Saturday, October 26, 2024

Hindi translation of poems

कलीमलोग

बाप-माँ की पीढी ने
विश्वयुद्ध और अकाल देखा था।
चटकल से छँटनी के बाद
इस छोटे से शहर में आकर रज्जाक ने
बीड़ी की दुकान खड़ी की थी।
“अच्छी ही तो चल रही है दुकान”
बेटे को समझाती है रज्जाक की बीवी,
“बड़ा हो रहा है,
बूढ़े बाप की मदद किया कर!
तेरे ही नाम पर है दुकान,
दो रोटी कम, मगर
रोज मिल तो पाएगी!
बाहर कहीं काम मिलना क्या आसान बात है?”
बेटे का मन फिर भी नहीं मानता है।
उसके खून के अंदर काम करता है,
समय के घोड़े पर चढ़ने का खतरनाक नशा –
“देखा तो जाय दुनियाँ का हालचाल,
हाथ पैर में ताकत रहे तो मरुंगा क्यों?” …
उसे खींचता है एक-पांच की टिकट पर देखा हुआ
रोशनी से जगमग विशालकाय शहर,
रफ्तार और शोर …
परब की रात, गली के मुहाने पर टंगे पर्दे पर
हवा चलती है –
डोलता है सुनसान मेरिन ड्राइव …
ख्वावों की दुनिया के तिलिस्मी पते
तीन दोस्त वे, छुप कर भाग जाते हैं
बॉम्बे मेल पकड़ कर।
 
2
“कहाँ खड़ी हो गई ट्रेन?”
खिड़की से सर बाहर निकाल कर
              अंधेरे में झांकता है कलीम।
पटना की सीलन भरी गली के कीचड़ में
चौदह साल पला हुआ कलीम
मध्यप्रदेश के तारों के नीचे
असीमित अंधकार में टकटकी लगाये रहता है।
पहाड़ों का गंध भरी हवा नाक में लगती है।
“क्या सोच रही है अम्मा?
अब्बूजान?” …
बाप के कंधे पर चढ़ कर चार साल का कलीम एक बार
सोनपुर का मेला जा कर
मिट्टी की बाँसुरी खरीदी थी। …
कलीम को डर सा लगता है।
दोनों साथियों के चेहरों की ओर देखता है।
सोलह साल का रफीक ज्यादा अनुभवी है।
एक बार कलकत्ता भाग गया था।
रफीक सम्हालता है –
“घबड़ा मत।
ले, बीड़ी सुलगा।”
कलीम बीड़ी सुलगा कर खांसता है।
उसे नींद आती है बहुत।
रत्ती भर जगह नहीं है ट्रेन पर।
उधर किस बात का झगड़ा शुरु हुआ अचानक?
बेंच पर बैठ कर दो लोग
हँसते हुये बातें कर रहे हैं।
   … सब ठेकेदारों का मामला है!
     पूरा गांव बुहार कर आदमी ले जा रहा है।
     फसल खराब है। काम नहीं है। काम मिलेगा कह कर
     ले जा रहा है ठेकेदार का दलाल।
     लेने के समय कहा था कि रास्ते में खाना मिलेगा।
     अब बोल रहा है,
     सब अपना अपना खरीद कर खा लो,
     बाद में हिसाब हो जायेगा।
     हिसाब होगा घंटा। …
सुनते सुनते कलीम को भूख लग जाती है।
उधर झगड़ा बहस से हाथापाई तक पहुँच गया है।
ट्रेन चलना शुरु करती है।
 
भोर रात में नींद खुलती है।
चेकिंग।
रफीक सावधान कर देता है –  “खबरदार!
घर का पता नहीं देना है।”
 
3
जेल से निकल आता है वह।
ख्वाब नहीं
कुछेक दूसरे पते पॉकेट में ले कर।
बम्बई – माहिम बस्ती, विक्टोरिया गोदी,
छोटे बड़े सारे रेस्तरां, ...
पता देख देख कर घूमते घूमते
अन्त में काम मिलता है कलीम को।
रहने को घर नहीं है, फुटपाथ,
खाना गले में अटक जाता है –
खराब होने के चलते उतना नहीं जितना
‘घर’ और ‘आजादी’ के दोतरफा खिंचाव में।
फिर भी पीछे कौन लौटता है?
एक ने कहा है अच्छा काम दिला देगा।
एँ:!
हाल में जान-पहचान हुआ वह गोदी का लड़का
लाट साहब की तरह घूमता है।
मोटर मेकैनिक का काम सीख लिया है।
दांत से बीड़ी दाब कर बात करता है। …
बोले।
कोई बात नहीं!
मैं भी बोलुंगा।
बस एक अच्छा सा काम सीख लूँ।
उसके बाद। …
फिर, दिन रात भर
आंखों के सामने मुखरित विशालकाय शहर।
उस दिन अंधेरी गया था।
वही राज कपूर। मोटा बम्पु हो गया है।
डॉक पर लगा रहता है बड़ा बड़ा सब जहाज।
झिलमिलाता है अरब समंदर।
मॉरिशस उधर ही है न?
लक्षद्वीप? जांजीबार? अरब?
उधर सुना है बहुत डिमांड है लेबर का?
 
सत्रह साल का कलीम
अनुभवी हाथों से सूरज को ओट में करते हुये
माँ के हाथों के घेरे से बहुत दूर खड़ा होकर
प्यासी आंखों से समन्दर की ओर देखता रहता है।
 
4
रज्जाक की बीड़ी की दुकान में टंगा
फ्लोरा फाउंटेन की तस्वीर वाला कैलेंडर
                बदरंग होता है धीरे धीरे।
दो साल … पांच साल … दस साल … ।
कितनी सारी जगहों से दुर्घटना की खबरें आती हैं।
माँ-बाप ने डरना छोड़ दिया है अब।
मन्तरवाले की खबर पर दो बार कलकत्ता, दो बार
                       बम्बई भी गया था रज्जाक।
पता नहीं चला।
कौन जाने कहाँ है कलीम।
कलीम का छोटा भाई अब किशोर है।
लुंगी पहन कर अकेले ही दुकान सम्हालता है।
बाप से ज्यादा उस्ताद है।
परिवार का बोझ कंधे पर उठाकर
गंभीर भाव से चलता है।
 
 
5
कहीं खदान धंस जाती है
कहीं मचान टूट जाता है
कहीं पाड़-सहित, एक पल में गिरता है कई-मंजिला मकान,
कहीं शहर बह जाता है समुद्री तूफान में,
रह रह कर गोलियाँ चलती हैं अलग अलग इलाकों में,
या जहरीली शराब पी कर लाश बन जाती है पूरी एक बस्ती,
कहीं आग बुझती नहीं सबकुछ बिना जलाये –
कलीमलोग मरते हैं
कलीमलोग जिन्दा हो उठते हैं।
कोई झूठा सपना लेकर गया था
कोई थोड़ी सी रोटी के आश्वासन पर गया था
फर्क मिट जाता है –
जग उठती है
हर दिन जिन्दा रहने की ताकीद और लड़ाई,
हर दिन जिन्दा रहने का तीखा अनुभव।
और जग उठता है
उन्नीससौ अस्सी के इस भारत में
हर दिन जिन्दा रहने के लिये जरुरी जुलूस और
                                          लाल झंडे के साथ पहचान।
कोई सरल विश्वास के साथ अपना लेता है,
कोई शक की नजर से देखते हुए कतराते चलता है कुछ दिन तक,
फिर भी बंद की एक पुकार पर खामोश हो जाते हुये
इलाके को देखने का गर्व और खुशी
मुंह से बुलवाकर छोड़ता है, “समझा!
यह हुई मजदूरों की ताकत!”
हर पांच सात साल के बाद बाद एक संकट,
हर पांच सात साल के बाद बाद तुमुल होता हुआ जनान्दोलन …
कौन गया था दिलीप कुमार बनने?
कौन गाता था मुकेश के गाए,
                          शैलेन्द्र के लिखे, दुख के गीत!
उसके मुंह से भी बुलवाकर छोड़ता है जीवन,
शैलेन्द्र का ही पुराना गीत और
आज का नारा,
                  “हर जोर-जुल्म के टक्कर में
                                संघर्ष हमारा नारा है।” 
 
6
पटना स्टेशन पर
ट्रेन की खिड़की से बाहर झांक कर देखता है वह आदमी।
अट्ठाइस साल का युवा।
खाकी पैंट और चेक वाली शर्ट पहने।
पॉकेट में सिगरेट, माचिस और पसीने से भीगा रुमाल।
दाढ़ी की जड़ें सख्त।
आवाज भारी, ऊन जैसी।
ट्रेन की खिड़की से बाहर देखता है।
भोर की रोशनी में उसके बचपन का शहर
छोटा सा शहर हँस रहा है।
कितने साल हुए?
दस? बारह? चौदह?
आखरी छे साल घर पर चिट्ठी लिखना शुरु किया था।
जबाब भी मिला था।
माँ-बाप की बेचैन पुकार।
छोटे भाई का संजीदा, बड़े भाई की तरह उपदेश।
लेकिन शुरु के दो-तीन साल तो पैसे ही नहीं थे लौटने के।
और आखरी तीन साल वह जानबूझ कर नहीं लौटा।
क्योंकि सलमा को घर के लोगों ने माना नहीं।
सलमा का चेहरा सामने हुआ अचानक।
सीट की एक तरफ रखे
सलमा के रुमाल से बंधे सेव को देखा।
रात को खाया नहीं उसने।
चाहता था इस शहर में उतरने के बाद ही उसका स्वाद ले।
सलमा, उसकी बीवी।
बूढ़े क्रेन-ड्राइवर अफजल की बेटी।
पैंतालीस में कराची से आकर
        बम्बई में डेरा लिया था अफजल ने।
न,
सलमा को साथ ला कर इस बार
         झमेला करना नहीं चाहता था कलीम।
पहले इस रिश्ते की आदत पड़े
फिर।
 
खड़ा होकर
सफर के साथी
सामने के दाढ़ीवाले आदमी से मुस्करा कर कहा –
“चलें भाईसाहब,
एक मुल्क में पहुँच गया अब
दूसरा मुल्क याद आ रहा है।
कह रहे थे न कल रात को,
जहाँ प्यार, वहीं मुल्क?”
 
विक्टोरिया गोदी का मोटर मेकैनिक कलीम
                 पटना स्टेशन के बाहर आ कर खड़ा होता है।
सारे लोग परिचित लगते हैं।
बात करने की इच्छा होती है बस-कन्डक्टर के साथ।
“पहचान रहे हैं मुझे?
बस में बैठे आपलोग? पहचान रहे हैं?
मैं वही छोटा सा कलीम हूँ।
पावर हाउज की चिमनी?
पर्ल सिनेमा?
एक-पांच का बदला हुआ टिकट घर?
पहचाने?
दस लाख की आबादी? पहचाने मुझे?”
 
