बिहार की भाषाओं में बांग्लाभाषा या बांग्लाभाषियों के भी शामिल हो जाने को लेकर हमारी बातचीत का प्रस्थानविंदु सामान्यत: इस्ट इन्डिया कम्पनी का शासनकाल होता है। बंगाली कलकत्ता में शिक्षित हुये और कम्पनी की नौकरी के सिलसिले में बिहार भेज दिये गये!
इसमें कोई शक नहीं कि कम्पनी के और फिर प्रत्यक्षत: अंग्रेज सरकार के शासनकाल में बड़ी संख्या में बंगाली सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि युक्त प्रदेश के बड़े शहरों में, लाहौर सहित अविभाजित पंजाब के बड़े शहरों और नागपुर सहित, केन्द्रीय प्रदेश (आज का मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पूर्वी महाराष्ट्र) के सभी शहरों में बड़ी संख्या में गये और उनमें से कई वहाँ बस गये।
बिहार में (और झारखण्ड में) बांग्लाभाषियों की बड़ी तादाद की बात अलग से इसलिये भी होती है क्योंकि बीसवीं सदी की शुरुआत तक बिहार बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा था। और यह बिहार उस समय झारखण्ड को भी शामिल किये हुये था। इसके अलावा, सरकारी प्रशासनिक विभागों, अदालतों, रेल कारखाना वगैरह से अलग निजी औद्योगीकरण की नजर से भी यह भूभाग उतना पीछे नहीं था जितना बाद में होने लगा। अगर बिहार का कारिगर हिन्दुस्तान का मैंचेस्टर, हावड़ा में खट रहा था तो गोपालगंज के चीनी मिल में बंगाली मुंशी खट रहा था।
एक, अभिन्न शुरुआत
वैसे, यथार्थ तो यही है कि सर्वाधिक प्राचीन बांग्ला साहित्य के निदर्शन के रूप में 9वीं से 12वीं सदी के बीच रचे गये जिस काव्य-समुच्चय की बात होती है उसकी रचना एक बड़े भुखण्ड में हुई थी जिसमें बिहार भी उतना ही शामिल था जितना बंगाल एवं बांग्लादेश। यह स्वाभाविक है कि सिर्फ बांग्ला नहीं बल्कि सभी पूर्वांचलीय भाषायें इस काव्य-समुच्चय, ‘चर्यापद’, या सिद्धाचार्य रचित दोहों को अपना सर्वाधिक प्राचीन निदर्शन मानते हैं क्योंकि भाषाई-भुगोल के लिहाज से उन सभी भाषाओं का निर्माण मिलेजुले तौर पर उस बड़े भुखण्ड में हो रहा था, पाल साम्राज्य के अधीन जिस भुखण्ड में आज के बिहार, पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, आसाम तथा झारखण्ड व ओड़िशा के भी कुछ कुछ इलाके शामिल थे। उस भाषा को भाषाविज्ञानी लोग शायद अर्द्ध-मागधी प्राकृत के नाम से परिभाषित करते हैं। जैसा कि आर॰ आर॰ दिवाकर द्वारा सम्पादित, ‘बिहार थ्रु द ऐजेस’ शीर्षक चर्चित ग्रंथ में कहा गया हैं:
“Charya
songs were written in an Eastern vernacular closely resembling the different
local varieties of the New Indo-Aryan of the east. Charya songs were equally
intelligible to the speakers of all eastern dialects. Moreover, the
Siddhacharyas did not all belong to only one region but they came from Bihar,
Bengal, Orissa and even from as far west as Saurashtra. The monasteries (Mahaviharas)
of Tantric Buddhists in Bengal and Bihar (viz. Pandubhumi, Jagandala, Somapura,
Vikramsila, Nalanda and Odantpuri) were open to scholars and monks from
everywhere.”
………
“It is
generally believed that till the 9th century AD the languages of
eastern provinces such as Bihar, Bengal, Assam and Orissa had not developed any
features distinct enough to be clearly distinguished from one another.”
भाषा ही नहीं, बल्कि लिपि भी एक ही थी।
“During
this period, the same script was used throughout East India, i.e. from Varanasi
(and further West) to Assam. This was the eastern version of the Kutila or
later Nagari script.”
[आर आर दिवाकर सम्पादित ‘बिहार थ्रु द एजेस’, पृ 350 – 352]
भाषाई राष्ट्रीयता का निर्माण
भाषाओं के इस तरह एक साथ शुरू होने के बाद अगली सदियों में उनका अलग अलग रूप लेना, भाषाई-संस्कृति एवं भाषाई-राष्ट्रीयता के रूप में विकसित होना चलता रहा। इसलिये मुघल बादशाह अकबर ने जो पहले ही दौर में 12 सूबे बनवाये उसमें सुबा-ए-बिहार एवं सुबा-ए-बंगाल अलग अलग था। लेकिन क्या तब बिहार में बांग्ला, या बांग्ला में बिहार कुछ भी नहीं बचा रहा?
