोई काम नहीं बचा है
।“ लेकिन उससे भी बड़ा एक आत्मिक संकट से सतीनाथ जूझ रहे थे । सक्रिय राजनीति करें
या न करें । लेखन पर अधिक ध्यान देने के लिये क्या सक्रिय राजनीति छोड़नी होगी ?
कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होने सोश्यलिस्ट पार्टी कि सदस्यता ली । हालाँकि
सोश्यलिस्ट पार्टी या सीएसपी कांग्रेस के अन्दर ही थी और सतीनाथ काफी दिनों से
उसके समर्थक भी थे । वह यह भी देख रहे थे कि कांग्रेस में फैल रही बीमारी से
सीएसपी भी अछूता नहीं है । जैसा कि रेणुजी कहते हैं, “कांग्रेस में जितनी
बीमारियाँ थी सब हमारी पार्टी में भी आ चुकी थी ।
जिला के बड़े जमीन्दारों के बेटे पार्टी में आ गये थे । वे नहीं चाहते थे कि
पार्टी में ऐसा कोई व्यक्ति आये जो आम ‘किसान-मज़दूरों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन
शुरु करे ।“ लेकिन इस नये आत्मिक संकट के कारण सोश्यलिस्ट पार्टी में वह सक्रिय
रूप से खास आगे नहीं बढ़े एवं बाद में सदस्यता भी छोड़ दी । उनकी ‘संकट’ कहानी के
पात्र ‘विश्वासजी’ अपने सचिव को राजनीति छोड़ने का कारण बताते हैं, “जितना दिन चला,
चला लिया । अब चल नहीं रहा है । समझे ? इसमें हर एक क्षण में इतने अधिक कामों का
घना बुनावट है कि अन्त में इसका अर्थ खो जाता है । इस काम के आगे बाद वाला काम,
फिर उसके बाद वाला काम, फिर … सारे क्षण एक जैसे हैं । तुम्हारे टाइपराइटर में
जैसे टकटकटक एक अक्षर के बाद दूसरे अक्षर का छाप उगता है उसके जैसा, काम वाली
चिट्ठी में भी और बिना काम की चिट्ठी में भी । हमेशा एक जैसा । अब और नही चल पाया
।“
सन 1948 में ही ‘जागोरी’ उपन्यास का किशोर संस्करण
एवं हिन्दी अनुवाद दोनों प्रकाशित हुआ । एक कहानी संकलन ‘गणनायक’ भी प्रकाशित हुआ
। और सन 1948 में ही ‘देश’ पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित होने लगा सतीनाथ भादुड़ी
का दूसरा महान उपन्यास ‘ढोँड़इ चरित मानस’ । कथानक और तकनीक की आधुनिकता,
हिन्दुधर्म के वर्णो के हिसाब से निम्नजातीय एवं सीमान्त समुदायों की अन्तर्कथा के
माध्यम से समकालीन इतिहास का वर्णन, प्राचीन कथाओं के भाष्य का एक हाइपरटेक्स्ट के
निर्माण के लिये इस्तेमाल … क्या कुछ नहीं था इस उपन्यास में ! उस समय तक न सिर्फ
बंगला, बल्कि देश के किसी भी अन्य भाषा में ऐसा उपन्यास लिखा नहीं गया था, यह बात
दावे के साथ कही जा सकती है । उपन्यास दो खंडों या दो चरणों में है, जिसमें
पूर्णिया के शहरी किनारों पर रहनेवाली अत्यन्त गरीब तात्माटोली के ढोँड़इ तात्मा का
शैशव से वयस्क होकर सक्रिय राजनीति में आना और फिर देश की स्वतंत्रता की प्राप्ति
के बाद एक दिशाहीन नि:संगता के सामने खड़े होने की त्रासदी को दर्शाया गया है ।
हालाँकि उनकी ईच्छा तीसरा चरण, यानि स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में ढोँड़इ की
यात्रा, लिखने की भी थी, जैसा कि उनके भाई बताते हैं, पर वह नहीं लिख पाये ।
सतीनाथ का तीसरा चर्चित उपन्यास में आया, ‘अचिन
रागिनी’ । ‘जागोरी’ एवं ढोँड़इ चरित मानस’ जैसे, बंगला साहित्य में जबर्दस्त
