बांग्ला
लेखक सोमेन चन्दा, भारतीय उपमहाद्वीप में, फासीवाद-विरोधी संघर्ष में शहादत देने वाले
प्रथम साहित्यकार हैं। मात्र 22 वर्ष की उम्र में फासीवादी ताकतों ने उनकी हत्या कर
दी। वर्ष 2020 उनके जन्म का शताब्दीवर्ष है।
सोमेन
चन्दा का जन्म 24 मई 1920 को, वर्तमान बांग्लादेश की राजधानी ढाका शहर के आसपास हुआ
था। उनके जन्म के गाँव के नाम को लेकर थोड़ा मतभेद हैं – किन्ही का कहना है नरसिंग्दी
जिले का आशुलिया, किन्ही का कहना है तेघरिया एवं किन्ही का कहना है बलिया। पश्चिम बंगाल
में उनकी रचनाओं के संकलन के सम्पादक दिलीप मजुमदार एक और अतिरिक्त तथ्य देते हैं कि
17 वर्ष की उम्र के होते होते सोमेन अपने परिवार के साथ ढाका शहर के मोइशुन्दी इलाके
में रहने लगे थे।
8 मार्च
2016 को एनटीवी ऑनलाइन में प्रकाशित अंजन आचार्य लिखित एक प्रतिवेदन के अनुसार, सोमेन
चन्दा के पिता का नाम था नरेन्द्र कुमार चन्दा एवं माता का नाम था हिरणबाला। सोमेन
के पिता ढाका स्थित मिटफोर्ड अस्पताल के स्टोर्स डिपार्टमेन्ट में काम करते थे। सोमेन
ने अपनी माँ को चार वर्ष की उम्र में खो दिया था। पिता नरेन्द्र कुमार की दूसरी शादी
धोउर गाँव के डा॰ शरतचन्द्र बसु की बेटी सरयु देवी से हुई थी। इन्ही को, यानि सौतेली
माँ को ही सोमेन अपनी माँ के रूप में जानते थे।
सन
1936 में ढाका स्थित पोगोज स्कूल से सोमेन ने एन्ट्रैंस पास किया। वह चिकित्सक बनना
चाहते थे इसलिये मिटफोर्ड मेडिकल कॉलेज में उन्होने दाखिला लिया। परिवार की आर्थिक
स्थिति अच्छी नहीं थी, फिर भी सोमेन के डाक्टर बनने की ईच्छा को पूरी करने की उन्होने
भरसक कोशिश की। लेकिन खुद सोमेन कठिन बीमारी से ग्रस्त हो गये। सन 1939 में उन्हे तीव्र
ब्रॉन्काइटिस एवं प्लुरिसी से गुजरना पड़ा। परिवार के लिये शिक्षा और इलाज, दोनों खर्च
को उठाना सम्भव नहीं था। मेडिकल की पढ़ाई अन्तत: छूट गई।
किशोरावस्था
से ही सोमेन उत्सुक पाठक थे, और स्थानीय पुस्तकालयों में जाया करते थे। आगे हम उनके
रचनासंकलन के सम्पादक दिलीप मजुमदार के शब्दों का ही यथासंभव अनुवाद प्रस्तुत करते
हैं:
“इस बीच
सोमेन का परिचय उन मार्क्सवादी क्रांतिकारियों से हुआ जो अन्दमान में जेल की अवधि पूरी
कर घर आये थे, जैसे सतीश पकड़ाशी एवं अन्य। उनका गहरा असर सोमेन के जीवन पर पड़ा। इस
असर के कारण सोमेन के नजरिए एवं सोच के तरीके में बदलाव आया। स्पेन के गृहयुद्ध में
कलाकारों एवं लेखकों ने जो महान त्याग स्वीकारे, उसके बारे में सुनने के बाद सोमेन,
निराश व उद्यमशून्य असहाय गरीब जनता के जीवन की कहानियों पर आधारित, आम आदमी का साहित्य
रचने को प्रेरित हुए।
“सन
1938 के अन्त में, दक्षिण मोइशुन्दी की जोड़पुल गली में मार्क्सवादियों का एक दफ्तर
था। हर दिन मजदूर वहाँ मिलते थे और आपस में विचारविमर्श करते थे। छोटे कद का, गोल चेहरा
वाला, शर्मीला एवं सरल स्वभाव के एक किशोर को अक्सर वहाँ पूरी तन्मयता के साथ उनके