रहा! सरकार-ए-पूर्णिया या पूर्णिया परगना अपने सात भागों के साथ सूबा-ए-बंगाल में था जो अपने लोग, भाषा, संस्कृति के साथ बिहार का हुआ सन 1956 में, राज्यों के पुनर्गठन के दौर में। सरकार-ए-राजमहल भी अपने भागों के साथ सूबा-ए-बंगाल में रहा; सन 1956 में बिहार का हुआ और सन 2000 में कुछ बिहार का रहा बाकी झारखण्ड में चला गया। धनबाद, चन्दनकेयारी, पुरुलिया आदि मानभूम के इलाके में तो जन आन्दोलन भी हुये, बांग्ला भाषाई अस्मिता की रक्षा के सवाल पर।
ये तो बड़े फलक की गतिशीलतायें थी लेकिन लोग? लोगों के, आम जनजीवन के, उनकी दैनन्दिन गतिशीलता के लिखित इतिहास का होना, जनसांख्यिक गतिविधियों का रेकॉर्ड रखा जाना तो आधुनिककाल की सोच है, लेकिन मुझे लगता है कि सिर्फ पूर्णिया और साहेबगंज, भागलपुर का इलाका नहीं, बांग्लाभाषी पूरे मध्य युग में, अभी के बिहार के (झारखण्ड को छोड़ भी दें तो) विभिन्न शहरों में जरूर रहते होंगे। एक मिसाल के तौर पर गया। पितृपक्ष में या श्राद्धकर्म के लिये गया का महत्व बांग्ला के धार्मिक कार्यविधियों में काफी पहले से वर्णित है। गया में बांग्लाभाषियों के बसे होने का प्रमाण मौखिक इतिहास के माध्यम से या दूसरे कुछ रेकॉर्ड्स के माध्यम से ढुंढ़ा जा सकता है। बोधगया में चटगाँव तक के बौद्ध आते जाते रहे हैं एवं उनमें जरूर कुछ बस गये होंगे। ठीक उसी तरह जैसे लाखों बिहारी कलकत्ता से शिलिगुड़ी और ढाका से खुलना तक रहने लगे थे।
भागलपुर इलाके के उत्तरराढ़ी कायस्थ
यहाँ भागलपुर के उत्तर-राढ़ी कायस्थों का जिक्र हो जाना चाहिये। जिनकी पदवी बंगाली है लेकिन उनमें से अधिकांश आज बांग्ला का एक अक्षर नहीं जानते हैं। नगेन्द्रनाथ बसु रचित ‘बंगेर जातीय इतिहास’ के ‘कायस्थखंड’ में जिक्र है कि हिजरी 821 या अंग्रेजी 1418 में बंगाल के ख्यातिप्राप्त दत्तपरिवार के एक वंशज, थाकदत्त (इनका असली नाम नहीं जाना जा सका है) को भागलपुर इलाके का कानुनगो बनने का फर्मान मिला। लेखक अनुमान लगाते हैं कि चुँकि उस समय यह इलाका दिल्ली के बादशाह के अधीन नहीं था इसलिये गौड़ के राजा गणेश के निधन के बाद उनके मुसलमान धर्मान्तरित पुत्र जलालुद्दीन (हिन्दु नाम ‘यदु’) यह फर्मान दिये होंगे। फर्मान की प्रति नहीं मिली है लेकिन भागलपुर के महाशय वंश के पुराने कागज में पिछली पीढ़ियों के नाम में लश्कर दत्त उर्फ थाकदत्त मजुमदार, जानकी दत्त उर्फ थाकदत्त मजुमदार लिखे मिलते हैं।
उक्त ग्रंथ में इस बात का भी जिक्र है कि उपरोक्त लश्कर दत्त अकबर के समय तक कानुनगो थे। अकबर ने भी उन्हे कानूनगो का फर्मान दिया और साथ ही, ‘महाशय’ की उपाधि तथा ‘मजुमदार’ की पदवी दी। लेकिन अधिक उम्र हो जाने के कारण सन 1605 में अकबर ने लश्कर दत्त के दामाद श्रीराम घोष को कानूनगो बना दिया। साथ ही उन्हे ही पीढ़ी दर पीढ़ी इस्तेमाल करने के लिये ‘महाशय’ की उपाधि दे दी।