चौदह साल बाद कलीम
उस छोटी सी गली में घुसा जहाँ वह
                गुल्लीडंडा खेलता था।
और अचानक
घर के दरवाजे की तरफ देख कर
चौदह साल उसकी आंखों में उतर आया।
चौदह साल उसने नहीं सोचा था
कि घर लौटना इतना
            तकलीफदेह अच्छा लगना हो सकता है। …
दरवाजा खुला था।
फिर भी परिचित बरामदे में वह
                 प्रवेश नहीं करता है।
बाहर तैर आता है पांच परिवारों का शोर।
वह कुन्डी हिलाता रहता है।
अच्छा लगता है कुन्डी हिलाते हुये।
 
 
7
वे दस जीवन पार करते हैं उनके एक जीवन में।
इतना बड़ा देश भारत,
इसकी नसों और धमनियों में
तूफानी खून की तरह वे घूमते रहते हैं ...
मेस का रसोईया लड़का अस्थाई दरवान बनता है बैंक में,
फिर चाय का स्टॉल लगाता है बाजार में
                                      पचास रुपये उधार लेकर,
फिर रिक्शावाला,
फिर चिनिया बादाम का खोमचावाला,
या अंडा बेचता है शाम को,
उसके बाद एक दिन जी टी रोड
                                 बालू के ट्रक पर पार कर
झरिया में जमीन के नीचे उतरता है रात के शिफ्ट में –
डेटोनेटर की कॉर्ड को कुछ दिनों तक बेमतलब डर के कारण
                                               उछल कर पार करता है।
वहाँ भी ज्यादा दिन नहीं।
कुछ दिन धनबाद-पाथरडीह ट्रेकर का क्लिनर,
फिर पक्का ड्राइवर,
उसके बाद कोई खबर भेजता है उसके घर सीतामढ़ी से,
लौट कर पक्का एक काम मिलता है कांटी थर्मल में।
 
कल्याण का वह दुबला गोरा लड़का!
रेसिन प्लांट में पिता के निधन के बाद
दोस्तों के चक्कर में
मेरिन ड्राइव पर तीनपत्ती शुरु किया था,
वहाँ मारपीट कर बॉम्बे सेन्ट्रल जेल …
                             निकल कर
खन्डाला से बेलगांव फेरीवाला।
उसके बाद पूणे – किसी कम्पनी का एजेंट,
हाथ में ब्रीफकेस –
कोल्हापुर एक्स्प्रेस की बॉगी में
    फर्श पर कागज बिछा कर वे चार दोस्त
               ब्रीफकेस बजा कर कव्वाली शुरू करते हैं।
 
बहत्तर में लुंगी पहन कर, होंठों में बीड़ी ठूंस कर
कंटीले तार के नीचे से घुस कर बंग्लादेश गया था सुनीत।
किसके न किसके दादा की सम्पत्ति पर दावा ठोक कर
या किसी और तरीके से माल कमाने का
धंधा किया था युद्ध के अंत वाले बाजार में।
कुछ हाथ नहीं लगा।
कहाँ कहाँ घूमा उसके बाद।
बीच में कुछ दिनों तक पारिवारिक व्यवसाय, मिठाई भी बेची।
उस दिन अचानक भेंट हुई,
रक्सौल इलाके का नामी रेफ्रिजरेटर मेकैनिक है,
साथ में थोड़ीबहुत स्मगलिंग की भी उपरी कमाई है।
 
सिर्फ ये ही नहीं। कोडईकनाल की लड़की एगनेस
अस्पताल के वैन में घूमती है दक्षिण बिहार के गाँव में।
खिड़की से देखती है
वह बच्चा भैंस की पीठ पर
                      उन लोगों को देख रहा है अचरज के साथ –
क्यों वह बच्चा मर जाता है बार बार?
कॉलेरा से? चेचक से? आपदाओं से? …
अस्पताल में भूस्वामियों के लम्पट बेटे
लालच के साथ देखते हैं उसे, इशारे करते हैं –
                             दांत भींच कर वह सहती है,
“साला नर्स न हुई जैसे … ”
अगले साल वह कनाडा जाने की कोशिश में है।
मोजा पहनते हुये एग्नेस
शशी की तस्वीर की ओर देखती है एक बार,
जूते का धूल झाड़ती है फर्श पर पटक कर।
 
लामडिंग में कुली खड़े थे घेर कर। बोले,
“पूरी दुनियां में कुली मतलब बिहार, उत्तर प्रदेश
और बाबू मतलब बंगाल! …”
बिना टिकट विदिशा तक पहुँच पाया था
जब्बलपुर का वह बच्चा।
रेलिंग चढ़ कर बाहर निकला फिर
टोकरी सर पर लिये उदयगिरि के करीब
हजारों साल का भूस्तर हटा कर किसी राज्य का
         कंकाल खोदने में जुट गया।
 
और केरल के रास्ते का वह अनाथ लड़का?
समुद्र का प्रेमी?
सफरी रोजगार से पेट चलाते हुये
            पार कर गया तीन हजार मील।
पारादीप।
वहाँ से लौटने में गया कलकत्ता।
पूरे देश में संकट था उन दिनों।
बेरोजगारी बेहिसाब।मजदूर बेहाल।
हत्या, राहजनी से रात चिपचिपी, स्याह।
फिर भी सिन्दूर के कारखाने में
                       हाथ लगे काम को उसने छोड़ दिया।
क्योंकि एक दिन
बारिश, बदली और आंधी वाली शाम में उसने सुना,
बंगाल की खाड़ी में तूफान उठा है।
उसका मन बेचैन हो उठा बचपन के साथी
अरबसागर के बारे में सोचते हुये।
इलाहाबाद में जेल खटा तीन महीना।
मनमाड में फिर।
सात महीने में बम्बई पहुंचा।
कहीं काम नहीं।
बिना खाये सर चकरा रहा है।
पुल पर सो गया था लगभग बेहोश हो कर।
किसी के सुझाव पर चला गया गोवा।
उसके साथ गोवा में जब मेरी मुलाकात हुई
रात के निर्जन समुद्रतट पर
एक मात्र शराब की दुकान और रेस्तरां में –
मेरे तरफ चाय का गिलास बढ़ाते हुये,
साफ बंगला में बोला
पाँच भाषाओं में स्वागत जानने वाला पैंतीस साल का वह आदमी,
“हां, तनख्वाह कम है यहाँ,
लेकिन समन्दर जो है!”
[1980]



इतिहासविद

गर्मी की एक दोपहर में मैने उन्हे देखा।
धूल और कचरे से भरे रास्ते के एक तरफ से वह
घर लौट रहे थे; कांख में कुछेक विदेशी पत्रिकाएं
और हाथ में नया उगा एक जामुन का पौधा
जिसका पत्तों से भरा सिरा उनके
                             सर से थोड़ा उपर उठ कर डोल रहा था।
मैंने देखा उनके हाथ पर उस बच्चे को –
अतीत की किसी मिट्टी में जिसकी जड़ें
वह कभी फैला नहीं पायेंगे।
उसे देनी होगी आज की ही धरती।
फलों के काले गुच्छे जिस दिन
                      किसी दूसरे जेठ की हवा में नाचेंगे,
उस दिन हो सकता है वह रहें या
न रहें।
 
1
ध्वंस के नमक और क्षय के रसायन के साथ उनकी हथेली
बात करती है।
अपने भीतर
उन्होने पक्षियों को तैयार किया है
जो कभी कभी समय की विलुप्त लहरों की तरफ उड़ जाते हैं।
डूब लगाते हैं
महसूस करते हैं पानी का स्तर
                                      मात्रा
                                         क्षीण अन्तर्धारा
                                                दिशा
                                                       तूफान की सम्भावना।
समाज के किसी एक मुहूर्त का रक्तचाप।
एक मुहूर्त।
स्थिर! पृथ्वी, आकाश, सूर्य और बादलों की छाया
स्थिर! चारों तरफ जनपद के बाद जनपद!
स्थिर! असंख्य लोग,
         हरेक अपने काम की तात्क्षणिक भंगिमा में
स्थिर! शासक का उठा हाथ
स्थिर! जीना चाहते हुए बंदी का चीखता हुआ चेहरा
स्थिर! पहाड़ की गोद में अकेली माँ
                              अपनी संतान को बुलाने में
स्थिर! वाद्ययंत्र पर तीन उंगलियाँ
स्थिर!
सारा कुछ स्थिर!
प्रवाह के एक अनुप्रस्थ फलक पर
यंत्रणा, स्वप्न, कंठस्वर –
जीवन के उस एक मुहूर्त की स्थिर विशेष निश्चितता! …
पक्षी उस विलुप्त मुहूर्त की
स्थिर, स्तब्धता के भीतर
                   शोर करते हुए फैल जाते हैं।
असंख्य, असम्बद्ध घटनाओं के बीच
अनुक्रम और कारण के गुप्त सुत्रों के तिनके और
                           गहरी जड़ों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर चुगते हुए
उठ आते हैं फिर
लहरों के उपर!
डैनों का कार्बन और समय का पानी झाड़ कर
कई युग पल भर में पार कर वे
घुस जाते हैं
                उनके सीने में।
पक्षी अदृश्य हैं
फिर भी वे लौट आये हैं यह
जाना जा सकता है
ग्रंथागार के एक कोने में अचानक
उज्ज्वल हो उठीं उनकी दो आंखों में झांक कर। …
तब कागज पर वाक्य निकल आते हैं
धुएं के भीतर से तर्क के तेज-धार ग्रैनाइट की तरह।
कभी विलुप्त हो चुके धूल और शोर से
भर जाता है,
खेल के अंत पर गोधूलि की गैलरी की तरह उनका टेबुल
कलम और चश्मे का, रंग उजड़ा हुआ खोल। …
एक दिन छापाखाने का यंत्र घरघराने लगता है।
और एक नम सुबह में, शहर के
किताब की दुकानों के शीशे के अंदर पहुँच कर
                                      सड़क की ओर नजर डालती है
राह चलते, व्यस्त हमलोगों की
खोई हुई उम्र
अंजानी हो चुकी पहचान। …
 
2
और वे पक्षी।
उनके प्राणवीज इस उपमहाद्वीप के तट पर
व्यापारी के जहाज के साथ मुद्रा के नियम की तरह आये थे।
सार्वभौम समतुल्य बन कर दुनिया में
खुद को कायम किया था अंग्रेजों का राज –
वह सोना है, मुद्रा बनने का हक है उसका!
तो गेहूं कहां खड़ा है? कपड़ा? खनिज?
बर्तानवी साम्राज्य के परिक्रमापथ पर आई सभी जनता ने
अपना सापेक्ष मूल्य ढूंढ़ना शुरू किया था।
नये बने शहरों की गलियों मैदानों में
नये बने कॉलेजों की सींढियों ग्रंथागारों में –
साम्राज्य के प्रहरियों की आंखों के सामने से
गैलिलिओ की दूरबीन बन कर,
क्रॉमवेल, रोबेस्पियेरे या गैरिबॉल्डी का नाम बन कर,
शेली की कविता बन कर,
घुस पड़ी थी वह तलाश, सापेक्ष मूल्य की,
राष्ट्र के तौर पर चिह्नित होने के लिये जरुरी
                                           ऐतिहासिक श्रम की,
अपने मूल्य को खुद में पाने की,
                                और उन पक्षियों का प्राणवीज
स्पन्दित हो उठा था।
 
शहर के संकटग्रस्त शाम में खड़े
ताम्बई धूप-जले चेहरे वाले युवा ने
सोचना शुरू किया था –
‘क्यों इतना अपमान? हर दिन?
कौन हैं हम? कहाँ से आये?
उन्हे पूछने पर गिनाते हैं, ग्रीस, रोम,
                          मध्ययुग, नवजागरण?
भयानक रक्तपात, अंधेरा, फिर भी बार बार आन्दोलित मनुष्य।
क्या कहूंगा अगर मुझे सवाल किया जाय?
स्मरण में बदस्तुर एक समूचा आदमी नहीं?
सब बस देवताओं का क्रियाकलाप?
कौन हैं हम?
क्यों हम गुलाम हुये?
क्या कभी आजाद भी थे?
क्यों बर्तानवी साम्राज्य का हाथ
                        तोप के गोले से तोड़ा नहीं जा सका?
सब बस देवताओं का हाथ है?
या यह सामाजिक जड़ता का एक भयावह अंधकार था
जिसने हमें अपने ही जीवन के प्रति
                    विश्वासघाती बना दिया था?
और आत्मघात के पांक में डूबे इस भूखंड में
                फिर एक चंगेज खां का आना जरूरी हो गया था?
जरूरी हो गया था
तलवार और घोड़े के खुरों के दाग से नहीं
स्थाई बन्दोबस्त, कपड़े का मिल और रेल की पटरियों से
भारत को भारत के तौर पर बांधना?
मुक्ति में जड़ था तो बन्धन गतिशील होना
वैभव में अस्वस्थ्य था तो दुर्भिक्ष में स्वस्थ होना
तय हो गया था?’ ……
 