विचारविमर्श को सुनते देखा जाता था। कहने की जरूरत नहीं कि इस किशोर का ही नाम था सोमेन
चन्दा। अपने आग्रह एवं निष्ठा के कारण थोड़े ही दिनों के अन्दर वह मार्क्सवादी नेताओं
एवं कार्यकर्ताओं के बीच परिचित हो उठे। फलस्वरूप, साहित्यसृजन के साथ साथ इस किशोर
ने मानवमुक्ति के लिए सामाजिक क्रांति के एक कार्यकर्ता की भूमिका को भी स्वीकार किया।
सन 1939 के मध्य में सोमेन ने दक्षिण मोइशुन्दी प्रगति पाठागार के क्रियाकलापों में
सक्रिय रूप से अपना योगदान देना शुरू किया। निरहंकार इस किशोर के उत्साह एवं कार्यकुशलता
को देखते हुए तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं ने इसे उक्त ‘पाठागार’ [पुस्तकालय] के संचालन
का जिम्मा दिया। ‘पाठागार’ के संचालन में सोमेन ने जो दक्षता दिखाई थी उसकी चर्चा उनके
तत्कालीन मित्रों ने बारबार की है। ‘प्रगति पाठागार’ को संगठित करने के बाद सोमेन ने
खुद को ‘ढाका प्रगति लेखक व शिल्पी संघ’ बनाने के काम में नियोजित किया। साहित्य की
दुनिया में उस समय वह नया थे, फिर भी उनके अथक परिश्रम, सांगठनिक कार्यकर्ता के गुण,
आदमी को आकर्षित करने की क्षमता, विनम्र आचरण एवं उदार दृष्टि का लाभ संगठन को अपने
स्थापनाकाल में मिला। इसी समय सोमेन ने पार्टी के नेताओं को अपनी ईच्छा बताई कि वह
ढाकेश्वरी मिल में या नारायणगंज के जूटमिल में जाकर सांगठनिक गतिविधियों के माध्यम
से श्रमिकों के जीवन के साथ परिचित होना चाहते हैं। लेकिन नेताओं ने सही फैसला लिया
और सोमेन को लेखक संघ में ही रखना आवश्यक समझा। वैसे, पार्टी के नेताओं के समक्ष सोमेन
द्वारा किए गए इस आवेदन से पता चलता है कि वह एक लेखक के तौर पर एकान्तवासी बन कर रहना
नहीं चाहते थे। और यही यथार्थ भी था। ढाका शहर के आसपास गाँवों में जाकर, दुख और गरीबी
से भरा हुआ किसानों का एकरस जीवन वह खुद अपनी आँखों से देख आते थे। मज़दूरों और किसानों
के लांछित निरादरपूर्ण जीवन से ही उन्हे जनसाहित्य के रचना की प्रेरणा मिली थी। अपने
हृदय से उन्होने अनुभव किया था कि साहित्य को सर्वहारा क्रांति का सहायक होना पड़ेगा।
“सन
1940-41 में अंग्रेज सरकार ने जबर्दस्त हमले चलाये कम्युनिस्ट पार्टी पर। कई कम्युनिस्ट
जेल गये, कई, गोपनीय तरीके से काम करने के लिए घर छोड़ दिए। सोमेन तब क्रांतिकारी गतिविधियों
में और ज्यादा शामिल होने लगे। साहित्य के काम का अवसर कम होता गया। उस समय, रेल कम्पनी
में कार्यरत मजबूत रेलवे श्रमिक युनियन में काम करने वाले आदमी का अभाव हुआ। रेलवे
युनियन का कामकाज भी फैला हुआ था – नारायणगंज से बहादुरघाट, जगन्नाथघाट से भैरव स्टेशन
तक। दिनरात सोमेन पड़े रहते थे श्रमिकों के बीच, उनकी समस्याओं को समझने की को्शिश करते
थे, पूरी उर्जा के साथ समझ रहे थे युनियन के कार्य करने की पद्धति। दो महीनों तक काम
करने के उपरांत वह भाँति भाँति के असंख्य श्रमिकों के अपने हो उठे। सन 1941 में वह