इस इतिहास का जिक्र इसलिये किया गया क्योंकि, जैसा कि कहा गया, भागलपुर इलाके के पारम्परिक बांग्लाभाषी, शरणार्थी कॉलोनी के बांग्लाभाषी के अलावा एक तीसरी आबादी भी है उत्तरराढ़ी कायस्थों का जो आये हैं बंगाल से, पदवी भी बंगाल की है पर अमूमन वे बांग्ला भूल चुके हैं। इस पूरी आबादी के यहाँ बसने के इतिहास का जुड़ाव चम्पानगर स्थित महाशय घोष की ड्योढ़ी से है। वैसे उस ग्रंथ में आगे यह भी जिक्र है कि लश्कर दत्त के परिवार ने श्रीराम घोष के हैसियत को नहीं माना और भीतर भीतर लड़ाई चलती रही। उसी इलाके में अलग अलग गाँवों में उनके वंशज बसे हैं। यह रुचिकर होगा खोज करना कि किस तरफ के वंशज एवं अन्य लोग, बांग्ला यानी अपनी मातृभाषा भूलने में आगे रहे हैं। क्योंकि भाषा सत्ता के लिये आधिपत्य भी कायम करता है और सत्ता के विरोध में भी काम आता है। हो सकता है सत्ता का फर्मान जिनके हाथ में था वे अपनी सत्ता की लोकप्रियता बनाने के लिये स्थानीय अंगिका को अपनी मातृभाषा बना लिये हों। या फिर, इसके विपरीत, जो विरोध में थे, उन्होने ऐसा किया हो! सिर्फ समय की स्वत:स्फूर्तता नहीं प्रतीत होती है क्योंकि बांग्ला न भूलने वालों की भी एक संख्या है।
मराठा आक्रमण
बंगाल पर बार बार मराठा आक्रमण मुघल साम्राज्य के पतन और इस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन के बीच के समय का चर्चित ऐतिहासिक प्रसंग है। उन आक्रमणों के दौरान भी बंगाल के लोग जैसे हजारों की संख्या में पूर्वी तरफ भागे, वैसे ही पश्चिमी तरफ, यानी बिहार की ओर भागे। उनमें से अधिकांश यहीं के होकर रह गये।
प्रवास – अधिवास: आधुनिक काल
फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि बड़े पैमाने पर बांग्लाभाषियों का पहले तो प्रवास और फिर उनमें से बहुतों का वहीं, अधिवासी बन कर बस जाना कम्पनी शासन काल में ही शूरू हुआ। और अगर विकास में सकारात्मक प्रभाव की बात की जाय, तब भी हमें उस आधुनिक काल पर ही ज्यादा ध्यान देना होगा क्योंकि कम्पनी की राजधानी बनी कलकत्ता और योरोपीय ज्ञान-विज्ञान, युक्तिपरक सोच, ज्ञान के भारतीय विरासत का पुनर्मुल्यांकन, समाज सुधार सब कुछ का केन्द्र बन गया वह नया बसा हुआ शहर।
सन 1911 के जनगणना के अनुसार बिहार की आबादी थी 2, 83, 14, 281, ओड़िशा की आबादी थी 1, 13, 78, 875 यानी कुल 3, 96, 93, 156। उसी के साथ किये गये भाषाई सर्वेक्षण के अनुसार उस आबादी में बांग्लाभाषियों की संख्या थी 16, 90, 362 (क्योंकि भाषाई सर्वेक्षण बिहार एवं ओड़िशा को एक प्रशासनिक इकाई मान कर हुआ था)। दशक दर दशक बिहार और ओड़िशा की आबादी का जो अनुपात रहा है उसे बांग्लाभाषियों की संख्या पर लागू करें तो लगभग साढ़े इग्यारह – बारह लाख बांग्लाभाषी सिर्फ बिहार के बनते हैं। इतनी बड़ी संख्या में तो सिर्फ डाक्टर, इंजिनियर, वकील, अध्यापक, प्रशासक वगैरह नहीं हो सकते हैं। अब जो झारखण्ड है, उसके सिंहभुम, मानभुम, धलभुम अंचलों में बसे बांग्लाभाषी किसानों के अलावे भी बिहार के विभिन्न शहरों में सामान्य रोजीरोटी कमानेवाले, छोटामोटा कारोबार चलानेवाले बंगाली भी काफी रहे होंगे। सन 1908 के अप्रैल में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी जब किंग्सफोर्ड को मारने मुजफ्फरपुर आये थे, तो वे दो बंगाली छद्मनाम लेकर आये थे, जिस धर्मशाला में रुके थे उस धर्मशाला का मालिक भी बांग्लाभाषी था, 30 अप्रैल की रात को दवा दुकान के जिस कर्मचारी ने उन्हे जल्द से भागते हुये देखा था वह भी बांग्लाभाषी था; मोकामा स्टेशन पर प्रफुल्ल चाकी को मारने वाला दारोगा भी बांग्लाभाषी था। और उन्ही दिनों में, मुजफ्फरपुर कोर्ट के वकील शरतचन्द्र चक्रवर्ती की पत्नी एवं कविगुरु रवीन्द्रनाथ की बड़ी बेटी माधुरीलता, उपन्यासकार अनुरूपा देवी के साथ मिल कर चैपमैन गर्ल्स स्कूल की नींव डाल रही थी।