इन्ही सवालों से प्राण आया था उन पक्षियों में।
डैने फड़फड़ाये थे। और फिर
साम्राज्य का जहाज बिना नाविक चल नहीं पाता है।
और जिस तरह नाविक की स्मृतियाँ
                       अनिवार्य तौर पर साम्राज्य-विरोधी थीं –
स्मृति जिसमें उन दिनों
चेरी के टुकड़ोंवाला सुनहला केक था जो क्रिसमस की रात को वह
                                                             खरीद नहीं पाया;
क्रिसमस की रात को उसके बच्चे की दुखी नीली आंखें थी और
जूतों के अन्दर पिघल गयी बर्फ का गंदला पानी था
था शहर के भीड़भरे इलाकों में 
धूसर, धंसे हुये गाल,
                   पुल पर भिखारी,
था दीवार के बाहर झर जाती हुई शाम को
                        दो आंखों में पाने का संग्राम …
उसी तरह यहां भी
तुरंत बने कारखानों के अगल बगल
अगर खड़ा हो रहा था नया मैंचेस्टर नया लिवरपुल,
अगर बनने लगे थे नये ‘आइरिश क्वार्टर’
क्या बहुत दूर था लियॉन्स और साइलेशिया?
क्या बहुत दूर था अट्ठारह सौ अड़तालीस? …
यहाँ भी उन दिनों
चला आया था जेनिवा का आह्वान –
                           शाम को पाने के लिये हड़ताल। …
इसलिये अनिवार्य हो चली थी
तलाश,
उन दीर्घ अनुक्रमों की, सुत्रों की, हड्डियों की उम्र की,
माँ की लोरियों में व्यथा और विद्रोह के विद्युतप्रवाह की
जिन से देश, देश हो उठता है। …
 
अतीत सिर्फ आविष्कृत नहीं होता है, जन्म लेता है;
जन्म लिया भारत की आत्मचेतना में।
महान इतिहासविद आये।
देवताओं का मुखौटा हटा कर वे
सामने लाये आदमियों का चेहरा।
गड़रिये, शिकारी, यायावर और किसानों के चेहरे।
देववाणियों के शब्दों में लगी जंग नाप कर उन्होने उजागर की
आदमी की भाषा।
गड़रियों, शिकारियों, यायावरों और किसानों की भाषा।
 
और हमारे यह बूढ़े इतिहासविद भी
उन्ही के वंशज के तौर पर आ कर आगे बढ़े।
 
3
उनके शरीर ने एक एक कर उनके
सालों को अतीत किया है।
वह सौ सौ के हिसाब से
लौटा कर लाये हैं अतीत के साल।
पटना के रास्तों पर सावन ने उन्हे बारिश से भिगोया है।
छप छप कीचड़ भरे रास्ते पर खड़े हो कर
सुदूर प्रश्न की ओर देखते हुये उन्होने कहा है –
         “कुछ नहीं है वह! बस, सूर्य के कक्षपथ की धूल,
          ॠतुओं का ऑक्साइड और हजारों साल के
          बर्बर भाववाद का मोह-जाल!
          उस बारिश के उस पार
          हालांकि दिखता नहीं फिर भी है
          हमारे रक्त में लीन दृश्यसमूह।
          क्या कहा तुमने?
          सम्राटों के किस्से?
          नहीं।
          पहले मैं शुल्क-अदायगी का फर्मान देखना चाहता हूँ।
          राजदरबार में एक आम आदमी का प्रवेश।
           नहीं, राजा के दान की कहानी नहीं,
           वह कहाँ से आया है, क्यों आया है, क्या करता है यह
                                                                    जानना चाहता हूं।
           देवता का वरदान जिसे मिला था – उसने मांगा क्यूं था?
           किस तरह बनी लोकोक्तियाँ और दन्तकथायें?
           और श्लोकों, मंत्रों के भीतर
                                        जीवन की छवियों के वे टुकड़े?
            मैं सामान्य शब्द चाहता हूँ।
            धान, मुद्रा,
            जमीन की मिल्कियत, उनके मिल्कियत बदलने के तरीके,
            कर्ज, लगान का प्रतिशत,
            डकैत, पाइक,
            बैल, हल,
            तांत, सौदागर, लोहा, नमक, नाव, मछली! ...
            याज्ञवल्क और मनुसंहिता में यह किस बात की लड़ाई है?
            उत्पादन की दो व्यवस्थाओं की?
            प्राचीन राजनीतिक साहित्य में
            राज्य की कार्यप्रणाली पर इतने प्रखर चिंतन मौजूद हैं
            राज्य के सारतत्व और रूप को लेकर कोई चिंतन क्यों नहीं?”
            ...............
यह सब कहते हुये उनका जीर्ण शरीर
लगभग घुटनों तक पाजामा और बेटे का
                                  पुराना कुर्ता पहन कर
और बूढ़े कर्मोरैंट के डैने के रंगवाली तार-तार छतरी को
                                    माथे पर फैला कर
आगे बढ़ता गया है
एक ही साथ आज के ट्राफिक की भीड़ में और
                                     समय के ट्राफिक के अन्दर।
आदमी जिस रास्ते से आगे बढ़ा है क्रमश:
किसी के स्मरण की तरह वह भी
उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते
                               पीछे जाने के समय।
दस जुलाई उन्नीस सौ अठत्तर से सीधा
गुप्त सम्राटों के घर में घुस कर दस्तावेजों के पन्ने पलटते हैं।
या किसी एक बौद्धश्रमण के साथ
                                   बैठ जाते हैं नालन्दा के चबुतरे पर।
बिहार-बंगाल के मार्ग पर घोड़ा दौड़ा कर
शहंशाह का आदेश नवाब के पास ले आने वाले आदमी के
साथ साथ
अदृश्य घोड़े पर बैठ कर जाने में
उनके कमर में दर्द नहीं होता है जरा सा भी।
उसी लमहे में वह लौट आ सकते हैं,
या आना भी नहीं पड़ता है –
अतीत के दृश्य-दृश्यांतर की दरार से उनकी आंखों के सामने
                   स्पष्ट होता है आज के एक युवा शिक्षक का चेहरा,
                                                                 उनके विभाग के;
वह उसके नमस्कार का प्रत्युत्तर देते हैं – अदृश्य घोड़े पर सवार –
                                          किस जनपद, किस शताब्दी से?
 
4
आज!
मैं यह कविता लिख रहा हूँ! आज!
दिन प्रति दिन कितना फैलता जा रहा है यह आज!
जितनी गहन, जितनी प्रसारित हो रही है चेतना
उतना ही व्याप्त होता जा रहा है।
मनुष्य का सारा जन्म, मृत्यु और नवजन्म
                            आज ही तो हुआ।
आज ही तो सुबह
एजटेक, सुमेर या हप्पा की धूप की तरफ पीठ कर
                            मैं नाव का पानी निकाल रहा था।
आज ही तो सुबह नालन्दा के ग्रंथागार से निकल कर
                                              जाड़े की हवा में
अपने उत्तरीय को बदन पर अच्छे से ओढ़ लिया था।
यही, थोड़ी ही देर पहले मैं
मेक्सिको शहर के एक मकान के पिछले दरवाजे से निकल कर
कपड़ा धोनेवाले साबुन की गंध और
बच्चों का शोर पीछे छोड़
यहाँ पटना में इस घास पर बैठ कर लिख रहा हूँ।
थोड़ी दूर पर रखी मेरी साइकिल की छाया पड़ रही है
जोहानेसबर्ग में रेल की पटरी के किनारे
                                        शैंटी की दीवार पर।
किसी ने पुकारा मेरा नाम – कहाँ से पुकारा? ......
इतिहासविद!
यह आपका कर्ज है मुझ पर!
इसीलिये इस अठत्तर की जुलाई की दोपहर में
                                            मैं गा रहा हूँ आपको।
आप और उन सभी को मैं गाना चाहता हूँ
जो रक्त के निर्माण में हजारों वर्ष के
                        बीज और वेदना की पहचान करा देते हैं! ...
 
5
फिर भी आज!
कितना संकटपूर्ण है यह आज!
अभी तो दोपहर में
इतिहासविद की उम्र के ही उस बूढ़े आदमी ने
किताबों की बाइंडिंग की दुकान से निकल कर
रास्ते के किनारे खड़ा होकर एक बीड़ी सुलगाई है …
वह पढ़ना नहीं जानते,
लेकिन मजदूरी के तौर पर
दो वक्त का भोजन, पहनने का कपड़ा और
                  छोटे से एक कमरे के किराये के बदले
किताबों और थीसिसों का
सुन्दर, टिकाऊ जिल्द तैयार करते रहे आजीवन …
उनके बगल में एक बच्चा खड़ा है
वह भी पढ़ाई शुरू नहीं कर पाया
लेकिन किताबों की सुन्दर बाइंडिंग करना शुरू कर दी है …
और वह जो आदमी
                        इतिहासविद को नमस्कार कर चला गया,
प्रेस में काम करता है
इतिहासविद के काम का पृष्ठ दर पृष्ठ
जतन के साथ उसने छापा है
लेकिन कभी पढ़ नहीं पाया …
 
इतिहासविद!
क्या आप सोच रहे हैं,
क्या अर्थ है
इतिहास के रास्ते विकसित हुये एक शब्द का,
अगर आज जो उस शब्द के रक्त को अपने शरीर में धारण करता हो,
वह न जाने
              उस शब्द का इतिहास?
[1978]
 
 
देवीप्रसाद की “सात-मूर्ति’
 
उन्होने कहा था, ‘अत्याचारी अंग्रेज! भारत छोड़ो!’
उन्होने सोचा था इसी तरह
सावन के तालाब में उनके गांवों के बिंब
वधू के लज्जारुण तलुवे की तरह उतरेंगे।
मकई के खेतों में,
गीत के बोलों में, बच्चों के चेहरों पर
लौट आयेंगे अकाल में मारे गये अपने लोग।
स्कूल के मास्टरसाहब
चशमा खोलकर, आंसू पोछते हुये,
उनके कंधों पर हाथ रख कर कहेंगे,
‘कितने लोग कितना कुछ देते हैं,
तुम सबों ने स्वतंत्र भारत दिया, धरती को,
                                और मुझे!’
उन्होने सोचा था इसी तरह
सड़कों पर, ट्रेनों में किसी भी आदमी के चेहरे पर
किसी भी पल
कुछेक हजार सालों की रोशनी और छांह नाच जायेगी।
जो फ़सल और रेल के चक्के घुमाता है वह
देश का चक्का हाथ में लेगा।
शायद उनलोगों ने यह सब कुछ भी नहीं सोचा,
सिर्फ आलोड़ित एक स्वप्न की तन्मयता में
यौवन के अदम्य साहस के साथ आगे बढ़े थे।
लेकिन उनका बढ़ना
उस विशेष स्थान और काल में
इन सारी बातों को साथ लिये हुये था।
भगत सिंह के बहुत बाद वे युवा हुये थे।
किसान सभा बन जाने के बाद वे किसानों के घर में बड़े हुये थे।
 