सर्वसम्मति से श्रमिक युनियन के सचिव चुने गये। इतनी कम उम्र के युवा के लिये यह बड़े
गौरव की बात थी। सिर्फ इतना ही नहीं, अपनी निष्ठा एवं लगन के कारण उन्हे कम्युनिस्ट
पार्टी की सदस्यता भी हासिल हुई।
“इस समय,
अपने लेखन पर वह कम ध्यान दे रहे थे। अपनी सैद्धांतिक बुनियाद को मजबूत करने तथा जनता
के जीवन से नये अनुभव प्राप्त करने में लगे हुए थे। दूसरी ओर इस कठोर परिश्रम के साथ
साथ रात में जग कर या कभी फुरसत में गहरी तल्लीनता से वह पढ़ाई करते गए और श्रमिक परिवारों
को, उनके रोजमर्रे को और उनकी आशाओं व आकांक्षाओं को जानने का प्रयास चलाते रहे।
“सन
1941 के जून के महीने में हिटलर द्वारा सोवियत संघ पर आक्रमण किया गया। सोमेन के काम
का दायरा भी बढ़ गया। तत्काल जरूरी था कि इस युद्ध का तात्पर्य एवं सोवियत संघ की भूमिका
के बारे में जनता के बीच प्रचार किया जाय। प्रगति लेखक व शिल्पी संघ द्वारा इस काम
का बीड़ा उठाया गया और मार्क्सवादियों ने सोवियत सुहृद [मित्र] समिति के नाम से एक संगठन
बनाया। सोमेन चन्दा, रेलवे श्रमिक युनियन के काम में व्यस्त रहने के बावजूद प्रगति
लेखक व शिल्पी संघ का काम तो देख ही रहे थे अब सोवियत सुहृद समिति का काम भी देखने
लगे। हालाँकि इस समय वह अपनी रचनाएं किसी पत्रिका में प्रकाशित करने पर ज्यादा ध्यान
नहीं दे रहे थे पर उनका कलम बन्द नहीं हुआ। यथार्थ तौर पर जन-साहित्य के सृजन के काम
में कितनी दूर वह आगे बढ़ पाये इसकी जाँच करते रहते थे।
“पहले
ही कहा गया है कि सोमेन के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। फिर वह खुद
भी कमजोर स्वास्थ्य के थे। उनके प्रति स्नेहशील रहने वाले उनके पिता कभी भी उनके नौकरी
करने के पक्ष में राय नहीं देते थे। लेकिन सोमेन पिता की तकलीफ समझ रहे थे। इसलिये
बाद के दिनों में अपने मित्र सरलानन्द सेन को सोमेन ने कहा था, “किसी काम पर लगाइए
मुझे, नहीं तो मोराल टूट जाएगा!” अस्थाई तौर पर सोमेन कहीं नौकरी करने लगे थे या नहीं
इसके बारे में जानकारी नहीं मिलती है।
“आपस में
चन्दा इकट्ठा कर प्रगति लेखक संघ ने उस समय, ‘क्रांति’ नाम से एक संकलनग्रंथ प्रकाशित
किया था। ‘क्रांति’ के प्रकाशन में सोमेन चन्दा का ही उद्यम मुख्य था और उस ग्रंथ में
सोमेन की, नई शैली में लिखी कहानी ‘वनस्पति’ प्रकाशित हुई थी। उसी समय ढाका में साम्प्रदायिक
दंगे शुरू हुए। दिन-दोपहर में सड़कें सुनसान, आदमी के करीब से आदमी को चलने में डर लगता
है लेकिन सोमेन को छुट्टी नहीं। जोखिम-भरे इलाकों में भी जा रहे हैं देश के काम के
लिए, हिन्दु और मुसलमानों के बीच सद्भाव वापस लाने के लिए। इसी पृष्ठभूमि में रचित
हुई सोमेन की एक असाधारण कहानी ‘दंगा’। इसकी रचना के कुछ ही दिनों के बाद रचित हुई
उनकी प्रख्यात कहानी ‘चूहे’।
“सन
1941 का अन्त होते होते मार्क्सवादियों के साथ राष्ट्रवादियों की लड़ाई बहुत आगे बढ़
गई। सन 1942 के 8 मार्च को मार्क्सवादियों ने ढाका में एक सम्मेलन का आह्वान किया;