बिहार में बांग्लाभाषी – भाषाई अधिकारों के लिये संघर्ष
झारखण्ड के अलग हो जाने के बाद बिहार के बांग्लाभाषियों को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा। साथ ही बिहार के बांग्लाभाषियों को अपने जनसांख्यिक नक्शे में आये एक बड़े बदलाव का भी सामना करना पड़ा।
सन 1947 में पूर्वी पाकिस्तान से जो शरणार्थी भारत आये थे उनमें से बहुतों को अलग अलग टुकड़ों में भारत के विभिन्न प्रांतों में परती इलाकों में बसाया गया था। हर परिवार को थोड़ी जमीन कर्ज के रूप में दी गई थी कि वे उस जमीन को आबाद करें एवं अपना जीवन दोबारा बसायें। उन बंगाली शरणार्थियों के बसावट या कॉलोनी आज आपको बिहार के अलावे उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ यहाँ तक कि कर्णाटक और महाराष्ट्र में भी मिलेंगे। बिहार के पश्चिम चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, पूर्णिया, भागलपुर, बांका, दरभंगा, सहरसा आदि कई जिलों में उनकी कॉलोनियां हैं, वैसे सबसे अधिक संख्या में (वर्तमान में साढ़े तीन लाख) वे पश्चिम चम्पारण में बसे हैं। जातिगत तौर पर उनमें से अधिकाश नम:शुद्र एवं अन्य दलित जातियों से हैं।
झारखण्ड बनने के बाद एक परिस्थिति आई कि सरकार ने बांग्ला पाठ्यपुस्तकों की छपाई, बांग्ला शिक्षकों की नियुक्ति आदि सब कुछ बन्द कर दिया। प्रशासन से पूछो तो सीधा जबाब मिलता था कि अब बिहार में बंगाली हैं कहाँ, सब तो झारखण्ड चले गये! जबकि राज्य के अल्पसंख्यक कानून के अनुसार बांग्लाभाषियों को भाषाई अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है। उसी समय बिहार के शहरी मध्यवर्ग के बांग्लाभाषी एवं उपरोक्त शरणार्थी कॉलोनियों के बांग्लाभाषियों की एका बनी और एक जबर्दस्त आन्दोलन हुआ। अन्तत: सरकार ने बिहार के बांग्लाभाषियों का एक आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण करवाया एवं उसके नतीजों के मद्देनजर, सिलेबस कमिटी दोबारा बैठाई गई, नये पाठ्यपुस्तक लिखे गये एवं पाठ्यपुस्तकों की छपाई का फैसला लिया गया। प्राथमिक स्तर पर बांग्ला टीईटी की परीक्षा ली गई एवं प्राथमिक शिक्षक बहाल किये गये। साथ ही, बसाये गये शरणार्थी बांग्लाभाषियों के कुछ अन्य मांगों पर भी कार्रवाई शुरू हुई। उनकी जातियों को बिहार की जातीय अनुसूची में शामिल करने के लिये एथनोग्राफिक रिपोर्ट के साथ राज्य ने केन्द्र को अनुशंसा किया जो लागू भी हुआ।
इस लड़ाई में एक खास बात देखी गई। पश्चिम चम्पारण के शरणार्थी कॉलोनियों के वे बांग्लाभाषी अपनी भाषा से जुदा हो जाने को नियति मान कर चुपचाप दूसरी स्थानीय भाषा की ओट में अपनी गुमनाम जिन्दगी जी रहे थे। कहीं कहीं तो, इनके खेतों में पानी ले जाने के लिये जो फीडर कनाल सरकार ने बनवाया था उसका नाम तो था रिफिउजी कॉलोनी फीडर लेकिन पानी नहीं आता था और इस स्थिति के खिलाफ आवाज को वे ठीक से उठा भी नहीं पाते थे।
आन्दोलन ने न सिर्फ उनकी, बल्कि भागलपुर, पूर्णिया सहित अन्य कॉलोनियों के लोगों की भी, मातृभाषा को अपनी पूरी गरिमा के साथ लौटाया। लोग बिना घबराहट के, टूटीफूटी ही सही लेकिन बांग्ला में बात करने लगे। इसी के साथ उनका सामुदायिक आत्मविश्वास भी लौट आया। इधर के दिनों में उनके आर्थिक उद्यम में भी कुछ कुछ सुधार आया है और राजनीतिक भागीदारी भी गुणात्मक तौर पर बढ़ी है।