अंग्रेजों ने गोली चलाई।
वे, एक एक कर
हमारे रक्त में लीन हो गये।
 
हम ये बात भूल जाते हैं।
तब शिल्पकार का काम शुरू होता है।
वह रंटजन-किरण डालते हैं हम पर।
और तब आंखों के सामने हवा में
 
खिल उठती है
हमारे रक्त की अन्तर्छवि
           सात शरीरों का कांस्य।
शायद वह भी
अधिक कुछ नहीं सोचते हैं।
सिर्फ अतीत को गाने के लिये काम करते हैं।
लेकिन उनका वह काम करना,
उस विशेष स्थान और काल मे,
हमें कुछ दूसरी बातें याद दिलाता है।
हम देखते हैं
सावन के तालाब में गांवों का बिंब
कहां?
नहीं है! उजड़ता जा रहा है।
अकाल
           राजधानी की सड़कों पर
हर दिन गाड़ी पर बैठ कर
वित्त मंत्रालय, चेंबर ऑफ कॉमर्स, विधायकों के फ़्लैट और
पांचतारा होटलों के कमरे में
               आना जाना कर रहा है।
गीत, मालिकों के हृदय का परिवर्तन करते करते
                        चरित्रहीन हो गये।
मास्टरसाहब अनशन पर बैठे हैं एकतीस सालों से
पत्नी गर्भाशय के कैंसर से मर गई,
बेटी कार्बोलिक पी कर चली गई –
श्मे के टूटे शीशों में थार की धूल उड़ रही है।
तिरंगे से झरती फूल की पंखुड़ियों के नीचे
हवाई जहाज से झरते तिरंगे अबीर के नीचे
चमक रहा है
फसल और रेल का चक्का घुमाने वाले आदमीं का
               खून लगा हुआ संगीन, राइफल का काला नल।
आमंत्रित जनसमुद्र के बीच
स्वतंत्रता
एक रहस्यमय धूसर अवतार की तरह चल रही है
और उसके पीछे
भाड़े पर नाचती हुई चल रही है भारतीय संस्कृति।
शायद वे,
जो नाच रहे हैं, मार्च कर रहे हैं, जिन्हे ‘देश का गौरव’
                                उपाधि मिल रही है, 
यह सब कुछ भी नहीं जानते हैं, वे
वस्तुत;, स्वतंत्रता के गर्व और खुशी में ही यह सब कर रहें हैं,
लेकिन उनका यह सारा कुछ करना,
इस विशेष स्थान और काल में,
मूर्ख भंड़ैती से अधिक कुछ नहीं है।
 
हम अब नहीं कहते हैं, “अंग्रेजों, भारत छोड़ो!”
हम कहते हैं,
          “मृत पूंजीवाद! धरती छोड़ो!
           भारत छोड़ो!
           जो सरकार संप्रभुता की रक्षा नहीं कर पाती,
           जो सरकार स्वतंत्रता बेच देती है पिछले दरवाजे से,
जो अर्थनीति गुलाम बनाती है साम्राज्यवादी विश्वबाजार का,
वह सरकार, वह अर्थनीति, मुर्दाबाद!”
लेकिन ये शब्द बोलने के लिये
कैसे खड़ा होना होगा, यह सीखने
उन सात कांस्य प्रतिमा के करीब जा कर खड़े होते है।
जाड़े की रात में, जुलूस से लौटते हुये,
उन कांस्य अंगुलियों से झरती बिजली की बूंद की तरह ओस में
            हथेली भिगा लेते हैं।
 
स्वप्न में अगर गलतियां भी रही हों,
उससे स्वप्न के लिये जान देना आसान नहीं होता है जरा सा भी।
 
यूनियन जैक के खिलाफ़ जिन्होने
               तिरंगे को उठाया था
उनसे हम सीख लेते हैं,
धरती पर सभी रंगों के झूठे इस्तेमाल के खिलाफ लाल
धरती के हर रंग की मुक्ति के लिये लाल
                  किस तरह उठाना होगा।
 
मृत्यु अगर स्याह तूफान की तरह घेर ले
किस तरह बच्चों के रक्त में मिल जाना होगा।
[1982-3]


आज इस रात को, दीदी की याद में

कौन तुम अंधेरे में अकेली, खिड़की के सामने खड़ी हो?
 
आखिरी बार की तरह देख ले रही हो रात का आकाश,
घर में सोये बच्चे के सांस की आवाज सुन रही हो आखिरीबार,
आखिरीबार देख रही हो बाहर की नि;शब्द धरती पर 
                                                      आदमी की दुनिया को
जिसने तुम्हे जीने नहीं दिया … !
 
हाथ से उतारो किरासन या जहर की शीशी,
शहतीर से साड़ी खोल कर पहन लो।
जाओ।
नदी में डूबो नहीं, पार करो।
सको तो माझी के पास जीवन का पता जान लेना;
बहुत प्राचीन और उज्ज्वल यह बात
                                      मैं फिर बोल रहा हूँ।
 
डिस्टैन्ट सिगनल के पास मत खड़ी हो जाना, स्टेशन पर जाओ।
ट्रेन में धान काटने वाले परिवारों की लड़कियों से मुलाकात होगी –
वे प्रवासी पक्षियों की तरह हैं –
सको तो उन प्रवासी पक्षियों के साथ बातचीत करो;
बहुत गतिशील, तूफान की तरह यह बात
                                             मैं फिर बोल रहा हूँ।
 
जहां इच्छा हो चली जाओ।
पत्थर तोड़ो, जेल खटो, बरबाद हो जाओ।
जो इच्छा हो करो।
बहुत बड़ी है यह धरती:
जब तक जीवन है
कोई बात आखिरी बात नहीं है,
कोई पहचान आखिरी पहचान नहीं है,
कोई मृत्यु, पार न किये जा सकने वाली नहीं है।
 
रात का यह समय
                       तुम्हारा अंत नही
                                          एक अलग तुम्हारी शुरुआत है।
[1983]
 

स्लीपरों पर पैर रखते हुए

साउथ-सेन्ट्रल केबिन के बगल से एक के बाद एक
रेल की पटरियाँ, कूड़े का ढेर, पुराना गोदाम, अंधेरा,
टूटी दीवार के उस तरफ बाजार, रिक्शापड़ाव …
यह शॉर्टकट है
शहर के दक्षिण के बाशिंदों का –
ट्रेन से उतर कर या स्टेशन के
उस पार से
काम निपटा कर घर लौटने के लिए।
 
कुछ था, रात के नौ बजे
शॉर्टकट पकड़ कर उस बूढ़ी औरत के
स्लीपरों पर पैर रखते हुए गहरे आत्मविश्वास के साथ
तेज चलते जाने में
कि मुझे भी अपना नाम याद आ गया
जिस पर कभी सोचा नहीं:
सुबह से रात तक
बिहार की मिट्टी का ढेला हथेली में चुर होता है।
 
बुढ़ी देश के विभाजन पर इधर नहीं आईं।
जैसा प्रतीत होता है। क्योंकि हम में से कोई भी
मतलब उस दक्षिण का
जल्ला आबाद करने वाले वाशिंदे
देश के विभाजन पर इधर नहीं आये।
देश के विभाजन के पहले वर्गों का विभाजन …
तो वही वर्गों के विभाजन में बंगाल की
मिट्टी छोड़ फैले थे इधर उधर।
 
समय के तोड़फोड़ में इसी तरह तैयार होते हुए
कामकाजी आदमियों के रोज के शॉर्टकटों पर
तेज चलती हुई उनकी लम्बी राहों में उन्हे देखा,
जिम्मेदारियों का बोझ सर के भीतर सम्हाले
एक एक कर बदलते जा रही हैं देश, शहर, मोहल्ले और उम्र।
[3.8.85]

 

___________________________________________________________________________________ 

कनैली
 
तुम आज सुबह से हँस रही हो।
साड़ी छोड़
छोटी बहन की सलवार-कमीज पहन
फॉल्स जोड़ कर लम्बी चोटी लटकाई हो।
बेटी को नींद से जगाई,
फूल जुटाने निकली
आज बृहस्पतिवार है,
पूजा वगैरह को लेकर हमारा
साप्ताहिक झगड़े का दिन।
 
मैं भी निकला, पीछे पीछे।
मैदान पार कर पता नहीं कहाँ जा रही हो आज!
टूटे, सुनसान मकान के अहाते के अंदर गुमसुम बगीचे में,
वह भी बेटी को लेकर;
मेरे न रहने पर तुम्हे हिम्मत नहीं होती!
 
आदमी नहीं है फिर भी पानी है नल में।
उसी से मैं अपना चेहरा धो लिया।
तुम्हारे लिये तोड़ लाए तगर, कनेर;
कहा:
कनैलों को जमीन से ही उठा लो,
पेड़ के नीचे की जमीन कभी अपवित्र नहीं होती, बुड़वक!
हरसिंगार नहीं बटोरी हो कभी?
 
निकल कर
बेल के पेड़ के सामने आकर तुम बोली:
कोई न देख रहा होता तो मैं खुद ही चढ़ जाती।
 
हाँ रे पगली, कांटों वाले पेड़ पर चढ़ेगी!
मैं और बेटी आश्चर्य से देख रहे हैं तुम्हारा
इतनी आसानी से खुद को और सभी को
अपने में लौटा पाने की ताकत।
कौन कहेगा कल बस मेरी ही गलती के कारण
कितनी तकलीफ में रात बीती थी तुम्हारी!
 
थोड़ी ही देर में,
स्कुल-कॉलेज-ऑफिस की जल्दी में
गड्डमड्ड हो जायेगा समय;
मई महीने का दिन है,
सुबह से ही तेज आग बनता जा रहा है।
 
 
दूसरापन
 
होटल की खिड़की से देख रहा हूं – एक तरुण, साइकिल पर,
पीछेवाले को पार्क की रेलिंग के पास उतार कर
अकेला हुआ, आगे बढ़ा इस तरफ –
 
परिचित है मेरा; मेरे ही पास आ रहा है लेकिन वो बात वह
होटल में, नीचे की लॉबी में पहुंचने पर सोचेगा।
                                            अभी उसके अकेलेपन पर
 
धूल भरे हवा का एक झोंका उड़ आया,
फैल गया उसकी आंख और चेहरे पर –
                            आंख और सांस बंद कर
कुछेक सेकेंड के लिये, फिर खोला उसने …
 
जैसे कि वह भी नहीं है वहां, है उसका दूसरापन,
गोया व्यथा से कराहता विश्व उसके शरीर में
                        मनुष्यरूप धारण किया है,
अभी वह सिर्फ समय है –
 
दोनों आंखों में स्वप्न के मसौदों को बीनते हुये
धीरे दबाव डाल रहा है पैडल पर;
                                            प्रतिश्रुत तरुणाई
इसी तरह बनते हैं हम …
 
 
असफल
 
अस्थाई शिक्षक की नौकरी फिसली।
टाटा-रांची रूट पर हड़ताल से नजर चुरा कर निकला फटीचर बस
चलता है तीन घंटे का रास्ता पांच-छे में:
उसे कोई मतलब नहीं, चित्त सोया है पिछले सीट पर।
 
चांडिल में चार डाइभर्सन –
बस उलटते उलटते बचता है …
गिरने से बचने को वह कस कर पकड़ता है अपनी नींद।
 
निकल जाती है पनबिजली, स्पॉंज आयरन, पहाड़ों की गूज़ती तलहटी,
पीछे होती जाती है सोडियम-भेपर की बुलाहट …
निकल जाता है सामाजिक वानिकी अभियान, साक्षरता अभियान।
जुगनुओं की धारा बुझाती हुई बारिश आती है तेज;
खिड़की बंद करने जाओ तो खुल कर गिरता है झप्प,
बस के छत में छेद, पानी गिरता है अंदर,
कुछ लोग छाता खोलते हैं अंधेरे में –
वह उठ कर बैठता है, अपनी वरीयता याद आ जाती है उसे।
 