उपस्थिति दर्ज करनेवाले दो सामाजिक-राजनीतिक प्रयोगधर्मी उपन्यास लिखने के बाद
सतीनाथ ने एक परिचित, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय वाले ढाँचे को चुना एक नई खोज के
लिये । कथानक के मूल पात्र तीन हैं – नोतुन दिदिमा, तुलसी और पिले – एवं कहानी
‘पिले’ की जुबान से कही जाती है । ‘नोतुन दिदिमा’ या नई नानी एक प्रौढ़ की चहकती
हुई जवान पत्नी है, प्रौढ़ के बच्चे की माँ भी है पर अपने मोहल्ले के हम-उम्र
किशोरों के साथ गपियाते हुये एक आत्मिक लगाव महसूस करती है । वे भी खूब आना चाहते
हैं इस ‘नोतुन दिदिमा’ के पास । इन्ही में तुलसी नाम का एक लड़का है जिसको ‘नोतुन
दिदिमा’ ज्यादा चाहती हैं । ‘पिले’, जिसकी जबानी यह कहानी है वह भी चाहता है
‘नोतुन दिदिमा’ उसे भी उतना ही चाहे । इसी बुनावट में लेखक उस प्रेम को ढूँढ़ते हैं
जो ‘नोतुन दिदिमा’ को विवाह में नहीं मिला और ये किशोर उसके एहसास की दहलीज पर खड़े
हैं । अपने विषयवस्तु के नयापन एवं वर्णन की वस्तुपरकता के कारण यह उपन्यास आज भी
चर्चित है ।
सन 1955 में ‘अचिन रागिनी’ का प्रकाशन हुआ । पर उसी
साल सतीनाथ के माथे में, (मिडिया स्टाइनम में), जाँच के दौरान टिउमर की उपस्थिति
पकड़ी गई । अगले दस साल वे पूरी क्षमता के साथ लिखते रहे । उपन्यास व कहानी संग्रह
प्रकाशित होते रहे ।
सन 1965 में ‘जागोरी’ का अंग्रेजी अनुवाद, ‘द
विजिल’, युनेस्को के प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । 30 मार्च की सुबह अपने बगीचे में
टहलते हुये, ‘द विजिल’ पढ़ते पढ़ते माथे का ट्युमर फटा एवं मात्र 59 वर्ष की उम्र
में सतीनाथ का निधन हो गया ।
बंगला भाषा व साहित्य के आकाश के उज्ज्वलतम
नक्षत्रों में से एक, बिहार के सपूत सतीनाथ भादुड़ी की रचनायें आज विश्वसाहित्य के
सर्वश्रेष्ठ मिसालों में शुमार है । आदर के साथ वह ‘लेखकों के लेखक’ कहे जाते हैं
।
सतीनाथ भादुड़ी के प्रकाशित ग्रंथ
1॰ जागोरी (उपन्यास) – 1945, 2॰ गणनायक
(कहानीसंग्रह) – 1948, 3॰ जागोरी (किशोर संस्करण) – 1948, 4॰ ढोँड़ई चरित मानस
(उपन्यास, प्रथम खंड) – 1949, 5॰ चित्रोगुप्तेर फाईल (उपन्यास) – 1949, 6॰ ढोँड़ई
चरित मानस (द्वितीय खंड) – 1950, 7॰ सोत्यी भ्रमणकाहिनी (पर्यटनकथा) – 1950, 8॰
अपोरिचिता (कहानीसंग्रह) – 1954, 9॰ अचिन रागिनी (उपन्यास) – 1955, 10॰ चकाचकी
(कहानीसंग्रह) 1956, 11॰ संकट (उपन्यास) – 1957, 12॰ पत्रोलेखार बाबा
(कहानीसंग्रह) -1959, 13॰ जलभ्रोमी (कहानीसंग्रह) – 1962, 14॰ अलोक दृष्टि
(कहानीसंग्रह) – 1963, 15॰ दिग्भ्रान्त (उपन्यास) – 1966 (लेखक के मृत्यु के
उपरान्त) । बाद में सतीनाथ ग्रंथावली एवं सतीनाथ विचित्रा का प्रकाशन हुआ । इनके
अलावे उनकी कई कहानियाँ, आलेख, कुछ कवितायें, एक नाट्यरूप आदि हैं जिन्हे ग्रंथित
नहीं किया गया है ।
[‘बिहार के गौरव,
भाग – 3’, (ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान, सदाकत आश्रम, पटना) में प्रकाशित]
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