बांग्लाभाषा एवं बंगाली संस्कृति का बिहार में योगदान
अब, सवाल यह है कि (1) इन बिहारवासी बंगालियों या बांग्लाभाषी बिहारियों का बिहार में क्या योगदान रहा, एवं (2) खुद बांग्लाभाषा एवं संस्कृति का बिहार में क्या योगदान रहा।
इन दोनों सवालों का उत्तर ढूंढ़ने के क्रम में योगदान के कई पहलू दिखते हैं। साथ ही, यह भी दिखता है कि इस योगदान को देखने में हम सिर्फ बिहारी बांग्लाभाषी या बिहार की बांग्ला व भाषासंस्कृति को अलग कर के नहीं देख पायेंगे। क्योंकि, बांग्ला बिहार की लोकभाषा या बोली नहीं है। यह एक भाषाई-राष्ट्रीयता है जिसकी एक मूलभूमि है। बल्कि, अब तो वह मूलभूमि भी दो खण्डों में बँटी हुई है। एकतरफ है भारतीय संघ के अन्तर्गत एक भाषाई राष्ट्रीयता। दूसरी तरफ है एक स्वतंत्र राजनीतिक राष्ट्रीयता। (दोनो हिस्से बँटवारे की तकलीफ को भुलाने के लिये ‘हिस्सेदार संस्कृति’, शेयर्ड कल्चर की बात करते हैं)। बिहार में योगदान को समझते वक्त उस पूरे भाषाक्षेत्र को परिप्रेक्ष्य में रखना पड़ेगा। इसलिये भी, क्योंकि, कम्पनी के जमाने में कलकत्ता का राजधानी बन कर उभरने के पहले ढाका ही बंगाल की राजधानी थी।
शिक्षा, चिकित्सा, कानून, प्रशासन, व्यवसाय एवं उद्योग
खैर, एक तरफ शिक्षा, चिकित्सा, कानून एवं प्रशासन के क्षेत्र हैं। असंख्य अध्यापकों, शिक्षाविदों, विद्यालय-संस्थापकों, चिकित्सकों, बैरिस्टर एवं वकीलों तथा बड़े प्रशासकों के नाम गिनाये जा सकते हैं। उनमें से हर एक के योगदान पर विशद में लिखा जा सकता है। बीसवीं सदी के प्रारंभकाल के यशस्वी विद्वान, बैरिस्टर एवं प्रशासक, बिहार को अलग प्रांत घोषित करवाने में अग्रणी सच्चिदानन्द सिन्हा ने, अपने आलेखों का एक संकलन, ‘सम एमिनेन्ट बिहार कॉन्टेम्पोररीज’ (1944) में, प्रख्यात वकील तथा बिहार का पहला अंग्रेजी अखबार ‘बिहार हेरल्ड’ के संस्थापक गुरु प्रसाद सेन के बारे में लिखते हुये जो टिप्पणी किया उसे उद्धृत किया जा सकता है :
“During
their long administrative association with the Bengalees, the Biharees learnt
much in public affairs and activities from a number of Bengalees settled in Bihar…”
व्यवसाय में भी असंख्य बांग्लाभाषी हैं जिनका बिहार के शहरों के शहरीकरण में महत्वपूर्ण योगदान है। वे जिला व राज्य-स्तरीय व्यापार-मंडलों के पदाधिकारी भी रहते आये हैं। पटना के प्रभुदत्त मुखर्जी को सभी जानते हैं । दूसरी ओर, उद्योग का भी एक क्षेत्र होता अगर सन 2000 के पहले का बिहार होता तो। राँची में रहने वाले प्रमथ नाथ बोस ने अगर चिन्हित नहीं किया होता कि गुरुमहिषानी इलाके में जमीन के नीचे लोहे के अयस्क का अपार भंडार है तो जमशेदपुर का टाटा आयरन एन्ड स्टील नहीं बना होता। और यह, सिर्फ एक उदाहरण है।
नाट्य शिल्पकला, संगीत, नृत्य एवं साहित्य,