उसकी असफलता, उसकी शून्यता की वरीयता,
उसके जिला स्कुल के प्रयोगशाला के तेलचट्टे,
उसके प्राइवेट कॉलेज के कोष का गबन …
बुन्डु से बस खुलता है बिना साइलेन्सर के इंजन की आवाज के साथ …
 
रांची में बारिश की आवाज भरी रात में
वह तय नहीं कर पाता है कि जाये कहां –
बरियातु में परिजन के घर या रेलस्टेशन 
वह आधा रास्ता बरियातु के तरफ जा कर स्टेशन की ओर लौट जाता है …
 
पूरा भाड़ा वसूल कर गाली देता है ऑटो का ड्राइवर।
 
 
आउटडोर
 
टिटेनस फैल जाने के कारण पन्द्रह दिन
बन्द थे सारे ओटी, कल खुले हैं।
रोगी देखे जाने वाले हॉल में लगभग
                                        चालीस गर्भवती औरतें।
दरवाजे के पास खड़े हम पांच
कुछ ज्यादा ही उद्विग्न पुरुष।
 
एक एक जन, फुटबोर्ड पर पांव रख
              उठ कर सो रही है टेबुल पर।
डाक्टर अपना दस्ताना पहने हाथ
                          साड़ी के अंदर घुसा रही हैं।
लिखवा रही हैं लक्षण, दवा।
 
असह्य गर्मी है, कीटनाशक का गन्ध
अटक रहा है सांस में।
लाइन में आगे बढ़ती हुई,
     पहुंचते ही धक्का खाई पीछे से –
       आंख घुमा कर एक बार देखी मेरे तरफ।
 
जाओ यार! मैं हूँ यहीं। रहूंगा। कहीं जाने पर भी
मानना कि मैं हूँ। जैसे और सभी मान रही हैं।
तुम न मानोगी तो किस तरह
           सोच रहा हूँ कि इस नर्क को
                           बनाउंगा अस्पताल?  


जाऊंगा कहां?

कितनी बूढ़ी हो गई हो तुम
कल दिखा, निमंत्रण वाले घर में
आर्क की रोशनी में।
आंखें गड्ढे में धंसी और
छोटा दिख रही थी ठुड्ढी।
 
यह भी सही है कि कल भी
तुम ड्युटी के बाद घर होकर आई थी और
मैं ड्युटी के बाद
संगठन कार्यालय हो कर, इसलिये
कंधे के झोले में भरा था प्रुफ, कागज, चिट्ठी, सर्कुलर …
पानी का बोतल भी, जॉंडिस के बाद से।
 
लेकिन ये बुढ़ाना तुम्हारा,
चलेगा नहीं, कहे देता हूँ।
छोटी छोटी बातों को लेकर बुराभला बकूंगा रोज!
क्या हुआ है क्या?
सिर्फ इतना ही नहीं कि तुम्हारा गुलाबी अड़हुल
खिलता है अभी भी और
हाथ बढ़ा कर उंगली के छोर
फूल लाते हैं कैकटस में!
 
छोटी छोटी बातों को लेकर बुराभला
पलट कर अगर मुझे भी सुनने को न मिले
तो जाऊंगा कहाँ?
सबग्रिड के छत से उड़ जायेंगे सारे कबूतर।
 

बांग्ला

उसके हाथ में थी एक पोटली,
कलम की मिट्टी की तरह भारी।
पहनावे, शिशु की भूख की तरह अबोध।
वदन,
मां और दीदी की तरह,
दीदी और माँ की तरह उसके संतान के पिता के लिये भी।
वह बेतरतीब कुछ बक रही थी अपने आप
अपने दुर्भाग्य के बारे में जिन्हे अनेकों बार हमने
                                  उपन्यासों में पढ़ा, इसलिये
उन उपन्यासों का महान यथार्थवाद हमें अभिभूत कर रहा था।
उस अंधेरे प्लैटफार्म में
अपनी मातृभाषा में बात करना खतरनाक था हमारे लिये और चूंकि
स्थानीय भाषा हम नहीं जानते थे इसलिये
भारत की राजभाषा में बात कर रहे थे।
कई सारी रेल की पटरियों को पार कर वह हमारे पास आई थी।
वह जानना चाह रही थी उसके हाथ में जो टिकट था वह सही था कि नहीं,
उसकी ट्रेन कब आयेगी।
                              थोड़ी देर बाद
अपने ट्रेन पर चढ़ कर, पुल पार करने के तेज शोर में
अचानक हमें एहसास हुआ कि इस बीच उसका गंतव्य हम भूल चुके हैं।
 

तमिल में जुही

तमिल में ठीक किस तरह
बोलो तो, खिलता है जुही?
भाषा की उम्र ठीक किस तरह
आधी रात को
निकल आती है सड़क पर?
 
बेचैन घुस जाती है स्टेशन-चौक में
या ढूंढती है चाय की खुली दुकान,
पेड़ के नीचे?
किस तरह बचती है पुलिस से,
नीतिशास्त्र से भी, सिर्फ
कुहासे के पांखों में छुपी
नदी के बारे में सोचते हुये?
 
दवात-स्याही के धब्बे बनाकर
मैं भी खूब बनाता था
रात की खिड़की के सींखच, पत्तों की झाड़ी,
फूलोँ का आभास, चेहरा!
खिड़की के सींखचों में चेहरा – शरद की उड़ान …
किस तरह जूही खिलाती है तमिल?
 
सुगंध के घने पुंज – संगम की वीरांगना कवयित्रियां!
मातृगर्भ में बाघ की आंखें – लोकश्रुतियाँ अशेष!
…………………
 
जुलू भाषा में नीरवता कौन सी दोपहर में चुगती है
चुग कर फाड़ती है वसंत का
धोखा, बांझ शब्दों का जाल?

चिट्ठी के भीतर धूप
     एक धरती भर भाषाओं की:
मृत्यु खाद बनती है मिट्टी का –
      कोई कहीं खिलाता है जूही
 
 
पहला एजेंडा

पत्थर को बस थोड़ा सा हटा पाएं हैं हम।
     अभी और बहुत
          हटाना होगा; सब लोग
समझ तो रहे हैं न,
कि यह
पत्थर का वजन है?
 
वेरिनिया को फिर से
            गुलामी में जाना होगा, नहीं तो
कैसे लौटेगा स्पार्टकस?
 
कवि ने कहा था,
‘ये दाग दाग उजाला, यह शब-गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं”
फिर भी
        जी रहे हैं।

जगह ढूढ़ कर निकालनी होगी
                      भुकम्प में भी।
दो बात कहने की,
फैसले लेने की,
             जरूरत पड़ने पर
एक दूसरे से पीठ सटाये
                        खड़े हो कर।
 
झंडे को फहरने देना होगा –
अगर आसमान छीन लें वे तो –
पंजर की ओट में।

पहला एजेंडा,
संगठन।


सुकान्त को
 
मायाकोवस्की,
               वाप्सारोव,
                          तुम।
बोल्शेविक कलाई,
                 दीवार पर फावड़ा,
कविता में संगठन।

तुम्हारा वह महानगर –
                                कलकत्ता
जिसके एक आदमी का हाथ
                            कवि नाजिम ने
नक्षत्रों को हटा कर छूना चाहा था,
जिसके सड़क पर की लड़ाई में
                      दंतकथा बन चुके किशोर ने
पढ़ाई के लिये किरासन मांगते हुये
                                  सीना तान कर
तुच्छ साबित किया था सर्जेंट के रिवाल्वर को
और
जिसकी छिपी हुई पत्तियाँ आज भी
            वर्गीय घृणा के कारण ताजी हैं,

जाने में पड़ता है जसीडी।
                          अभी सावन में
ट्रेन, प्लैटफॉर्म, बसों पर
                ठसाठस भरी है ईश्वरों की भीड़ से।
भीड़ बढ़ती है हर साल,
                                दोनो गोलार्द्धों में
मनुष्य की लांछना के सारे पवित्र पीठों में
और ईश्वरों को सताता है उनकी
                         मौत का डर।
……………….……….………
सीतारामपुर में
पटरियों के जुड़ने-अलग होने की खटरमटर आवाज में
                                     कमरे में उठ आता है वह युवा।
इधर धनबाद, चन्द्रपुरा, बोकारो, उधर
टाटा, राउरकेल्ला, सामने दुर्गापुर …
और बड़े आंदोलनों का
          काम जारी रखते हुये भी सोचना पड़ता है
बंद कलकारखानों की समस्या
                               दाढ़ी नहीं है दस-बीस दिनों की:
 
टिकट के कोने से वह
                गर्दन की घमौरियों को खुजलाता है।
                             एक सिगरेट की फुर्सत के बाद
शुरू करता है पर्चा बांटना।
……………………………………
उन्नीस सौ नब्बे – चौरानवे।
हम लोग प्रहसनों में ट्रैजेडी जीना सीख रहे हैं।
फिर भी कहा जा सकता है चार वर्षों में
    दुनिया की विश्वसनीयता
                           बढ़ी ही है, घटी नहीं है।
……………………………………
चौंसठ में तुम किधर जाते सुकांत?
और सड़सठ में? 
……………………………………
मैं पटना का आदमी हूँ।
फिर भी तो इधर आज कल
कई बहाने मिल जाते हैं
               हुगली के दोपहर में बैठने के,
कुछेक बहसों के –
       सरकार में वाममोर्चा के रहने के
                  फायदे
               कहां कितना लेने और नहीं लेने पर,
और अच्छा लगता है जब
दिल्ली में
लालकिले के पीछे हम अपने
                           यानि बिहार के
कैम्प में प्रवेश करते हैं,
बैग से डायरी निकाल
बंगाल के कैम्प में जाने पर खबर मिलती है,
तुम कहीं निकले हुये हो।
 
अगला दिन
कंधे पर झंडा उठाना;
भारत का वर्तमान
                 तुम्हारा अनंतकाल।


वह लड़की
(पर्वलपुर, नालंदा, 22-5-92)
 
पीपल के नीचे
नये नये पत्तों की नन्ही छायायें सिहरेंगी।
माइक पर बजेंगे और भी कुत्सित गाने।
                          पीछे तेल के मिल में,
धोती लपेट कर बैठेगा मालिक का बेटा,
बाप का दोगुना हरामी।
\लटकते हुए भीड़ से लदा बस आ कर खड़ा होने पर
स्टॉल पर सोडा के बोतलों के साथ
ठुन-ठुन बजेंगे महानगर के लंपट इशारे।
 
पीपल के नीचे
           गंदा स्कुलड्रेस पहन कर डोलती हुई
खीरा चबाती लड़की
बहादुर नेता होगी अपने खेल के
                                 साथी और साथिनों की।
स्कुल के मैदान में उसके भाषण की खबर फैलेगी तेज …
बुद्ध का ध्यान भंग होगा।
 
नालंदा के चौक पर उस दिन बहुत भीड़ है।
स्मृतियाँ जग उठने से हैरत में हैं जिले के किसान, कारीगर।
कानों कान फैलेगी खबर,
अभी,
अभी आ रही है वह लड़की
बुद्ध का हाथ थाम कर।\
 
 
लौटना
 
गोया एक भीतरी असमय हो।
छोड़ आये स्कुल के
भरे हैं सारे क्लास, बत्तियाँ जल रही हैं।
तो, लौट आया?
 