सम्मेलन का नाम था ‘फासीवाद-विरोधी कार्यकर्ता सम्मेलन’। सुत्रापुर में इस आयोजन की
तैयारी चल रही थी। कोलकाता से बंकिम मुखर्जी और स्नेहांशु आचार्य ढाका पहुँचे सम्मेलन
में सभापति एवं मुख्य अतिथि के तौर पर हिस्सा लेने के लिए। लेकिन इस सम्मेलन में बाधा
डालने के लिये राष्ट्रवादी लोग हथियार वगैरह के साथ तैयार हो रहे थे। अपराह्न के ढाई
बजे सोमेन चन्दा अपने हाथों में लाल झंडा उठाए हुए, रेलमजदूरों के एक जुलूस का नेतृत्व
करते हुए सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए रेल-कॉलोनी से रवाना हुए। लगभग तीन बजे जुलूस
पहुँचा लक्ष्मीबाज़ार, हृषिकेश दास रोड के मोड़ पर। उसी समय छुरा, कुकरी, लोहे के रॉड
आदि के साथ राष्ट्रवादियों के एक हिस्से ने जुलूस पर हमला किया। जुलूस तितर-बितर हो
गया। तब उन लोगों ने सोमेन को चुन लिया। कुकरी से बार बार चोट कर उन्हे जमीन पर गिरा
दिया, उनकी आँखें निकाल ली, जीभ खींच कर काट दिया, पेट चीर कर अँतड़ियाँ बाहर निकाल
दी और अट्टहास करते हुये पशुओं की तरह सोमेन के लुंजपुंज रक्ताक्त शरीर पर वे नाचते
रहे। जब तक शरीर में ताकत बची थी, सोमेन लगातार नारे लगा रहे थे, आखरी सांस तक उनके
हाथों से लाल झंडे को छीनना दुश्मनों के लिए सम्भव नहीं हुआ था। इसी तरह सोमेन चन्दा
ने अपने आदर्श को स्थापित करने के लिए शहादत दी। उनका रक्त पूरी दुनिया के मुक्तियोद्धाओं
के रक्त के साथ मिल गया। एक महान बलिदान के बदले वह ढाका के संग्रामी प्रगतिशील साहित्यकारों
को गौरवान्वित कर गए।”
….……….……….……
लेखक के
रूप में उनकी रचनाओं के प्रकाशन से सम्बन्धित जो तथ्य मिलते हैं उनके अनुसार, सन 1937
में, 17 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कहानी ‘शिशु तपन’ साप्ताहिक ‘देश’ पत्रिका में
प्रकाशित हुआ था। उनकी कई कहानियाँ ढाका, कोलकाता, सिलहट एवं अन्य शहरों से निकलने
वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी। ‘नवशक्ति’ पत्रिका में उनका लिखा हुआ एक उपन्यास
‘वन्या’ [बाढ़] भी प्रकाशित हुआ था। गौर तलब है कि यह उपन्यास बाढ़ के उन विध्वंसों पर
था जिनका सामना बंगाल की जनता हर साल करती है।
एनटीवी
ऑनलाइन में प्रकाशित प्रतिवेदन में अंजन आचार्य कहते हैं कि मार्क्सवादी नेताओं में
अगर सतीश पकड़ाशी थे जिन्होने सोमेन को राजनीति एवं दर्शन की शिक्षा दी, तो रणेश दासगुप्ता
सरीखे नेता भी थे जिन्होने सोमेन को अपने समय का साहित्य – बंकिमचन्द्र, शरतचन्द्र,
विभूतिभूषण से लेकर गोर्की, मोपासाँ, बारबूस तक एवं अन्य कईयों को - पढ़ने को प्रेरित
किया।
उनकी सूचना
के अनुसार अब तक सोमेन की अट्ठाइस कहानियाँ, एक उपन्यास, तीन कविताएं एवं दो नाटक प्रकाशित
हुए हैं। उनके द्वारा लिखे गये पत्रों का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ है। बांग्ला अकादमी,
कोलकाता कई वर्षों से युवा लेखकों को सोमेन चन्दा स्मृति पुरस्कार देते आ रहा है।