फिर साहित्य, शिल्पकला, संगीत या नाट्य का क्षेत्र है। नाट्य के क्षेत्र में, खास कर बिहार में आधुनिक नाट्य को लोकप्रिय बनाने में बिहार के बांग्लाभाषियों की भूमिका सभी जानते हैं। आज का कालिदास रंगालय खड़ा है अनिल मुखर्जी के कारण। जब यह रंगालय नहीं बना था तो बंगाली मोहल्लों के पारम्परिक दूर्गापूजा स्थल पर जो बांग्ला नाटकों का मंचन होता था, वहीं वह भी अपने लोकप्रिय हिन्दी नाटक ‘पाल्की’ एवं अन्य नाटकों का मंचन किया करते थे। बिहार के नाट्य गतिविधियों में बांग्लाभाषियों की भूमिका पर एक लेख लिखा था ओनील दे साहब ने, पचास साल पहले। बिहार के अधिकांश प्रमुख शहरों में, खास कर जहाँ बांग्लाभाषी अधिक तादाद में थे, नाट्य को लोकप्रिय बनाने मे बांग्ला नाट्यगोष्ठियों की सक्रियता की सकारात्मक भूमिका रही है।
शिल्पकला के क्षेत्र में दो बड़े बांग्लाभाषी शिल्पाचार्यों का नाम तो बिहार से जुड़ा है ही। एक, नन्दलाल बोस, जो कि बिहार के ही सन्तान थे, उनके पिता पूर्ण्चन्द्र बोस दरभंगा राज के वास्तुशिल्पी थे और दूसरे, बिनोदबिहारी मुखोपाध्याय। प्रख्यात फिल्मनिर्देशक सत्यजीत रॉय के शिल्पगुरु बिनोदबिहारी पटना कला महाविद्यालय के प्राचार्य थे। लेकिन इसके अलावे, मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों को शैशव से ही शिल्पकला का प्रशिक्षण दिलवाने का रिवाज बांग्लाभाषी परिवारों से ही शुरु हुआ और प्रशिक्षकों में बहुतायत बांग्लाभाषियों की थी। वैसे, चित्रकला में बिहार की अपनी समृद्ध लोकशैलियाँ हैं। एवं कुछ के इडियम्स में आज के यथार्थ को उकेरने की कितनी क्षमता है यह तो अब पटना के सड़कों के दोनों ओर दिखती है। साथ ही बिहार का अपना विश्वप्रसिद्ध पटना कलाम भी है। इन सभी कलारूपों से न सिर्फ बिहार के बांग्लाभाषी बल्कि बंगाल के चित्रकार भी सीखते रहते हैं।
संगीत और नृत्य के क्षेत्र में, इस प्रदेश के अपने सांगितिक घराने थे तथा इन दोनों विधाओं का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बनारस, कलकत्ता से ज्यादा करीब था। स्वाभाविक तौर पर शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य को आगे बढ़ाने में बिहार, अपने बूते पर एवं बनारस की मदद से सक्षम था। बल्कि बंगाल के लोग यहाँ आने को अवसर मानते थे कि संगीत सीखने का मौका मिलेगा। बांग्ला टप्पा के घराने का सृजनकर्ता रामनिधि गुप्त या निधुबाबु ने, यहीं छपरा कलेक्टरियट में काम करते हुये एक संगीतज्ञ से तालीम लिया। फिर भी, बिहार के विभिन्न शहरों में कई प्रख्यात बांग्लाभाषी कलाकार व शिक्षक दशकों से कार्यरत हैं। राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बड़े संगीतगुरु या नृत्यगुरु का नाम अभी याद नहीं, लेकिन उनका प्रशिक्षण बिहार के संगीत व नृत्यजगत को प्रभावित करता रहा है।
साहित्य का क्षेत्र सबसे अधिक चर्चा में रहा है। बलदेव पालित, केदारनाथ बन्दोपाध्याय, आशालता सिंहो, अनुरूपा देवी, बिभुतिभुषण मुखोपाध्याय, बनफूल, सतीनाथ भादुड़ी आदि बिहार के ही बांग्ला लेखक रहे हैं। बिहार के प्रख्यात हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने तो सतीनाथ भादुड़ी को अपना गुरू ही माना है। बिहार के इन बांग्लाभाषी रचनाकारों की कृतियाँ बिहार के ही धरोहर हैं। ‘कोसी प्रांगण की चिट्ठी’ या ‘ढोँड़ई चरित मानस’ बिहार को समझने का एक बिहारी नजरिया है। हाँ, वह बांग्लाभाषा में है। लेकिन इनसे अलग भी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं काजी नज़रुल इसलाम के रचनाओं का जो प्रभाव पूरे भारतीय साहित्य पर पड़ा, हिन्दी साहित्य या बिहारी भाषाओं के साहित्य पर प्रभाव उसी का हिस्सा था।
पत्रकारिता, भाषाई आन्दोलन