साइकिल रखता हूँ टूटे गैराज के आगे।
झुक कर
ताला लगाता हूँ।
पीछे किसी के चेहरे का आभास है …
 
आम का बगीचा, दूरियाँ, रनवे और फांकी
साफ समझमें आता है आज
            कहाँ किसकी शुरुआत है, कहाँ अंत।
कई पीढ़ियाँ हमारे बाद आ कर
धूल के बवंडर की ओर बढ़ी है।
 
लौट आया?
हाँ, देर हो चुकी बहुत।
क्या पढ़ेगा?
सारी पढ़ाइयाँ।
फिर पढ़ूंगा, सारे खेल खेलुंगा फिर से।
और कहुंगा कुछ बातें
सुबह की प्रार्थना बिगाड़ कर …
जो उस समय कह नहीं पाया।
…………….………………………
बेंत खाउंगा। रस्टिकेट होउंगा।
नये तौर पर धूल की बवंडर की ओर बढ़ूंगा।
 
 
बच्चे स्कूल से लौटते हुये बड़े होते हैं
 
दिन का रंग बदलता है।
गली गली में भाषा की
राख बैठती है, कुछ यहाँ की कुछ
                  दूसरे इलाकों के बंद चिमनियों की।
 
आंख का सफेद
बढ़ता है, ड्योढ़ियों पर, दुकानों में –
नाले पर
          गुमटी की जरा सी जगह को लेकर
दो-फाँक होता है सर।
मोहल्ले के भीतर पनपता है मोरपंखी मोहल्ला –
                                            दुसरे तल्ले पर बैबिलोन।
काला शीशा लगा कर आता है वार्ड काउंसिलर की
                                            दूसरीवाली गाड़ी।
थाना का मोबाइल
आ कर पीटते हुए लाश बना डालता है उस निर्दोष,
                                       थोड़ा मुंहफट लड़के को।
बाजार की तेजी में चलता रहता है उत्तेजक प्रचार
                                       अनेकों किस्म के उत्थान का। … 

कोई एक काम कर पाने का सवाल था! … एकदिन
शोषितों का एका तोड़नेवाले दलाल मुर्दाबाद! … फिर भी एकदिन
दर असल इतिहास के नियमानुसार भविष्य हमारा ही है! … फिर भी
 एकदिन
अन्याय जुलूस निकालता है रास्ते पर।
मूढ़ता आग लगाती है तरुणाई की नसों में।
चूकें जगाती हैं सद्विवेक की ऐंठन।
झूठ झराते हैं सहानुभूति के आंसू।
अमानवीयता
अपने ‘शहीदों’ के खून से मिट्टी भिगाती है।
नृशंस भांड़ बनने की ईच्छा
बनती है एक जुझारू आंदोलन।
 
बच्चे
स्कूल से लौटते हुये बड़े होते हैं ... ।
      
 
रात में भात की दुकान
 
हाथ धो कर बैठता हूँ रास्ते पर रखे बेंच पर,
दो पैर दोनों तरफ तान कर फैलाते हुए।
भूख बढ़ती है, सोनामुखी आँच घेर कर
ग्राहकों की बेफिक्र जल्दी –
भात की डेकची से धुँआ निकलता-भात,
                दाल, सब्जी, भुजिया एक नाप
सब के लिये आता है, मेरे लिये भी इसी दरम्यान
                                         छक कर खाता हूँ
दुकानवाले की छोटी बेटी उनींदी आँखों में,
पानी का गिलास रख जाती है,
फतिंगे भगाता हूँ, तीखी भुजिया कुछ अन्त में
खाने के लिये रख देता हूँ
हरी मिर्च रगड़ कर मांगता हूँ थोड़ा प्याज।
 
भोजन समाप्त होने पर बैठ कर
डूब कर सुनता हूँ, पुरानी या नई बस्ती के
दिन गुजारने की आवाज, बिना मिलावट –
गुंजन व मौन जिसका तान उठता है सुनसान रास्ते पर
रोशनी के कीड़ों को घेरते हुये,
                           बह जाता है,
नीम के डालों पर लगती है हवा – कुछ बोलती है क्या?
सिगरेट सुलगा कर देखता हूँ दुकानवाले की बड़ी बेटी
बैठ कर तैयार कर रही है इम्तहान की पढ़ाई,
उसकी माँ रोटी बना रही है, कामवाला लड़का
                   बैठ कर धो रहा है जूठे बर्तनों का ढेर …
                                         कहीं सोऊंगा उसके पहले
अच्छा लगता है निर्जन रास्ते के किनारे
पैर फैला कर बेंच पर बैठना
 
किसी दिन भात न खा कर अगर रोटी खाऊँ
तो तलब होती है चाय की।
“अभी नहीं होगा …” सुनकर दुकानवाले से
मिन्नत करता हूँ कि अगर दया हो,
और हो भी जाता है अगर पुराने ग्राहक हैं आप,
और अगर दोस्त भी रहें,
आवाज लगायें, “जय हो प्रभूजी की!”
 
मद्धिम उज्ज्वल मेघ, अपने मस्तूल पर नक्षत्रों को लपेटे,
नीम की डाल पर उतरता है
बेंच पर बैठ कर, बिना किसी दीक्षा के अपने
अधूरे सफर का आनन्द उठाते हैं हम।
 

यही तो
 
यही तो है जमीन जिस पर मैं खड़ा हूं!
पृथ्वी कहो या देश
जन्म का शहर
या निकलने से पहले तुम्हे देखने का पल;
तोड़ कौन डालेगा?
 
वही तो है बादल जिसकी छाया मेरे चेहरे पर!
जीवन कहो या दुख
आलोड़ित गीत
या लौट आने का सामुद्रिक क्षितिज;
सोख कौन लेगा?
 
रात में सोते बच्चे की आँखों की पंखुड़ियाँ काँपती हैं –
स्वप्न देखता है वह।
उसकी उम्र दो दिन, उसके स्वप्न की उम्र एक दिन
उसके रोने का दो दिन
                             उसकी हँसी का एक दिन,
उस एक दिन का दिनमान
हमें होना होगा।
 
 
नाम पृथ्वी
 
पहाड़ की गोद में बादल उतरता है।
आदमी
मुढ़ी फांक, पानी पी कर डेली पसेंजरी करता है।
इस ग्रह का नाम पृथ्वी है।
धूप की एक झलक में जनम का एहसास पूरा हो जाता है।
 
टाट के पर्दे के पीछे औरत तुम्हारे डर को चकनाचूर करती है अपने आर्त गर्जन से।
काले बालों वाला एक छोटा सा डाकु उछालती है।
‘तुम बहुत बार इस जगह पर आये हो,
पहचान नहीं रहे हो?”, डाकू पूछता है,
“आश्चर्य है!” –
बड़े बड़े घासों पर लहरें हामी भरती हैं।
प्यार के अतल में कांपता है तुम्हारा सजल आना और जाना।
 
पहाड़ की गोद में बादल उतरता है।
ट्रेन के टूटे दरवाजे में लाल झंडा फंस जाता है।
यतन के साथ छुड़ाते हैं।
 
बीड़ी का राख झाड़ने की जगह नहीं मिलती है।
अगले स्टेशन पर गर्दन पर धक्का दे कर उतार देता है जीआरपी।
ग्रह का नाम पृथ्वी है।
यहां पर हम
                शांति,
                स्वतंत्रता और क्रांति के लिये संघर्ष करते हैं।
 
 
रात के विडिओ-कोच
 
तुमने इस तरह की बस-यात्रायें नहीं की।
कैसे समझोगे रात के विडिओ पर धूमधड़ाके वाली फ़िल्म
                                       देखते हुये जगे रहना,
असह्य गानों के वक्त सर खिड़की से बाहर निकाल
                               धूल सना अंधेरा पोते चेहरे के साथ
सोते हुये बस्ती के कान में कहना –
 
क्या कहना?
इतना याद भी नहीं रहता है।
बीच बीच में याद आता है बदलते जाना
कही गई बातों का, हर साल –
साढ़े तीन दशक में
स्वप्न के अन्तरराष्ट्रीय मीठी धूप से रोजनामचे के
देह-झुलसाते मैदान में पहुंचना दोपहर को।
उसी बीच मास्को के हिमपात में टैंक के छत पर
                                   येल्तसिन की शराबी उन्मत्तता, युग का पतन।
 
दर असल कहने की सीमायें
बस्तियों के नींद की लौकिक खामोशी सुनने देती हैं आज,
हाइवे के दो तरफ, सांसों की लहरों में सर डुबाता हूँ, अच्छा लगता है,
                                                           एक जिन्दगी के लिये चलो, इतना ही रहे!
 
रात की यात्रायें चल रही हैं,
विडिओ की जगह ली है सीडी, डीवीडी, पेनड्राइव;
फिल्में अपने बन-ठन में पहले से अधिक अजनबी हैं:
डाइवर्सन पर
जाम लगता है कभी कभी _ सामने से आतंकवादी हमले की खबरें आती हैं,
उतर कर, पेशाब करता हूँ, फिर फिल्म में लौट आता हूँ। 
 

रिपोर्ट
 
कल इस शहर में एक दुस्साहसिक हत्याकांड संघटित हुआ है।
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल इस शहर में पुलिस का एक दानवी जुल्म
                                तीन घंटा तक चला है;
 दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल इस प्रांत के मुख्यमंत्री को अदालत ने सम्मन किया है;
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं …
कल नदी के तट पर एक लड़की मृत पाई गई है;
दो किस्म के रिपोर्ट मिल रहे हैं 

दोष हमारा नहीं हो सकता है –
दो कानों को जोड़ने वाला सर है गर्दन पर,
दोष रिपोर्ट का भी नहीं हो सकता है –
जो घटित हो रहा है, लिखा जा रहा है।
 
दोष घटनाओं का है –
जब भी घटित हो रही है
दो तरह से घटित हो रही है।
 
 
मृत्युचिह्न
 
राम, कृष्ण, ध्रुव और मेरा बचपन एक साथ बीता है।
 
ध्रुव मुझे ले जाता था गहन महाकाश में,
वहाँ कृष्ण भी रहता था, नीला, चंचल।
राम थोड़ा बड़ा था, गंभीर,
        ज्यादा बात नहीं करता था कभी।
 
तीनों अपने मृत्युचिह्न ढोये फिरते थे जन्म से ही।
राम ने दिखाया था सरयू की धारा में काँपता
                       अंतिम तारा का कास-फूल,
कृष्ण, उसका हल्का लाल तलवा,
ध्रुव, यमराज के साथ उसकी मित्रता।
 
मेरे न बोलने पर भी वे जानते थे कि
मेरा मृत्युचिह्न है जीवन,
इसलिये देखने की चाह नहीं जताई कभी।
बस, गहरी दोस्ती चाहते थे।
 

चकमक पत्थर
 
उसने देखा महाकाश में अपने कक्ष पथ पर
बहती जा रही है
यह पृथ्वी – अरे अरे, उसे छोड़ कर ही आगे चली गई तो!
 
जाय। पर लेती तो जाय उसके चकमक पत्थर का जोड़ा!
ठीक इतनी ही आग कभी कम न पड़ जाए किसी दिन!
 
बह जाती हुई पृथ्वी से उसकी संततियों ने
टीवी पर से नजर हटा कर पूछा, “पिताजी, कुछ चाहिये?”
 
:, कुछ नहीं चाहिये उसे,
चकमक पत्थर को भी उसने पानी में फेंक दिया।
 
पानी में आग
फैलते फैलते
               जिस पल जन्म लेगी नग्न मातृका उसी पल
छलांग लगाई उसने –
 
आधा पानी में रहा
आधा आग रहा।
 
 
अपने ग्रामोफोन के साथ रोक्को
 
अब तो याद भी नहीं है, शायद
सोवियतलैंड के पन्नों से ही काट कर रखते थे
तस्वीर। अचानक चौंक गये एकदिन।
अरे, यह तो मेरी ही तस्वीर है !
हाँ, चेहरा एक नहीं है, नाम भी,
रोक्को; कलाकार रेनातो गुत्तुसो।
उकड़ुं बैठ ग्रामोफोन पर गाना सुन रहा है आदमी,
1950 से लगता है, छुट्टी के दोपहरों में …
पीछे बेतरतीब शहर,
सामने टीन की छत वाले घर की अधखुली खिड़की पर कोई आयेगी,
उंगलियों के फांक में मसला हुआ सिगरेट,
लाल-काला चेक की कमीज में चढ़ा हुआ मिजाज …
कितने साल एक साथ बिताये हम दोनों ने उसके बाद।
 
फिर तो सोवियत गया, लैंड भी गया।
रोक्को और मैं रह गये।
बीच में कुछ दिनों तक मेरे प्रोफाइल पर जा कर आपलोगों को भी
जरूर मिली होगी तेल-लगी उसके पैंट की गंध।
उस दिन फेसबुक पर देखा
बमों से विध्वंस हो चुके अरब के किसी देश के शहर की सुबह।
ढूह से निकल आया है एक बूढ़ा,
ग्रामोफोन चला कर
बमबर्षक हवाई जहाज के लौटने के साथ टक्कर देकर
सुन रहा है गाना।
 
रोक्को है ही। मैं भी हूँ अभी। और एक हुये।
 
 
बिसमिल्ला
 
वही हिंद !
अभी भी लड़ रहा है।
आज भी रेडिओ पर बिसमिल्ला की शहनाई सुनने पर सुबह
                                      काम पर जाने में देर हो रही है फिर भी
आराम से चाय की दुकान की बेंच पर
                             लुंगी नीचे कर बैठ रहा है।
क्या तो कहा था खाँ साहब ने –
अमरीका जा कर रहने की बात पर?
‘पहले गंगा को ले जाओ ! बहाओ वहाँ ... ”
अरे जिओ !
केले के खिच्चे पत्ते
धूप पकड़ रही है जौनपूरी में। 
चाय में उबाल आने पर उलीच कर झस्स्स्स – भाप उड़ा रही है आंच।
 
‘देखें सर, बीच वाला पन्ना’ …
 

जगह

बैठ जा!
सोच, कब से
रक्खे हुए हूँ जगह!
धक्के पर धक्का आया है समय का
चेहरे पर टॉर्च मार कर,
हक जता कर,
घूंसा तान कर, दोस्ती जगा कर …
 
बहाव के बाद बहाव, बाढ़ का –
डूब गये हैं घाट पर के शिवजी, हनुमानजी,
फिर से नये दियर में जगे हैं मौरुसी पट्टे के साथ,
बालू के परतों में हवा उठती है, आंख लहरती है!
 
रब्बर के भेंपु कई दोपहर लेकर रह गये,
घर से खोमचा सजा कर मोड़ घूमते ही
जादूगर बन जाने वाले लोग
रह गये उस दोपहर में!
बांस में लिपटा
चीनी के लट्ठे के लिये मुंह का पनियाना …
क्या सब कुछ
कर लिया जा सकता है समयोपयोगी?
सहजन भी नहीं इल्ली भी नहीं!
 
बैठ जा!
शुक्र है कि लेट हुई ट्रेन।
शुक्र है कि वह सब कुछ हुआ
जो कभी सोचा नहीं था कि होगा।
शुक्र है कि वह सब कुछ भी उस तरह नहीं हुआ
जिस तरह, सोचा था कि होगा।
 
 
आराम करती हुई औरत
 
जिस घर में वह काम करती है भर दिन
उस घर से वह अब निकल आई है।
रोशनी और अंधेरे में स्पष्ट हो रही है देर-शाम।
रेललाइन पार कर
और आधा मील जाने पर है उसका अपना बसेरा।
क्या वहां वह जायेगी अभी?
वहाँ अभी पहुँचने पर पतोहू
देह-हाथ में दर्द है कह कर उसे ही
फिर से घुसायेगी रसोई में।
हालाँकि बहुत देर करने को भी
             चाह नहीं रहा है मन क्योंकि
अपने देर-दोपहर के भोजन से दो मछली
उसने छुपा कर रखी है पोते के लिये, साड़ी के खूंट में।
 
थोड़ा निर्जन देख कर वह बैठी नाले पर बने फुटपाथ पर। 
बैठते ही हवा ने उसे अपना लिया।
अपना लिया रोशनी और छाँह की रफ्तार ने।
अपना लिया उसे उसके रक्त के थकान की नींद।
आ;, छोड़ छोड़ – जैसे नींद नहीं दो गर्म हाथ हो बच्चे का,
छुड़ा कर, आंख खोल कर उसने देखा। उठेगी?
न, थोड़ी देर और। सोच कर वह बैठी रही स्थिर।
 
कुछ कुछ दूर पर और कुछेक औरतें
इसी तरह बैठी थीं हवा और रोशनी-छाँह की
रफ्तार का अपना बन कर, रक्त के थकान की नींद का
अपना बन कर; उसने ध्यान नहीं दिया था।
 
 
सिक्का
 
दर असल वही जगहें हमेशा
सबसे अच्छी लगती हैं मुझे
जहां दूसरे रूट की बस उतार कर चली जाती है,
खलासी दिशाहीन दिखाता है,
‘उधर से जाइए! मिल जाएगी सवारी!”
 
दूर तक मैदान भर मवेशी
गाजरघास के फैलाव से बच कर भोजन ढूंढ़ रहे हैं,
दो रास्ते दो तरफ चले गये हैं –
किधर जाऊं? – तभी बारिश
जोरदार उतरती है बड़ी बड़ी बूंदों में
 
इतनी सारी झाड़ियां, खर-पतवार,
घास की फैली है हरियाली लेकिन
एक बड़ा पेड़ नहीं है कि दौड़ कर
उसके पत्तों की छांह में खड़ा होऊं!
किधर जाऊं?
 
पॉकेट से सिक्का निकाल कर
उंगली नचा कर उछालता हूं हवा में –
हेड हो तो यह रास्ता टेल हो तो वो …
धत्तेरे की, वह सिक्का भी
लुढ़कते हुये जा कर खड़ा रुकता है
 
भीगे घास के भीतर –
कहां से आ रहा था कहां
जाना था भूल जाता हूं,
सिक्का चमकता है
इन्द्रधनुष जगाती बारिशवाली धूप में!
 
 
टेढ़ा पुल
 
1
आज पाँच हत्यायें हुई हैं शहर में।
भीतर में तीन, दो बाहर।
मॉर्ग में आया हूँ तो जान रहा हूँ।
एक के लिये हमलोग, बाकी चार के लिये दूसरे –
आज लावारिस कोई नहीं है।
 
कुछ लोग रो रहे हैं।
उन्हे सम्हालने की भारी जिम्मेदारी
                           और कुछ लोगों को दी गई है।
कुछेक जमादार को रख रहे हैं बातों में मशगूल
ताकि डाक्टर के आने पर, लाश
                              पहले मिल जाये। 
हमारेवाले के लिये पैसा दिया हुआ है,
चिंता की जरूरत नहीं।
असली तो है डाक्टर की रिपोर्ट,
                  उसी पर खड़ा होगा केस। 
 
मॉर्ग के चारो ओर पोखर भरा हेलिओट्रोप, असंख्य,
                         आसमान सोख रहे हैं, हवा में डोल रहे हैं।
हत्यारों के जासूस भी हमारे बीच हैं लेकिन वह बाद की बात है।
पहले लाश का दाहसंस्कार जरूरी है।
 
2
“यहीं पर ऑटो से खींच, उतार कर उसकी हत्या की थी।
अपराधियों ने, नहीं, पोलिटिकल कुछ नहीं है,
                                                 लेकिन हमारा कॉमरेड
उलझता जा रहा है लगातार
                               मरे भाई की समस्याओं में
 अदालत, पुलिस और
                  हत्या की धमकियों का मुकाबला करते करते।
नये किसी काम में हमलोग
                      पा नहीं रहे हैं उनको …”
 
आम का बगीचा और नदी के किनारे खड़े
                                               ईंटे के भट्टों को
दो तरफ रखते हुये हाइवे यहाँ
पतला होकर गाँव के रास्ते की तरह मुड़ गया है –
शेरशाह के जमाने का छोटा पुलिया पकड़ने के लिये।
पूरे इलाके का ही नाम है अभी
टेढ़ा पुल!
सुर्यास्त से गर्म बिस्कुट की गंध तैर आई – नया लगा है कारखाना।
 
 
ईख
 
डंडा कम पड़ने पर
ईखवाले से एक ईख खरीद, बैनर में लगा कर
शुरु हुआ था जुलूस।
सोचा था,
खा लिया जाएगा वह ईख –
छोटी एक कविता में समेटुंगा उसका मीठा रस।
 
ईख की कविता बहुत दूर तक गई है।
हमारे रोज के जीवन में
उस दूरी तक जाने का
सपना भी मुश्किल है।
 
हा: हा: !
सम्मेलन के अंत में –
हमारा पहला सम्मेलन –
ईख मिली ही नहीं !
दरबान की बात से लगा,
कूड़ा बटोरनेवाले बच्चों के झुंड ने
हॉल के बाहर रखे डंडों के गुच्छे में उस ईख को
जरूर पहचान लिया होगा।
गेट के पास उन्हे
एक ईख को तोड़ कर बांटते हुए
देखा गया था।
 
समझ में आई बात, कि
छोटा होना, मीठा होना या मन के मुताबिक होना
बड़ी बात नहीं है।
क्यूबा हो या भारत का यह छोटा शहर,
कविता जिस तरह आगे बढ़ी और जितनी दूर तक गई,
उसी तरह उसे एक, और एक ही कविता में समेटना …
बड़ी बात है
और समस्या भी है।
 
 
ऊन के तोते
 
1
माँएं बहुत बढ़िया खाना पकाती हैं।
जो बच्चे कल जन्म लेंगे उनकी
पहली रोशनी बना कर रखती हैं,
सजा कर, सँवार कर,
किराए का संकरा सा घर।
शीशे के दुमंजिले पर बजता है विदेशी गीतों का रिकॉर्ड
मिट्टी की पहली मंजिल के अन्दर
माँएं बुनती हैं ऊन के तोते।
माँएं बहुत चाहती हैं पढ़ना
लेकिन पढ़ पाती हैं अगर
नियति ने दे रखा हो, जिसे कहते हैं,
हिस्सा, आखिरी उम्र का।
कैसी थी माओं की
पहली उम्र, यह जानने का खयाल आते आते
कई बार देर हो जाती है।
 
2
“जरा ढूंढ़ना तो वह ऊन का तोता!”
आश्चर्य है कि लिखते लिखते ही
इस वाक्य का हर एक शब्द
एक खोये शहर में भाई, बहन, बंधु, बांधवी और
हमारी माधवी रात बन जाते हैं –
केन्द्र में लगभग अदृश्य
रहती हैं एक माँ
जिनका चश्मा बदलना
होगा होगा सोचते हुए भी नहीं हो रहा है –
पांच मिनट समय लगता है उन्हे
टूटे हरे लाल ऊन से तोता बुन कर
एक मुट्ठी पुरानी रुई भरने में।
 
3
कईयों ने देखी थी वह चिड़िया।
हमारे परिचित रिक्शावाले को
दिखाते ही उसे याद आई थी उसकी अपनी माँ
जो दो कोस दूर जाती थी पीने का पानी लाने,
लौटते समय
उठा लाती थी करमी का साग –
… आ: कितना गजब का लगता है भात के साथ!
रिक्शेवाले ने हँस कर कहा
“हमे नहीं लगता है।
इतना खाये हैं साल दर साल!”
 