एक क्षेत्र पत्रकारिता का भी है। पिछली सदी के सत्तर के दशक में सुभाषचन्द्र सरकार ‘सर्चलाइट’ अखबार के सम्पादक थे। आप शायद जानते भी हैं कि बिहार की अंग्रेजी पत्रकारिता की शुरुआत अगर गुरुप्रसाद सेन संचालित व सम्पादित बिहार हेरल्ड (1874) से हुई, तो बिहार की हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत पण्डित मदनमोहन भट्ट ने, ‘बिहार-बंधु’ के प्रकाशन के द्वारा, कलकत्ता से की।
भाषाई आन्दोलन से हमारा मतलब है हिन्दी आन्दोलन। स्वतंत्रता आन्दोलन में भाषाई एकरूपता लाने के लिये हिन्दी आन्दोलन बिहार में ही सबसे पहले शुरु हुआ था। उस हिन्दी आन्दोलन का समर्थन किया था बिहार के बांग्लाभाषी एवं बंगाल के बुद्धिजीवियों ने। बिहार में कचहरियों की भाषा के रुप में हिन्दी को भी स्वीकार किया गया – सन 1880 में अंग्रेज सरकार द्वारा इस फैसले के लिये जाने के पीछे थी, पटना व भागलपुर सहित अन्य शहरों के विद्यालय निरीक्षक भुदेव मुखोपाध्याय। भुदेवबाबु की प्रशस्ति में यहाँ गीत रचे गये। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति अपनी स्थापना के बाद कई वर्षों तक मेधावी छात्रों को ‘भुदेव पदक’ देता रहा। वैसे, सन 2010 में प्रकाशित एक ब्लॉग में इतिहास के युवा शोधार्थी डा॰ राजू रंजन प्रसाद ने भुदेवबाबु के कृतित्व के बारे में लिखा:
“सरकार की ओर से जब पहले-पहल बिहार में शिक्षा प्रसार की व्यवस्था हुई तब सन् 1875 ई. में पंडित भूदेव मुखोपाध्याय (1825-1894 ई.) ‘इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स’ नियुक्त किये गये, जिन्होंने स्वयं हिन्दी में कई पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उनके नेतृत्व में कई हिन्दी लेखकों ने पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। आप ही के निर्देशन में हिंदी का शब्दकोष, हिंदी व्याकरण एवं भूगोल, इतिहास,
अंकगणित, ज्यामिति जैसे विषयों की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं। और जो उन्हीं के द्वारा स्थापित बोधोदय प्रेस में कैथी-लिपि में छपीं।“
[पादटीका के चिन्ह
हटा दिये गये
हैं]
स्वतंत्रता आन्दोलन
और अब आइये, राष्ट्रीय आन्दोलन में देखें बिहार के बांग्लाभाषियों की भूमिका। आप शायद जानते भी होंगे कि बिहार के महान क्रांतिकारी बैकुण्ठ शुक्ल की फाँसी के पहले के दिनों का असाधारण स्मृति-आलेख, ‘एइ भरा बरषार रांगा जल’ उनके सह-क्रांतिकारी विभुतिभुषण दासगुप्ता द्वारा लिखा गया। उसका हिन्दी में अनुवाद भी हो चुका है। नीचे प्रस्तुत उद्ध्वरण पूर्णेन्दू मुखोपाध्याय द्वारा लिखित ‘बिहार: स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रान्तिकारियों के कुछ अछूते प्रसंग’ शीर्षक आलेख से लिया गया है।
“अनुशीलन समिति की एक शाखा सन 1909 में बनारस में बनी । शचीन्द्रनाथ सान्याल इसके निर्माता थे । सन 1913 में उन्होने पटना के बांकीपुर में भी एक शाखा खोला । बांकीपुर शाखा का नाम था पटना रिवल्युशनरी सोसाइटी एवं नेता थे बंकिमचन्द्र मित्र । बंकिमचन्द्र जिला 24 परगना के निवासी थे । सन 1908 में वह बांकीपुर आये एवं टी॰के॰घोष अकादमी में भर्ती हुये । तब उन्होने उसी विद्यालय के शिक्षक तारापद गांगुली के घर में आश्रय लिया । तारापदबाबु स्वदेशी आन्दोलन के साथ जुड़े थे । उनके एक रिश्तेदार पटना में स्वदेशी सामान बेचने