माँ ने बुलाया,
“कौन बोलो तो! देखूँ पहचान पाती हूँ या नहीं!
घर कहाँ है, बोला तुमने? और लिखाई पढ़ाई”
 
मेरी माँ न हो,
उन्हे पहचानते थे तो कई सारे लोग,
किसी न किसी की माँ के तौर पर;
इसी तरह और इतना ही
हम एक दूसरे की माँओं को
पहचानते आये हैं इतने दिनों तक।
 
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एक माँ का ऊन का तोता
उड़ कर बैठा दूसरी माँ की
गुप्त कविताओं पर।
कागज सब खचर मचर उड़ कर
तैरने लगे एक और माँ की
मद्धिम गुनगुनाहट की धुनों में।
वे धुन फिर बांधने लगी अद्भुत घास की बुनावट
किसी और एक माँ के हाथों की।
 
तुम्हारे चेहरे पर उम्र की बढ़ती सिलवटें।
ढूंढ़ता हूँ
ऊन का तोता किसी दूसरे रूप में।
 
चिड़िया मिलेगी तुम्ही लोगों को, वक्त पर, जानता हूँ।
हमलोग खोते रहेंगे।
 
 
अभ्यास
 
हर दिन कम-से-कम एक कविता मैं भी लिखना चाहता हूं
प्रेरणा या वो जिसे भाव कहते हैं, जुटाना चाहता हूं, जाड़े की सुबह में
ताने गये तार पर से आधा-भीगे कपड़े उतार कर सूंघते हुये;
घने कुहासे में ग्रिल पर खिले हुए हैं तीन सफेद अपराजिता …
मेरे लिये इन सबों से अधिक भरोसे की जगह है गड्ढे-नाले पार कर
काम पर भागते मड़ोड़े-सिकुड़े लोग –
कल शाम को एक दुबली सी खिली तरुणी को देखा, ड्यूटी से निकल कर
                   गर्मागर्म पकौड़े-बचके खा रही है फुटपाथ पर खड़ी हो कर,
पीछे मिक्सर से पाइप में उंडेला जा रहा था गर्म, तरल, कॉंक्रीट … मशीन
                                                                              का एक मधुर गुंजन;
इसी तरह आम आदमी को बहलाती है विकास की लीला
और बढ़ती जाती है दिन के अंत में मुंह के भीतर थूक की बेबसी …
फिर भी नहीं, यह सब कुछ नहीं मैं उस तरुणी के चेहरे के फ्रेम में ढूंढ़ता हुं हर दिन
थोड़ी कविता थोड़ा गर्म तरल कॉंक्रीट।
 
 
राणा की मृत्यु पर
 
कुहासा तो हर युग में
बल्कि और अधिक आसक्ति ही देता रहा है
                               दृष्टि को।
नैसर्गिक उपज है, किसी दांभिक का रसायन नहीं।
पसीना है धरती का –
बुलाता है कार्बन की व्यस्तता की ओर।
 
कोई तर्क कभी हारा नहीं कुहासे के साथ, फिर भी
राणा की मृत्यु में,
क्या है सोवियत के पतन की भूमिका – 
                     विवश होता हूँ सोचने को।
 
इतने विवर्ण आत्मसंहार इन अठ्ठारह सालों में –
विकृति के कितने गुप्त अभिसार –
होते क्या?
          जीवन के शिशुपाठ में अगर
‘पृथ्वी का एकभाग स्थल’ की तरह वह अभिधा, प्राणोष्णक,
हमें बुलाती, “चले आओ! और अधिक सवालों में, समझ में,
                                         आत्मपरिचय में एक होने के लिये!”…?
बुलाती व्यवहार में;
 
व्यवहार की ही बात करते हैं हम
छुड़ाने आशा-निराशा की शराबखोरी –
कुहासा ही फिर भी
हर युग में दृष्टि को आसक्ति देता रहा है अधिक।
 
अठ्ठारह सालों से
भ्रातृघाती आत्मपरिचयों के बीच, गर्व के साथ
छोटा होता चला जा रहा है आदमी।
 
 
जून-दोपहर का मैंडोलिन
 
                            माँ बोली थीं
“दूसरे को कब लायेगा धरती पर तू सब?
ला!
दे जाना! उसे भी बड़ा कर तब
जाउंगी, जहाँ जाना हो।”
 
माँ की गोद से माँएं
जन्म लेती हैं। शहर की यह गंदी,
                            कीचड़ भरी गली
ताकत की घाटी बनती है कवि के लिये –
                       चक्का, तलवार व शोक –
गाढ़ा होते हैं अंगूर
                       प्रबल मातृत्व से, वसुंधरा की,
कहावतों में बंध जाती हैं ॠतुएं,
खिड़की पर मिट्टी के घड़े में रहता है
                            जून-दोपहर का मैंडोलिन।
 
बाहर पसीना,
                    कार्बन झराते हैं
अनेकों जनवादी संघर्षों में काम आए
लिथो की गोले,
रात की उमस में
हमारी भाषा का पतन,
गीतों के अर्थ की चोरी ...
 
एक दूध का पौधा
नीरव, जड़ रोपता है
                  अराजक, दुष्कर प्रत्यूष में।
अतसी बड़ी होगी।
...........................
कितना बड़ा था मैं, कितनी छोटी थी
पन्द्रह-सोलह साल पहले पृथ्वी।
सुदूर ग्रह की तरह थी;
                             उसका गुरुत्वाकर्षण
कदमों का बोझ जैसा था।
 
गुरुत्वाकर्षण आज पंख है मेरा।
       आज से पन्द्रह-सोलह सालों के बाद
और बहुत छोटा होउंगा मैं
पृथ्वी और बहुत बड़ी होगी।
फिर भी बहुत हैं वे दिन।
शहर और अधिक मूर्ख होंगे रोज,
गांवों के छिले गर्दन अधिक हिंस्र होंगे,
गंज में निकलेंगे स्थानीय साप्ताहिक
            सामूहिक बलात्कार के जख्मों को
                                 भर कर बार बार।
मानचित्र पर विदीर्ण होंगे हाथ,
          झंडे पर साया होगा,
            शासकों द्वारा जलाई गई आग की।
अतसी उकेरेगी चेहरे ‘रात के पहरे पर’,
बर्न्ट एम्बर, पीला और क्रिमसन रंगों में,
दंगे की रात दीवार की तरह
       गली के मोड़ पर खड़े उसके साथियों की।
……………….………………
पुराने ट्रेडल मशीन के साथ
रात जग कर लौटता हूँ –
           एनिबेसन्त रोड के मोड़ पर अंधेरा है,
बीच-रास्ते मंदिर के माथे पर आकाश पसारे हुये
          पीपल के पत्तों में कान रोप कर सुनता हूँ
नीलापन लिये हवा का ज्वार
                उठने का समय हुआ या नहीं।
 
मैं क्या खुद को क्षय कर रहा हूँ?
या जीत रहा हूँ?
हर दिन?
बार बार प्रूफ पढ़ कर भी
                         रह गई अशुद्धियों को
सुधार रहा हूँ, बारिश से भीगे
                   छापाखाने के आंगन को देखते हुये?
          
 
पानी की मीनार
 
पानी की मीनार!
भीतर, पारदर्शी टंकार
तरल पृथ्वी की!
नीचे, मशीन के गुंजन में
लुप्त हो चुके टेथिस का
नियंत्रित आलोड़न।
 
वह स्तंभ मेरा हाथ था।
सीमेंट का बना वह पात्र, हथेली, असहाय
बंजर रेगिस्तान के झुलसते आसमान की ओर उठी थी।
कई नदियों के तट पर,
कई चांद के बरसों की
एक ही ताकत और जंजीर से
उकेरा गया था
पहला निष्क्रमण।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर
पानी का शहरी घर।
घर के भीतर
पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!
 
पानी!
एक दिन तुम्हारी ही शाम के फैलाव में
जनपद खड़ा करने को बुलाने के बाद
वज्रपात से दरकती रात में
तट लांघ कर गरजते हुए आ कर
तोड़ डाले थे चूल्हे,
मिट्टी के पात्र पर बने हमारे पत्तों के गुच्छे और तारे। …
हम डर गये थे।
माँ तो प्रेयसी भी हैं!
फिर भी नवजात हम उस रात को
नग्न, वन्य अभिसार में देख, तुम्हे
                    डर गये थे –
बांध बनाना नहीं सीखा था हमने तब तक,
नहीं सीखा था बनाना बराज, टर्बाइन।
टूटी बस्ती और मृत हड्डियों में,
गाद की कुछेक परतों में इसलिये डूब कर फिर
 
फैल गये थे … ।
कितनी बार बदला रंग और बनावट मिट्टी का;
नये फल, नई धातु और नये युग की ओर फिर भी
तुम्हारे ही नामों के साथ हम आगे बढ़े –
युफ्रेटिस, सिंधु, नील, दान्युब, यांगत्से, एमाजन …
और आज गंगा के तट पर एक बदरायी सुबह में
इस पानी की मीनार के सामने मैं खड़ा हूँ –
पानी!
तरलता, प्रणयिनी वसुंधरा की!
हमारे कॉंक्रीट के हृत्पिंड में तुम बज रहे हो।
 
तुम पहला आईना हो।
तुमने ही चेहरे की छवि दी थी।
मृत्यु स्पर्शनीय बनी
(शायद अरण्य हँस पड़ा था हमारी मूर्खता पर –
कहां गया वह चतुर खरगोश।) –
 
आज
सहजता के साथ बोल सकता हूँ, “पानी!
तुम मेरे ही शंखनाद पर,
समय के एहसास की अंधकार जटाओं से एक शुक्ला तृतीया में
उज्जीवित हो लौटे थे …’
भाषा के जलपात्र में, अपने ही तांडव के मर्म में
रुपहली मछली बन कर रहने के
कब के प्रसंग हैं ये सारे –
मछियारों की बस्ती का बारहों महीना,
तुम्हारे साथ हमारे प्यार और झगड़ों का मांगल्य।
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में पानी के कदमों की आहट – प्राचीन, चंचल!
 
मनुष्य का अपना एक गुरुत्वाकर्षण है।
पानी!
तुम्हे उसने अपने कंधों के आसमान पर बिठाया।
भिश्तीवाला! भिश्तीवाला!
           पीठ पर लबालब मशक!
उसकी बाँसुरियों को वह फैला दिया शहर की जमीन के नीचे नीचे।
…………………….………………………………
सुबह होती है।
पोर पोर से उफनने लगती है नदियों की लाड़ली दोपहर –
घर लाने में सर फटता है माँ का, छोटी बहन का …।
भिश्तीवाले के फेफड़ों में क्यों धूल है रेगिस्तान का?
 
पानी की मीनार!
पक्षी और हवा के रास्तों पर पानी का शहरी घर।
घर में दर्द के पंखों की आवाज – प्राचीन, भारी!
 
पानी!
कब पहली बार चेतना में उठ आईं मरी हुई मछलियाँ?
कब हम बने टापू?
कब बने इश्तहार?
………….…………………………
……….……….…………………
नीले आसमान के सीने पर पानी की मीनार …
सड़क से थोड़ी दूर, कॉलोनी में
               किसी के, भीगे, लकड़ी के गेट का पता!
हेलीकॉप्टर से नीचे, कैमरे में,
शहर की तहों में पानी के मीनार,
            बदन पर काई, इस बार के बारिश की।
गुलाबी कोरलवाइन फूल
            सीढ़ी को आगोश में ले रक्खे हैं:
बहुत करीब की तस्वीर में मेरी सदी की
                  करुणा की तरह एक षोड़शी की
                             चंचल दो आंखें ...