की दुकान चलाते थे । विदेशी सामानों की तुलना में स्वदेशी सामान सस्ते में बेचे जा सकें इसके लिये तारापदबाबु उन्हे अनुदान दिया करते थे । सन 1912 में मैट्रिक पास कर बंकिम बी॰एन॰कॉलेज में भर्ती हुये । उसी साल इतिहास के ख्यातिप्राप्त प्राध्यापक आचार्य यदुनाथ सरकार ने बंकिम को, अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये गृह-शिक्षक नियुक्त किया और उसे पटना कालेज परिसर में अपने बंगले में जगह दिया । बी॰एन॰कालेज में बंकिम प्रोफेसर कामाख्या नाथ मित्र के सम्पर्क में आये । कामाख्याबाबु घोर स्वदेशी क्रान्तिकारी चिन्तक थे । लेकिन गुप्त तरीके से काम करते थे । उनके एक समर्थक का नाम था कमलाकान्त मुखर्जी । शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ इनका सम्पर्क था । … बंकिमचन्द्र ने अपने एक मित्र पारसनाथ सिन्हा से मशविरा कर अन्य मित्रों – गोबर्धन प्रसाद, शोभाकान्त बनर्जी, अखिलचन्द्र दास – को साथ में लेकर संगठन बनाया और काम शुरू कर दिया । … इस गुप्त संस्था के सदस्य जो लोग बने उनमें उल्लेखनीय थे रामकिशुन पाठक (टी॰के॰घोष अकादमी के छात्र), नरेन्द्रनाथ बसु (वकील गोबिन्दचन्द्र मित्र के नाती), जगदीश चन्द्र राय (पटना कालेज के छात्र), हृषिकेश मजुमदार (लॉ कालेज के छात्र), सुधीर कुमार सिन्हा (बी॰एन॰कालेज का छात्र एवं प्रोफेसर कामाख्या नाथ मित्र का भतीजा), सम्पदा मुखर्जी, रघुबीर सिंह (टी॰के॰घोष अकादमी के छात्र) । बी॰एन॰कालेज के और भी तीन छात्र बाद में इस संस्था में भर्ती हुये । वे थे, अतुल चन्द्र मजुमदार, प्रफुल्ल कुमार बिश्वास एवं शिव कुमार सिंह । बी॰एन॰कालेज के नृपेन्द्रनाथ बसु भी इस संस्था के साथ जुड़े थे ।… “
यह बस एक झाँकि था यह दिखाने के लिये कि स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रारंभ से ही बिहार के बांग्लाभाषी एवं हिन्दीभाषी (या अन्यभाषी) एक साथ मिलकर क्रांतिकारी गतिविधियों का जाल बुन रहे थे।
कुछ और बातें
जितनी घनिष्टता बिहार की किसी भी हिन्दी प्रदेश के साथ है उससे कहीं अधिक घनिष्टता उसकी और आत्मिक घनिष्टता उसकी बंगाल और ओड़िशा के साथ है। समुद्र के साथ उसका रिश्ता बंगाल से बनता रहा है। लोहा के साथ रिश्ता ओड़िशा और झारखण्ड से बनता रहा है। यह कोई भावनात्मक बात नहीं, ढाई हजार वर्षों पहले गंगारिडि सभ्यता के साथ, कलिंग की सभ्यता के साथ मगध साम्राज्य और अंग अंचलों के व्यापारिक रिश्तों, दैनन्दिन लेनदेन वगैरह की अधिक जानकारी मुझे नहीं है, लेकिन अच्छा लगता है जब बस, ट्रेन या ऑटो पर मगध की किसी बहु की कलाइयों शाँखा, पोला और लोहा दिखता है। शाँखा के लिये जो शंख की जरूरत होती है वह भारत महासागर से मिलता है, और कटता है बंगाल की गलियों में, शाँखारी परिवारों की आरी से। पोला, असली पोला मुंगे से बनता है और मूंगे की पट्टियाँ और द्वीप समुद्र में होते हैं। लोहा मिलता है ओड़िशा-झारखण्ड की पट्टी में और बंगाली और बिहारी बहुओं की कलाइयों में उस लोहे का होना उसके स्रोतों पर कब्जे की निशानी है – या कलिंग से मित्रता कर या कलिंग विजय के माध्यम से।
और फिर, मनसा पूजा! बेहुला-लखीन्दर की कहानी। चाँद सौदागर के चम्पानगर से जितनी बंगाल की तरफ बढ़ी, उतनी ही उत्तर बिहार की तरफ बढ़ी!
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